गुरुवार, 15 अगस्त 2024

Right to Abortion in Human Rights Perspective -गर्भपात का अधिकार मानवाधिकार सन्दर्भ में

Right to Abortion in Human Rights Perspective








चित्र स्रोत :https://www.pexels.com/@lucasmendesph/  

गर्भपात समाज में सदैव से एक विवादास्पद विषय रहा है |यह विषय विश्व की करीब आधीआबादी के मानवाधिकारों से सरोकार रखता है | विश्व भर में महिला अधिकारों के प्रति बढ़ती चेतना और आंदोलनो के परिणाम स्वरुप महिला प्रजनन अधिकारों और शारीरिक स्वायत्ता पर बहुत जोर दिया गया | उचित स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण महिलाओं को अपना गर्भपात झोलाछाप चिकित्सकों और अकुशल दाईयों से करना पड़ता था फोटो जिसके कारण गर्भपात के दौरान या बाद में कई मामलों में महिलाओं का स्वास्थ्य गंभीर रूप से ख़राब हो जाता था या उनकी मृत्यु हो जाती थी | यह समस्या सम्पूर्ण समाज के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी थी |

इस समस्या के निदान हेतु विश्व भर के देशों में अलग अलग कानूनौ का निर्माण हुया | इन कानूनौ के तहत अनावश्यक या ऐच्छिक गर्भपात पर रोक लगा दी गयी तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को गर्भपात की अनुमति प्रदान करने के प्रावधान किये गए | 

पितृसत्तात्मक समाज के चलते एक दौर ऐसा भी रहा है जिसमे महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन के रूप में समझा जाता रहा है | लेकिन सामाजिक बदलाव के कारण आधी आवादी में अपने अधिकारों को लेकर स्थानीय स्तर से लेकर अन्तराष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थाओं के समक्ष अपने मानव अधिकारों को रखने को लेकर जागरूकता आयी है | परिणाम स्वरूप महिलाओं ने अपने घर से लेकर समाज,सरकार और न्यायालय तक संघर्ष के जरिए अपने हकूक की बातों को पहुंचाया है | 

समय समय पर महिलाओं के समक्ष नयी नयी चुनौतियों ने अपने पैर पसारे,लेकिन उनका समाधान भी सामने आया | इसी क्रम में महिलाओं के समक्ष गर्भपात की एक जटिल समस्या भी आयी जिसमे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, कानूनी और मानवाधिकार सन्दर्भों का समावेश होने के कारण इसने बहुआयामी स्वरुप ले लिया | लेकिन महिलाओं की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ने न सिर्फ अंतराष्ट्रीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन अधिकारों को मान्यता दिलाई है | 

प्रजनन अधिकार एक व्यापक शब्दावली है जिसके अधीन "गर्भधारण का अधिकार" के साथ-साथ "गर्भ का समापन का अधिकार " भी आता है | इसमें महिला की शारीरिक स्वायत्तता,उसकी गोपनीयता और गरिमा का अधिकार भी आता है | महिलाएं अपने शरीर का उपयोग कैसे करें यह उनकी शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार में आता है तथा इस पर निर्णय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उनको ही है | 

विवाह का प्राथमिक उद्देश्य प्रजनन  कर संतानोत्पत्ति  करना तथा वंश को आगे बढ़ाना है लेकिन समय के साथ साथ भारत में दहेज़ प्रथा तथा बाल विवाह जैसी विकृतियों ने भी जन्म ले लिया | समाज में दहेज़ प्रथा का सबसे भीभत्स असर कन्या भ्रूण ह्त्या के रूप में दृष्टि गोचर हुआ | भ्रूण हत्या रोकने के लिए यद्यपि भारतीय दंड संहिता की धरा ३१२  से ३१८ तक प्रावधान किये गए | 

विशेष रूप से समाज में महिला और पुरुष का लैंगिक अनुपात बनाये रखने के लिए कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाया जाना आवश्यक था इसलिए भारत की संसद द्वारा गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, १९९४ पारित किया गया | जिसके तहत गर्भाधारण से पहले या बाद में भ्रूण के लिंग चयन करना, जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के उद्देश्य के लिए लिंग का परीक्षण करना, उसमे सहयोग प्रदान करना,और लिंग चयन के सम्बन्ध में विज्ञापन जारी करने को कानूनी अपराध बना दिया गया |

कुछ विशेष परिस्थितियों में अनचाहे गर्भ धारण से छुटकारा पाने के लिए कोई प्रावधान नहीं था इसलिए चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया | जिसके अनुसार विशेषज्ञ चिकित्सक द्वारा अधिकृत चिकित्सा केंद्र में गर्भवती महिला की पूर्व अनुमति से या नाबालिग या विकृत चित्त होने की स्तिथि में उसके माता-पिता या संरक्षक की पूर्व अनुमति से गर्भ का समापन कराया जा सकता है | उक्त अधिनियम में गर्भपात के स्थान पर गर्भ का समापन शब्द का उपयोग किया गया है | गर्भ के समापन से तात्पर्य है कि चिकित्सकीय या शल्य चिकित्सकीय पद्धतियों का उपयोग करते हुए किसी गर्भावस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया से है | 

अधिनियम में बताया गया कि पंजीकृत चिकित्सक द्वारा  गर्भ का समापन निम्नांकित परिथितियों में किया जा सकता है :(१) भ्रूण को बनाये रखने में माता की जान को ख़तरा हो |(२) गर्भधारण बलात्कार या कौटुंबिक व्यभिचार  का परिणाम हो |(३) यह स्पष्ट हो गया हो कि बच्चे के गंभीर रूप से दिव्यांग पैदा होने की प्रबल संभावना हो |(४) गर्भधारण परिवार नियोजन के साधान की असफलता का परिणाम हो |(५) गर्भावस्था के दौरान महिला की वैवाहिक स्थिति बदल गई हो (जैसे कि विधवा हो गई हो या तलाक हो गया हो) और दिव्यांग महिलायों की स्तिथि में ।

भारत में गर्भपात सम्बंधित क़ानून बनने के बाबजूद आज भी यह एक पूर्ण अधिकार के रूप में नहीं है |  चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ में किये गए परिवर्तन से पूर्व १६ हफ्ते से लेकर २० हफ्ते तक  पंजीकृत चिकित्सक के अनुमोदन पर अधिकृत चिकित्सा केंद्र पर गर्भ समापन की अनुमति थी 

विधि द्वारा स्थापित समय सीमा के भीतर गर्भवती स्त्री द्वारा गर्भ का समापन न कराये जाने की स्थति में उसके पास कोई विकल्प नहीं होता सिर्फ और सिर्फ न्यायालय के समक्ष जाकर गर्भ के समापन की अनुमति लेने के सिवाय | यही ही नहीं महिला को न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन की अनुमति के लिए जाने के बाद न्यायालय के समक्ष अपनी विशेष परिस्थितयों को सिद्ध करना पड़ता है तब कही उसे गर्भ समापन की अनुमति मिलती है | 

यदि महिला न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन के लिए आवश्यक कानूनी बाध्यतायें या विशेष परिस्थितियों  को सिद्ध करने में असफल रहती है तो विधि द्वारा निर्धारित गर्भ समापन की मियाद निकलने के बाद न्यायालय गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर सकता है | यह स्थति किसी भी महिला के लिए अनचाहे गर्भधारण की अवस्था में अत्यधिक असहज वातावरण पैदा करने वाली होती हैं | यही नहीं कई मामलों में न्यायालय से उपचार प्राप्त करने के लिए पहुंचने के बाद आदेश होने में महीनो का समय यू ही बर्बाद हो जाता है | हर संसाधन विहीन महिला उपचार हेतु उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय नहीं पहुंच सकती है | यह स्थति अनचाहे गर्भधारण से व्यथित महिलाओं के लिए उचित चिकित्सकीय सहायता तक पहुंच के उसके मानव अधिकार से वंचित करती है | 

सितम्बर २०२१ में,चिकित्सकीय गर्भ समापन (संशोधन) अधिनियम ,२०२१  लाया गया जिसके द्वारा गर्भ के समापन के लिए निर्धारित समय सीमा २० हफ्ते से बढ़ाकर २४ हफ्ते कर दी गयी | उक्त संसोधन द्वारा भी गर्भवती महिलाओं को गर्भ के समापन को अधिकार के रूप में नहीं प्रदान किया गया | लेकिन समय सीमा को बढ़ाकर सरकार ने गर्भपात के नियमो को लचीला कर महिलाओं को बड़ी रहत पहुचायी | गर्भ के समापन की पुरानी समय सीमा से बाहर अनेक मामले न्यायालयों के समक्ष पहुंच रहे थे इसलिए महिलाओं को गर्भ के समापन के लिए बढ़ाई गई अवधि तक सुरक्षित चिकित्सा सहायता पहुंचाने के लिए उक्त संसोधन लाया गया |

प्रजनन अधिकारों से सरोकार रखने वाली सर्वोच्च न्यायालय की विधि वयवस्था एक्स बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी में २२ सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की मानीय न्यायालय द्वारा अनुमति दी गयी | इस विधि व्यवस्था में न्यायालय ने स्थापित किया गया कि केवल विवाहित स्तिथि के आधार पर किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त अधिकारों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता है तथा किसी प्रकार का विभेद संवैधानिक नहीं है | 

इस विधि व्यवस्था में यह भी स्थापित किया गया कि गर्भावस्था को पूर्ण करने या समाप्त करने का निर्णय महिला की शारीरिक स्वतंत्रता के अधिकार और जीवन में अपना रास्ता चुनने की उसकी क्षमता पर पूरी तरह आधारित है | माननीय न्यायालय ने यह भी माना कि अनचाही गर्भावस्था से महिलाओं के जीवन पर गंभीर और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जैसे कि उसकी शिक्षा, रोजगार और मानसिक स्वास्थ्य  को बाधित करना | 

सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय ने गर्भ का समापन करने को विभिन्न कारणों से विवश महिलाओं के पक्ष में मानवाधिकार केंद्रित एक सकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया था अर्थात उनके प्रजनन मानवाधिकारों को व्यापक रूप प्रदान करने की दिशा में एक सकारात्म न्यायिक निर्णय था |

विधि व्यवस्था शुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशाशन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया है कि किसी भी महिला का प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद २१ का एक अहम् पहलू है | इसी प्रकार  न्यायमूर्ति केएस पुट्टस्वामी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य नामक निर्णय में महिला के प्रजनन करने या प्रजनन न करने को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार और निजता का अधिकार के  अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी | 

सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था एक्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में ,२७ वर्षीय २ बच्चों की एक विवाहित महिला ने अवांछित गर्भधारण होने के बाद प्रारम्भ में स्वास्थ्य केंद्रों पर गर्भ के समापन कराने का प्रयास किया लेकिन उचित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध न होने पर उसका तत्काल समापन कराने के लिए आवश्यक स्वास्थय सेवा तक पहुंच की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का रूख करने के लिए विवश होना पड़ा |

याचिकाकर्ती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत विपक्षिओं को उनकी वर्तमान गर्भावस्था से चिकित्सकीय गर्भपात के लिए दिशा निर्देश जारी करने के निर्देश दिए जाने की याचना की गयी | उसने याचिका में बताया कि २४ हफ्ते तक उसे अपनी गर्भावस्था का पता नहीं लग सका, क्योंकि उसे लेक्टेशनल एमेनोरिया की बीमारी थी जिसके कारण दूध पिलाने वाली महिला को महामारी (पीरियड्स) नहीं होते हैं | महिला ने बताया कि दूसरे बच्चे के जन्म के बाद पहली बार प्रसूति रोग  विशेषज्ञ (गयनोकोलॉजिस्ट) के पास गयी क्योंकि उसे उलटी,कमजोरी,सुस्ती और पेट में परेशानी महसूस कर रही थी | उसका उल्ट्रासाउंड हुआ जिसके बाद उसे पता चला कि वह गर्भवती है | उस वक्त गर्भावस्था अनुमानतः २४ हफ्ते की थी | 

याचिकाकर्ती ने कथन किया की वह और उसके पति ने अस्पतालों में चिकित्सकीय गर्भ का समापन कराने का प्रयास किया लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी एक्ट, १९७१ सपठित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी रूल्स २००३ (२०२१ में यथा संसोधित) के कारण असफल रही | इस लिए वह रिट के अधिकार क्षेत्र के तहत सर्वोच्च न्यायालय पहुंची और उसने निम्न आधारों पर अपने गर्भ समापन की अनुमति की मांगी | (क)वह प्रसवावस्था के बाद होने वाले डिप्रेशन से पीड़ित है और उसकी मानसिक स्थति अनुमति नहीं देती है कि अन्य बच्चे को बड़ा कर सके |(ख)उसका पति उसके परिवार में एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति है और उसके पास देखभाल करने के लिए पहले से ही दो बच्चे हैं और परिवार के अन्य सदस्य भी हैं जो उन पर निर्भर हैं | 

याचिकाकर्ती को उसी दिन आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस ,नई  दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के समक्ष उपस्थित होने के आदेश पारित किये गए | जिसके बाद अल्ट्रासोनोग्राफी की रिपोर्ट के आधार पर माननीय न्यायालय द्वारा ९ अक्टूबर २०२३ को माना कि गर्भावस्था के जारी रखने से याचिकाकर्ती की मानसिक स्तिथि को गंभीर रूप से छति पहुंचेगी और इस आधार पर उसे चिकित्सकीय गर्भपात की अनुमति प्रदान कर दी गयी | 

लेकिन उसके बाद हुए घटनाक्रम में दरअसल दिनांक १० अक्टूबर, २०२३ को आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस,नई दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के एक सदस्य द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया गया कि गर्भ के जीवित रहने की प्रबल संभावनाएं है तथा सर्वोच्च न्यायालय से दिशा निर्देश प्रदान करने की गुजारिश की कि क्या भ्रूण की ह्रदय गति रोकी जानी चाहिए |यदि भ्रूण की ह्रदय गति नहीं रोकी जाती है तो बच्चे को गहन चिकित्सा के अधीन रखना पडेगा और इस बात की अधिक संभावना है कि बच्चे को तत्काल या दीर्घकालीन शारीरिक और मानसिक विकलांगता हो जाए | सदस्य चिकित्सक ने न्यायालय से दिशा निर्देश की मांग की कि क्या भ्रूणह्त्या की जानी चाहिए, उन्होंने कहा कि हम आभारी होंगे यदि माननीय न्यायालय प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए दिशा निर्देश जारी करे | 

इसी के बाद न्यायालय ने अपना पूर्व में दिया गया आदेश वापस ले लिया और इसके बाद न्यायालय में हुयी बहस ने नया मोड ले लिया | न्यायालय के समक्ष रखे जा रहे तर्कों में भ्रूण की स्तिथि और अजन्मे बच्चे के अधिकारों के बारे में न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया | परिणाम स्वरुप अंतिम निर्णय के तौर पर न्यायालय ने याचिकाकर्ती की प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार के मुकाबले अजन्मे बच्चे के अधिकारों को ज्यादा वरीयता दी,जिसके कारण न्यायालय ने गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर दिया | 

उक्त निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि प्रजनन स्वायत्तता के पूर्ण उपयोग के लिए गर्भवती महिला को अपनी परिस्थितिजन्य खतरों और गर्भपात की अपनी पूर्ण आवश्यकता को साबित करना होगा | इससे स्पष्ट है कि  सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व में दिए गए निर्णयों में प्रजनन अधिकारों के बारे में अंतिम निर्णयकर्ता के रूप में  गर्भवती महिला को मान्यता दी गयी थी लेकिन उक्त निर्णय से प्रतीत होता है कि महिला को प्राप्त गर्भ के समापन का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है बल्कि तार्किक प्रतिबंधों की भेट चढ़ गया है| 

उपरोक्त अधिनियम प्रजनन स्वायत्तता व् महिला केंद्रित होने के बाबजूद सेवा प्रदाता केंद्रित हो गया है अर्थात अधिनियम में वर्णित विशेष परिस्थितियों और गर्भ के समापन हेतु अनुमन्य समय-सीमा के बाहर अवांछित या अनचाहे गर्भ के समापन के लिए गर्भवती महिला को चिकित्सकों और न्यायालयों पर ही निर्भर रहना होगा | जिससे स्पष्ट है कि महिलाओं को प्राप्त गर्भपात का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है तथा यह अधिकार तार्किक प्रतिबंधों द्वारा बाधित या सीमित अधिकार है | 

सयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की वर्ष २०२२ में दी गयी एक विधि व्यवस्था डॉब्स बनाम जैक्सन महिला स्वास्थ्य संगठन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया कि अमेरिका का संविधान गर्भपात का अधिकार प्रदान नहीं करता है | इस निर्णय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने पुरानी विधि व्यवस्थायों  रो बनाम वाडे ,१९७३ तथा प्लांड पररेंटहुड बनाम कासे, १९९२ को रद्द कर दिया | 

उपरोक्त के अवलोकन से यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण न होगा कि विश्व के सर्वाधिक विकसित माने जाने वाले देश सयुक्त राज्य अमेरिका में अब गर्भपात का अधिकार पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है | यद्धपि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का गर्भपात के अधिकार को समाप्त करने का निर्णय यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका का गर्भपात सम्बंधित मानव अधिकार प्रावधानों की संयक्त राष्ट्र संघ के सदस्य के रूप में अंतराष्ट्रीय समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता के विपरीत है | 

उक्त से स्पष्ट है कि भारत में ही नहीं अमेरिका जैसे विकसित देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद गर्भवती महिलाओं के लिए अधिकार के रूप में गर्भपात की उचित चिकित्स्कीय सुविधाओं तक पहुंच अत्यधिक दुरूह कार्य हो गया है | वहीं फ्रांस विश्व का पहला देश बन गया है जिसने वर्ष २०२४ में महिलाओं के पक्ष में गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक अधिकार  के रूप में घोषित किया है | 

यदि ऐतिहासिक पटल पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि हिन्दू अवधारणा के अनुसार गर्भपात या भ्रूण ह्त्या एक पाप था | विधिक दृष्टांतों से भी पता चलता है कि अजन्मे शिशु को भी जीवित व्यक्ति की भाँति माना जाता है | ब्रॉनबेस्ट  बनाम कोट्ज़  नामक विधि व्यव्स्था में अजन्मे बच्चे को मानव के समान स्वीकार किया गया | जन्म लेने के अधिकार को देखें तो स्पष्ट होता है कि गर्भपात का अधिकार कोई पूर्ण अधिकार नहीं है | 

जन्म लेने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ में जीवन का अधिकार से पूर्ण रूप से संरक्षित है | यदि एक गर्भवती महिला को  भ्रूण समापन का पूर्ण अधिकार दिया जाता है तो यह भ्रूण ह्त्या का एक नया अधिकार उत्त्पन्न  करेगा | एक स्वस्थ और जीवित रहने की प्रबल छमता रखने वाले भ्रूण या अजन्मे शिशु की हत्या विश्व के किसी भी विधि में अनुमन्य नहीं है |

जन्म से पहले और जन्म के बाद शिशुओं का संरक्षण राज्य  के दायित्वाधीन है | राज्य किसी भी महिला या बालिका को यह अधिकार नहीं दे सकता कि वह कोख में पल रहे अजन्मे बच्चे की हत्या करे या करवाए | इसी लिए गर्भपात के अधिकार को भारतीय दंड संहिता और चिकित्सकीय प्रक्रिया तथा गर्भ समापन अधिनियम ,१९७१ द्वारा सीमित किया गया है | परिणामस्वरूप भ्रूण में पल रहे बच्चे को जीवित पैदा होने का विधिक संरक्षण राज्य द्वारा प्राप्त होता है | 

गर्भवती बालिकाओं और महिलाओं की गर्भपात के अधिकार के रूप में चिकित्सकीय सुविधाओं तक की पहुंच अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार के मूल में स्थापित है | गर्भपात तक पहुंच एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार है जो मानव अधिकारों की व्यापक शृंखला के रूप में जीवन,व्यक्ति की सुरक्षा,गोपनीयता,गैर भेदभाव के मानव अधिकारों केसाथ-साथ क्रूर,अमानवीय, या अपमानजनक व्यवहार से मुक्ति की गारंटी भी प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण है |व्यक्ति के एक मानव अधिकार के उल्लंघन की स्तिथि में उसके अन्य कई मानव अधिकारों पर भी नकारात्मक असर पड़ता है |

संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकार कमेटी ने गर्भपात के अपराधीकरण के सम्बन्ध में अपनी चिंता जाहिर की है तथा सदस्य राज्यों से असुरक्षित गर्भपात रोकने के लिए  सुरक्षित गर्भपात के साधनों तक अधिक से अधिक पहुंच बढ़ाने का अनुरोध किया है | उपरोक्त से स्पष्ट है कि सुरक्षित और आवश्यक गर्भसमापन के लिए मानव अधिकार केंद्रित तथा संतुलित विधि और नीतियाँ ही सर्वाधिक हितकारी उपाय है जिससे गर्भपात के अधिकार और भ्रूण के अधिकार में संतुलन कायम हो सके | 

१.https://en.wikipedia.org/wiki/Dobbs_v._Jackson_Women%27s_Health_Organization 
२. (१९८९ )१५ एफo एल o आर o २०९७ 

F A Q :
प्रश्न  : क्या गर्भपात मानव अधिकार का मुद्दा है ?
उत्तर : सुरक्षित और विधिक गर्भ के समापन तक गर्भवती महिला की पहुंच निश्चित रूप से मानवअधिकार का विषय है | अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रसंविदायों के तहत किसी गर्भवती बालिका या महिला को गर्भपात के सम्बन्ध में उचित स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच से इंकार या वञ्चित्त करना उसके साथ भेदभाव करने के सामान है जो उसके कई मानव अधिकारों को  खतरे में डालता है क्योंकि सभी मानव अधिकार एक दूसरे पर अंतर्निर्भर है |
 
प्रश्न : क्या भारत में अविवाहित बालिकाऔर महिला के लिए गर्भपात विधिक है ?
उत्तर : भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित विधि व्यास्था के अनुसार सभी महिलाओं ,जिनमे अविवाहित भी शामिल हैं,२४ सप्ताह तक गर्भपात करा सकती हैं | भारत में  गर्भपात को १९७१ में अधिनियमित किया गया तभी से इसे विधिक बना दिया गया लेकिन समय के साथ-साथ गर्भपात के नियम कठोर होते जा रहे है | 

 प्रश्न : क्या गर्भ के समापन के लिए बालिका या महिला की सहमति आवश्य्क है ? 
उत्तर : गर्भ का चिकित्स्कीय समापन अधिनियम,१९७१ के प्रावधानों के अनुसार गर्भ का समापन कराने वाली महिला की सहमति आवश्यक होती है | नाबालिग अर्थात जिसने जिसने १८ वर्ष की आयु पूरी न की हो तथा या दिव्यांग महिला के सन्दर्भ में उसके संरक्षक की सहमति आवश्य्क है | लेकिन यदि नाबालिग अवांछित गर्भ को नियमित कर अपने बच्चे को जन्म देना चाहती है तो संरक्षक की सहमति की तुलना में उसकी सहमति को तवज्जो दी जाएगी | 

शुक्रवार, 31 मई 2024

मानव अधिकार, बालक और भारत का संविधान-Human Rights, Children and Constitution of India (in Hindi)

the article is about the linkage among Human Rights, Children & the Constitution of India

संविधान किसी भी देश के नागरिकों के मानव अधिकारों के संवर्धन एवम संरक्षण और उनका उलंघन रोकने के लिए महत्वपूर्ण  दस्तावेज होता है तथा जो समाज के सभी वर्गों के अधिकारों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है | भारतीय संविधान में विशेषकर बच्चों के अधिकारों को विशेष महत्त्व दिया है | जिसके आधार पर उनकी मासूमियत और भविष्य की रक्षा होती है | मानवाधिकार और संवैधानिक प्रावधान दोनों बालकों को सुरक्षित,शसक्त और विकासोन्मुख वातावरण प्रदान करते हैं | 

बच्चे देश का मुस्तकबिल होते हैं तथा देश के विकास और सम्बृद्धि के आधार होते हैं | भारत में एक लिखित संविधान है जो नागरिकों को,जिसमे अपनी मासूमियत के लिए पहचाने जाने वाले बच्चे भी शामिल हैं, के संवैधानिक और विधिक अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है | इसी लिए भारतीय संविधान बाल अधिकारों का प्रणेता हैं | बच्चों के अधिकार को  मूल अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में संविधान में समाहित किया गया हैं | बच्चे मानवता की दिव्यतम निधि हैं, जो देश के विकास की बुनियाद और गारंटी दोनों है | 

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत और अंगीकृत अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार विधि के अनुसार बालक का तात्पर्य उस हर व्यक्ति से है जिसकी उम्र १८ वर्ष से कम है | बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित अभिसमय ,१९८९ के अनुच्छेद १ के अनुसार अभिसमय के प्रयोजन के लिए बालक का अर्थ अठारह साल से कम उम्र का प्रत्येक मनुष्य है,बशर्ते कि बच्चे को लागू क़ानून के अनुसार वह उससे कम उम्र में ही वयस्क न माना जाने लगे | 

अलग अलग संवैधानिक और विधिक प्रावधानों के अनुसार बालक को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है :

भारतीय संविधान के अनुछेद ४५ के अनुसार १४ वर्ष से काम आयु के व्यक्ति  को बालक बताया गया है | 

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण)अधिनियम,२०१५  में बालक से तात्पर्य है कि बालक वह व्यक्ति  है जिसने १८ वर्ष की उम्र पूरी नहीं की है |  

भारत के संविधान में बच्चों के कल्याण के लिए नीति निर्देशक तत्वों और अधिकार के लिए मूल अधिकारों में संवैधानिक प्रावधान किये गए है, जो निम्नवत हैं ;

राज्य,भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के सामान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा| 

(१) राज्य ,किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म ,मूलवंश ,जाति ,लिंग जन्मस्थान या इनमे से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा

किसी व्यक्ति को उसके प्राण और दैहिक स्वंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही बंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं | 

राज्य ६ वर्ष से १४ वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति में जो राज्य विधि द्वारा अवधारित करे उपबंधित करेगा |  
(१)मानव के दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उलंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा | 
(२)इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनो  के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी |ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमे से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा | 

१४ वर्ष से काम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या फिर किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा | 

राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से ;
(ड़)पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगार में न जाना पड़े जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हों ;
(च)बालकों को स्वंत्रन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए | 

राज्य सभी बालकों के लिए छह वर्ष की आयु  पूरी करने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देख-रेख और शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा | 

भारत में महिलाओं,अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति ,दिव्यांगजन तथा विभिन्न यौनिकता वाले व्यक्ति आदि की तरह  बच्चों को विशेष समूह के रूप में महत्त्व दिया गया है | 

इसी लिए संविधान में बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं | लेकिन अंतराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के अधिकारों को लेकर सयुंक्त राष्ट्र बालकों के अधिकार पर सम्मलेन को स्वीकृत और अंगीकृत किया गया | उक्त सम्मलेन के आधार पर भारत ने अपने यहाँ बालकों की श्रेणी में उन  व्यक्तियो को रखा जिन्होंने १८ वर्ष की आयु पूरी न की हो | इसके लिए अपने यहाँ के क़ानून में भी बदलाव किया गया | 

जिन बच्चों की देख भाल और संरक्षण की आवश्यकता है वे १८ वर्ष की उम्र पूरी न होने तक राज्य का संरक्षण प्राप्त करने के हकदार होंगे | उक्त बालकों ने बेशक विवाह कर लिया हो तथा उनके बच्चे भी हों लेकिन वे बालकों के रूप में ही वर्गीकृत होंगे तथा विभिन्न विधियों  के अधीन प्राप्त संरक्षण और सुविधाओं के लिए हकदार होंगे | 

भारतीय संविधान में बालकों के अधिकारों को विशेष समूह के रूप में समावेशित कर लिया गया था | लेकिन करीब-करीब उसी दौर में सयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा मानव अधिकारों से सम्बंधित एक अंतराष्ट्रीय दस्तावेज को स्वीकृत और अंगीकृत करने की घोषणा की जो कि मानव अधिकारों की सारभौमिक घोषणा ,१९४८ के नाम से जाना जाता है | 

उक्त घोषणा में कई मानव अधिकारों को समावेशित किया गया था लेकिन विशेष समूहों  के मानव अधिकारों के रूप में अंतराष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रावधान नहीं किया गया था | समय के गुजरने के साथ -साथ वैश्विक स्तर पर बालकों के अधिकारों पर अंतराष्ट्रीय क़ानून की मांग तेज होती गयी | अनेक नागरिक समाजों और मानव अधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा स्थानीय,राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के लिए मांग उठाई गई, परिणाम स्वरुप बच्चों के अधिकारों को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर क़ानून स्वीकृत और अंगीकृत किया गया | 

बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित अभिसमय ,१९८९ के पक्षकार राज्यों, जिसमे भारत भी एकपक्षकार राज्य है, ने स्वीकार किया कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और मानवाधिकार सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सयुक्त राष्ट्र संघ ने घोषणा की है और वह इस बात पर सहमत हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी भी प्रकार के विभेद के बिना,जैसे नस्ल,रंग,लिंग,भाषा,धर्म,राजनीतिक या अन्य मत,राष्ट्रीय या सामाजिक मूल,सम्पति,जन्म या अन्य स्थतियों पर आधारित विभेद के बिना,उक्त घोषणा तथा प्रसंविदाओ में उल्लिखित सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं  का हकदार है| 
 
पक्षकारों ने यह भी स्वीकार किया कि  मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा में सयुक्त राष्ट्र ने ऐलान किया है कि बचपन विशेष देखभाल और सहायता का पात्र है तथा इस बात को भी स्वीकार किया कि बच्चे को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण और सुसंगत विकास के लिए पारिवारिक परिवेश में आनंद,स्नेह और सौहार्द के वातावरण में बढ़ना चाहिए |  
सदस्य राज्यों ने इस बात को ध्यान में रखा कि ,जैसा कि बच्चे के अधिकार सम्बन्धी घोषणा में निर्दिष्ट किया गया है, "अपनी शारीरिक और मानसिक अपरिपक्वता के कारण बचे को जन्म लेने से पूर्व और उसके बाद भी विशेष संरक्षण और देखभाल की आवश्यकता है ,जिसमे उपयुक्त कानूनी संरक्षण का भी समावेश है |" 

बच्चों के अधिकारों से संबंधित अभिसमय के अनुछेद ३ (१) में इंगित किया गया कि,"बच्चों से संबंधित सभी कार्यवाहियों में,चाहे वे कार्यवाहियां सरकारी या गैर सरकारी समाज कल्याण संस्थाओं द्वारा की जाए या न्यायालयों द्वारा अथवा प्रसासनिक प्राधिकारियों या विधायक संस्थानों द्वारा ,बच्चों के वास्तविक तत्व मुख्य विचारणीय तत्व होंगे | 

अभिसमय के अनुछेद ३ (२) में पक्षकार राज्यों के बच्चों के प्रति उत्तरदायित्व को दर्शाते हुए लिखा गया है कि,"वे वचन देते है कि वे बच्चे के माता-पिता,कानूनी अभिभावकों या उनके लिए कानूनन अन्य जिम्मेदार व्यक्तियों के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को ध्यान में रकते हुए उसके लिए ऐसा संरक्षण और देखभाल सुनिश्चित करेंगे जो उनके कल्याण के लिए आवश्यक हो और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी उपयुक्त वैधानिक तथा प्रशासनिक उपाय करेंगे | 

उक्त के अतिरिक्त अभिसमय में बच्चों के स्वास्थ्य,शिक्षा,विभेद से मुक्ति, लैंगिक शोषण और दुर्वयवहार से बचाव, यातना,क्रूरतापूर्ण,अमानवीय या अपमान जनक व्यवहार से बचाव,जीवन का अधिकार सम्बन्धी अन्य मानव अधिकारों का समावेश किया गया है |   

समाज के सकारात्मक विकास के लिए बालक मानव अधिकारों का  अत्यधिक महत्व होता है | बालक किसी भी समाज के सतत विकास और सशक्त भविष्य की बुनियाद होते हैं उनकी शिक्षा,स्वास्थय ,सुरक्षा और चहुमुखी विकास पर ध्यान देना आवश्यक है, ताकि वे एक स्वस्थ्य और सशक्त नागरिक बन सकें | बच्चों की मासूमीयतता को दृष्टिगत रखते हुए उनके अधिकारों का  विशेष संरक्षण बेहद जरूरी है | जो कि न सिर्फ उनकी भलाई के लिए आवश्यक है बल्कि समाज के सतत विकास के लिए भी आवश्यक है | 

मानव अधिकार बिना किसी उम्र की बाधा के सभी के लिए उपलब्ध हैं फिर भी उनकी विशेष स्थति के कारण उनको प्रौढ़ व्यक्तियो से अधिक संरक्षण और सलाह की आवश्यकता होती हैं  इसी लिए उन्हें कुछ विशेष  अधिकार प्राप्त होते हैं | बालकों के इन अधिकारों को एक अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार दस्तावेज का रूप प्रदान करने के लिए  बच्चों के अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र सम्मलेन का आयोजन किया गया | जिसके परिणाम स्वरुप विश्व भर में बच्चों के अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण करने के लिए बच्चों के अधिकारों पर सयुंक्त राष्ट्र सम्मेलन के रूप में एक महत्वपूर्ण अंतराष्ट्रीय विधि स्वीकृत और अंगीकृत की गई |इस प्रस्ताव पर भारत ने १९९२ में हस्ताछर कर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की |  

बच्चो के अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र सम्मलेन में मुख्य रूप नागरिक,राजनैतिक, सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों के रूप में मुख्यतः बच्चों की उत्तरजीविता,संरक्षण,विकास और भागीदारी के मुद्दों को बच्चों के मानव अधिकार के रूप में समाहित किया गया है | उक्त सम्मलेन में बच्चों के उक्त मानव अधिकारों को  विस्तार देते हुए समाहित किया गया है | 

विश्व मानवाधिकार सम्मेलन १४ से २५ जून १९९३ तक आस्ट्रिया के विएना नगर में आयोजित किया गया | इस आयोजन में १७१ राज्यों तथा अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं और गैर-सरकारी संगठनों के लगभग ७,००० प्रतिनिधियों ने भाग लिया | २५ जून १९९३ को सम्मलेन ने विएना घोषणा और कार्य योजना को अंगीकार किया,जिसे बाद में सयुक्त राष्ट्र की महासभा ने अनुमोदित किया |
इस घोषणा की महत्वपूर्ण बात है कि इसमें लोकतंत्र,विकास तथा मानवाधिकारों की पारस्परिक अंतर्निर्भरता अवं मानवाधिकारों की सार्वजनीनता, अविभाज्यता और अंतर्निर्भरता को स्वीकार किया गया तथा उसमे सदस्य राज्यों द्वारा गहरा विशवास वियक्त किया गया | इस घोषणा में बच्चों के अधिकारों को निम्न प्रकार व्यक्त किया गया;

विश्व मानवाधिकार सम्मलेन सभी राष्ट्रों से विश्व शिखर कार्य -योजना में निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अंतराष्ट्रीय सहयोग से अपने-अपने उपलब्ध संसाधनों की हद तक अधिक से अधिक उपाय करने का अनुरोध करता है | यह सम्मलेन राज्यों से आग्रह करता है कि बच्चे के अधिकार सम्बन्धी अभिसमय को अपनी-अपनी कार्य योजनाओं में शामिल कर ले | 

इन राष्ट्रीय कार्य योजनाओं और अंतर्राष्ट्रीय प्रयत्नो के जरिये शिशुओं तथा माताओं की मृत्यु -दरों को कम करने,कुपोषण और निरक्षरता की दरों को घटाने तथा शुद्ध पेय जल और बुनियादी शिक्षा की सुलभता की व्यवस्था करने के कार्यों को विशेष प्राथमिकता दी जानी चाहिए | राष्ट्रीय कार्य योजनाओं को ऐसा रूप  देना चाहिए जिससे जब भी जरूरत पड़े,वे प्राकृत आपदाओं और शस्त्र संघर्षों से उत्पन्न विनाशकारी आपात स्तिथियों और बच्चों की घोर गरीबी का ,जो उतनी ही गंभीर समस्या है,निवारण कर सके |  

विश्व मानवअधिकार सम्मेलन सभी राज्यों से अनुरोध करता है कि वे,अंतराष्ट्रीय सहयोग के समर्थन से,विशेष कठिन परिस्थितियों में पड़े बच्चों की गंभीर समस्यों के समाधान की और ध्यान दें |बच्चों के शोषण और उत्पीड़न के निवारण केलिए,जिसमे इनके मूलभूत कारणों का निवारण भी शामिल हैं,सक्रिय तौर पर प्रयत्त्न किया जाना चाहिए | नवजात बालिकाओं की हत्या ,हानिकर बाल-श्रम ,बच्चों और बच्चों और अंगों की बिक्री ,बाल बेश्याबृति ,बच्चों के लिए अश्लील लेखन और साथ ही अन्य प्रकार के लैंगिक दुर्व्यवहार के खिलाफ प्रभावकारी उपाय करने की जरूरत है | 

विश्व मानव अधिकार सम्मेलन सयुंक्त राष्ट्र संघ और उसकी विशिष्ट एजेंसियों द्वारा बालिकाओं के मानव अधिकारों का प्रभावकारी संरक्षण और अभिवर्धन सुनिश्चित करने के लिए किये जाने वाले सभी उपायों का समर्थन करता है | विश्व मानव अधिकार सम्मेलन राज्यों से अनुरोध करता है कि वे ऐसे मौजूदा कानूनों और विनियमों को रद्द कर दें तथा ऐसे रीति -रिवाजों को मिटा दे जो बालिकाओ के खिलाफ विभेद करते हैं  और उन्हें हानि पहुंचाते हैं | 

विश्व मानव अधिकार सम्मेलन इस प्रस्ताव का प्रबल समर्थन करता है कि महासचिव सशस्त्र संघर्षों के दौरान बच्चों के संरक्षण की व्यवस्था में  सुधार के उपायों का अध्य्यन आरम्भ कराएं | युद्ध क्षेत्रों में बच्चों की रक्षा करने और उनकी सहायता के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए मानवीयता सम्बन्धी मानदंडों को कार्यान्वित करना चाहिए और इन उद्देश्यों के लिए आवश्यक उपाय किये जाने चाहिए | 

इन उपायों में  युद्ध के सभी हतियारो के खास तौर से सैनिक-विरोधी सुरंगों के,अंधादुंध उपयोग से बच्चों को बचाने का भी समावेश होना चाहिए | युद्ध से आतंकित बच्चों की युद्धोत्तर देख-भाल और पुनर्वास की आवश्यकता की ओर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए | यह सम्मलेन बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित समित का आह्वान  करता है कि वह सशस्त्र बालों में भर्ती की न्यूनतम उम्र को बढ़ने के प्रश्न का अध्ययन करें |  

भारत में अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार विधि का स्वतः क्रियान्वयन नहीं होता बल्कि अंतराष्ट्रीय विधि का स्थानीय विधि में देश की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरण और स्वीकारोक्ति  करने की आवश्यकता होती है | भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने अपने अनेक निर्णयों में अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार विधि के प्रावधनों को  इंगित किया है और उन्हें अपने निर्णयों का आधार बनाया है |

ये निर्णय सम्पूर्ण भारत के अवर न्यायालयों और उच्च न्यायालयों में नजीर के रूप में उपयोग किये जाते हैं | भारत के संविधान का अनुछेद २५३ भारतीय संसद को अंतराष्ट्रीय विधि के अनुक्रम में स्थानीय विधि बनाने की शक्ति प्रदान करता है | 

मानव अधिकार,मासूमियत अर्थात बालक और भारत का संविधान,का संगम बालकों के चहुमुखी विकास और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने की बुनियाद है | विएना घोषणा और कार्य योजना, १९९३ के अनुछेद ७९ में  निरक्षरता मिटाने और  शैक्षणिक पाठ्यक्रम में मानव अधिकारों को समाहित करने के लिए निम्नवत इंगित किया गया है ;

"७९. राज्यों को निरक्षरता मिटाने का प्रयत्न करना चाहिए और शिक्षा को मानव व्यक्तित्व के विकास तथा मानवाधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान की भावना को मजबूत करने की ओर अभिमुख करना चाहिए | विश्व मानवाधिकार सम्मेलन सभी राज्यों और संस्थाओं का आह्वान करता है कि वे विद्योपार्जन की औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार की संस्थाओं की पाठ्यचर्चाओ में मानवाधिकारों,मानवीयता सम्बन्धी क़ानून,लोकतंत्र और क़ानून के शासन का समावेश करें |" 

राज्य द्वारा संवैधानिक प्रावधानों और अंतराष्ट्रीय मानवाधिकारों का सम्मान बालकों के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है जिसके लिए  प्रबल राजनैतिक इच्छा शक्ति बहुत जरूरी है | 

बच्चों के मानव अधिकारों की सुरक्षा न केवल बच्चों के भविष्य को सशक्त व् उज्जवल बनाती हैं बल्कि भविष्य के लिए  एक शसक्त और मजबूत समाज की बुनियाद रखती है जो एक सशक्त और मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक है | यह सभी की जिम्मेदारी है की वे सभी संवैधानिक और विधिक पप्रावधानों का पालन करें | जिससे हर बालक को एक सुरक्षित और सम्बृद्ध भविष्य मिल सके | 

शोध सन्दर्भ 

१ .मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८

२.अनुच्छेद १४ ,अनुच्छेद १५ ,अनुच्छेद २१ ,२१ ए  अनुछेद २३,२४,२९ और ४५ ,भारत का संविधान ,1950,

३. बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित अभिसमय ,१९८९ 

४. विएना घोषणा और कार्य योजना, १९९३

आशा है कि मेरे  द्वारा  मानव अधिकार,बालक और भारत का संविधान (Human Rights, Children and Constitution of India in Hindi)  विषय पर दी हुई जानकारी आपको पसंद आई होगी | 






शनिवार, 25 मई 2024

Free Legal Aid and Human Rights in Hindi - निःशुल्क विधिक सेवाऐं और मानव अधिकार -संपूर्ण जानकारी

Free Legal Aid and Human Rights
























विधिक सहायता का सम्पूर्ण ढांचा मानव अधिकार,नैसर्गिक न्याय और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की बुनियाद परखड़ा है | कानूनी प्रक्रिया के चुंगल में फँसे प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए तथा कोई भी व्यक्ति अनसुना नहीं रहना चाहिए, इसी सिद्धांत का पोषण विधिक सहायता और निःशुल्क विधिक सहायता करते हैं | भारतीय संविधान के तहत सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करते हुए गरीबों और कमजोरों के लिए निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था की गयी है इसके साथ ही राज्य को उत्तरदायी बनाया गया है कि वह सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराएं | इसी अनुक्रम में विधिक सेवाएं प्रदान करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ पास किया गया | 

विश्वभर में व्यक्तियों और समूहों के मानव अधिकारों का संवर्धन एवम संरक्षण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक  ऐतिहासिक दस्तावेज तैयार कराया, जिसे मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के नाम से जाना जाता है तथा इसे १० दिसम्बर १९४८ को स्वीकृत और अंगीकृत किया गया | यह दस्तावेज उन मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं का समावेश करता है जो सभी व्यक्तियों और समूहों को बिना किसी जाती,मूलवंस , लिंग ,धर्म या किसी संस्कृति या अन्य किसी स्तिथि के प्राप्त होते हैं | 

यह मानव अधिकार दस्तावेज घोषणा करता है कि सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा और अधिकारों में सामान हैं | ये विश्वभर में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में उपयोग किये जाते है | उक्त सिद्धांत सभी के लिए न्याय,न्यायसंगत और समावेशी समाज की आधारशिला रखते है | यह सभी देशों और उनके यहां विधि के साशन के लिए आवश्यक हैं कि  वे अपने -अपने यहाँ मानव अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण को सुनिश्चित करें |जिसके लिए उनके द्वारा मानव अधिकार सिद्धांतों का सम्मान आवश्यक है | 

भारत में विधिक सहायता और निःशुल्क विधिक सहायता के प्रावधानों का किया जाना तथा उनका समुचित क्रियान्वयन अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों के सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण  कदम हैं | 

विधिक सहायताऔर निःशुल्क विधिक सहायता से तात्पर्य  ऐसी सहयता से है जिसकी  आवश्यकता वाद दाखिल करने वाले या  अभियुक्त  को न्यायलय के समक्ष अपना पक्ष रकने के लिए पड़ती है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते या किसी अन्य कारण से अपना पक्ष न्यायलय के समक्ष रखने में असमर्थ होता है, ऐसी स्तिथि में सरकार द्वारा उसे  विधि अनुसार विधिक सहायता या निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराये जाने का प्रावधान है|  गरीबी या अन्य किसी निर्योग्यता के कारण व्यक्ति की न्याय तक पहुंच न हो सके तो विधि के समक्ष समता और विधि का सामान संरक्षण का कोई महत्त्व नहीं है जो कि विधि के साशन के लिए आवश्यक है | 

लश्कर -ए -तैयबा के १० पाकिस्तानी आतंकियों ने जिसमे अजमल आमिर कसाब  भी था, समुंद्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर २६ नवंबर २००८ को मुंबई में कई जगह आतंकी हमलों को अंजाम दिया था | इन हमलों में कई विदेसी  नागरिकों सहित १५० से अधिक लोगों की जान गयी थी | कसाब को मुंबई की अदालत ने दोषी करार देते हुए  फाँसी की सजा सुनाई | 

यह मुकद्दमा सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा वहां भी सजा को बरक़रार रखा गया | भारतीय न्याय व्यवस्था में विधिक सहयता के प्रावधान के तहत उसे आतंकवादी होने के बाबजूद विधिक सहायता उपलब्ध कराई गयी | आतंकी कसाब को ट्रायल कोर्ट में उसका केस लड़ने के लिए एक स्वतंत्र  वकील उपलब्ध कराया गया था | निष्पक्ष सुनवाई के लिए यह व्यवस्था की गयी थी | 

सामान्य अर्थों में मानव अधिकार वे मूलभूत अधिकार है जो व्यक्तियों को स्वतः उनके मानव मात्र होने के नाते उन्हें प्राप्त होते हैं | सयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार सयुक्त राष्ट्र  के लोग  यह विस्वास करते है कि कुछ ऐसे मानव अधिकार हैं जो  कभी छीने नहीं जा सकते हैं | 

सयुंक्त राष्ट्र के अनुसार मानवाधिकार सभी मनुष्यों में निहित अधिकार हैं, चाहे उनकी जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता, भाषा, धर्म या कोई अन्य स्थिति कुछ भी हो। मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार और बहुत कुछ शामिल हैं। बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकारों का हकदार है। 

मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८ में मानव अधिकारों की एक विस्तृत शृंखला का व्यक्ति के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख  मिलता है लेकिन विशेष समूहों के सन्दर्भ में नहीं | समय की मांग के अनुरूप विविध समूहों के अधिकारों को भी सयुक्त राष्ट्र ने अपने एजेंडा में शामिल करते हुए महिलाओं,बच्चों,विकलांग व्यक्तियों, अल्पसंख्यकों, विभिन्न यौनिकता वाले व्यक्तियों और अन्य कमजोर समूहों के लिए विशिष्ट मानकों को शामिल कर धीरे -धीरे मानव अधिकार कानूनों का विस्तार किया है | कई समाजों में  लम्बे समय से  विभिन्न रूपों में  भेदभाव झेलना आम बात थी लेकिन अब उनके पास ऐसे अधिकार है जो उन्हें भेदभाव से बचाने में समर्थ हैं | 

विधिक सहायता पाने में आर्थिक अक्षमता या किसी अन्य निर्योग्यता के चलते न्याय तक पहुंच को सुगम बनाने में  संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विस्तारित मानव अधिकार अत्यधिक उपयोगी साबित हो रहे हैं | 

मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८ में विधिक सहायता की उपलब्धता  से सुसंगत मानव अधिकारों का विवरण दिया गया है जो निम्न प्रकार है;

१.घोषणा के अनुछेद ७ के अनुसार क़ानून की निगाह में सभी सामान हैं और सभी बिना भेदभाव के कानूनी सुरक्षा के अधिकारी है यदि इस घोषणा का अतिक्रमण करके कोई भी भेदभाव किया जाए,उस प्रकार के भेदभाव को किसी प्रकार से उकसाया जाए,तो उसके विरुद्ध सामान संरक्षण का अधिकार सभी को प्राप्त है| 

२.घोषणा के अनुछेद ८ में स्थापित किया गया है कि सभी को संविधान या क़ानून द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरुद्ध समुचित राष्ट्रीय अदालतों की कारगर सहायता पाने का हक है | 

३.इसी घोषणा का अनुछेद १० स्पष्ट करता है कि सभी को पूर्णतः और सामान रूप से हक़ है कि उनके अधिकारों और कर्तव्यों के निश्चय करने के मामले में और उनपर आरोपित फौजदारी में किसी मामले में उनकी सुनवाई न्यायोचित  और सार्वजानिक रूप से निरपेक्ष  एवम निष्पक्ष अदालत द्वारा की जाएगी | 

४.घोषणा के अनुछेद २८ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानव अधिकार को समाहित करते हुए इंगित किया है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतराष्ट्रीय व्यवस्था प्राप्ति का अधिकार है जसमे इस घोषणा में उल्लिखित अधिकारों और  स्वतंत्रताओं को पूर्णतः प्राप्त किया जा सकता सके |

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष २०१३ में  आपराधिक न्यायिक प्रणालियों में कानूनी सहायता तक पहुंच पर सयुक्त राष्ट्र सिद्धांत और दिशानिर्देश  जारी किये जिनका उपयोग सदस्य देश अपने यहाँ मार्गदर्शक के रूप में कर सकते हैं | जिन्हे राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार लागू किया जाना चाहिए |  

स्वत्रंत्रा प्राप्ति के बाद भारत विश्व में सबसे बड़े लोक तंत्र के रूप में स्थापित हुआ तथा देश में साशन व्यवस्था  का सञ्चालन करने के लिए लिखित संविधान स्वीकृत एवम अंगीकृत किया गया | स्वंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय समाज में  सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक विषमता के जड़ें बहुत गहरी थी | जिन्हे पाटने के लिए संविधान में मूल अधिकारों और  राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की व्यवस्था  की गयी | जिससे स्पष्ट है की भारतीय संविधान के तहत कल्याणकारी राज्य की अवरधारणा को मान्यता प्रदान की गयी,जो कि समाज में व्याप्त  विविध प्रकार की विषमताओं को समाप्त करने पर बल देता है | परिणाम स्वरुप संविधान में कमजोर और शोषित वर्गों के कल्याण के लिए प्रावधान किये गए | 

वर्तमान में भी अखबारों और न्यूज़ चैनल के माध्यम से  समाज में  कमजोर और शोषित वर्गों के विरुद्ध हिंसा,शोषण और अतियाचार की घटनाएं पढ़ने और देखने को मिलती हैं अर्थात आज भी समाज में अनेक लोग ऐसे हैं जो हिंसा,अत्याचार और शोषण की स्तिथि में अपनी ओर से वाद दायर करने या फौजदारी वाद में अपना बचाव करने में असमर्थ होते हैं जिससे न्याय तक उनकी पहुंच न होने से उन्हें न्याय से वंचित रहने को विवश होना पड़ता है |

उक्त स्तिथि में उनके मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के किये सामाजिक,आर्थिक और प्रशासनिक सहयोग की आवश्यकता होती है | इस आवश्यकता की पूर्ती हेतु अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों के तहत भारत में निर्मित और स्वीकृत विधि में प्रावधान किये गए है जिनका उपयोग करके सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर और असहाय  वर्ग सरकार की ओर  से विधिक सहायता प्राप्त कर सकते हैं | कुछ स्तिथियों में यह विधिक सहायता निःशुल्क भी उपलब्ध होती है | 

सामान्य अर्थ में विधिक सहायता का उद्देश्य न्याय तक सभी लोगों की पहुंच और जागरूकता से है | अन्य शब्दों में कहे तो विधिक सहायता का उद्देश्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति के मानव अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण हो सके और अन्याय ,हिंसा और शोषण से मुक्ति हो सके | विधिक सहायता राज्य द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए प्रदान की जाती है कि कोई व्यक्ति किसी अक्षमता  जैसे गरीबी ,अशिक्षा आदि  के कारण न्याय से वंचित न रहे |  इसके कारण गरीब ,कमजोर वर्ग की न्याय तक पहुंच आसान हो जाती है | विधिक सहायता कार्यक्रमों के माध्यम से गरीब,वंचित और शोषित वर्ग आसानी से अपने अधिकारों और कर्तव्यों को के बारे में जान पाते हैं और उनको प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं अर्थात विधिक सहायता का उद्देश्य समानता पर आधारित न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की रचना करना है जिसमे अन्याय से कम से कम लोग प्रभावित हों | 

भारतीय संविधान के मूल अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों में  क्रमशः अनुछेद १४ ,अनुछेद २२(१) और अनुछेद ३९क  में क्रमशः विधि के समक्ष समता, अपनी रूचि के विधि व्यवसायी  से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार तथा  समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रावधान दिए गए हैं |  

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में अनुछेद ३९क, समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रावधानों से सम्बंधित है | यह कहता है कि "राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि सामान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो,और वह विशिष्ट्तया,यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए,उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की वियास्था करेगा |" अर्थात सभी के लिए समान न्याय अवं निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था राज्य सरकार करेगी। 

चूकि नीति निर्देशक तत्व सरकार के लिए सुशासन और कल्याणकारी नीतियों के निर्माण में मूलभूत सिद्धांतों को आत्मसात करने हेतु दिशा निर्देशक के रूप में कार्य करते है | इस लिए एक प्रकार से ये प्रावधान सरकार पर एक प्रतिबद्धता अधिरोपित करते है | सामान अवसर के आधार पर यह सुनिश्चित होता है कि आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के आधार पर कोई भी नागरिक न्याय पाने के अवसरों से वंचित न हों |  

भारतीय संविधान का अनुछेद १४ प्रावधान करता है कि "भारत राज्य क्षेत्र में किसी वियक्ति की विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा | "इस अनुछेद की शब्दावली भारत के सभी नागरिकों और व्यक्तियों को  सामान अधिकार और अवसर प्रदान करती है तथा उनका  हर प्रकार के विभेद से संरक्षण करती है | 

भारतीय संविधान का अनुछेद २२(१) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रूचि के विधि व्यवसायी  से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार प्रदान करता है | 

अनुछेद २१ के अनुसार " किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं |" उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुछेद २१ की  व्यापक सन्दर्भों में व्याख्या की है | जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं | 

उच्चतम न्यायालय की विधि व्यवस्था  ऍम ऍम हासकाट  बनाम महाराष्ट्र राज्य ,ए आई आर ,१९७८ अस सी १५४८ में अनुछेद २१ की विस्तृत व्याख्या करते हुए स्थापित किया है कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति को उच्च न्यायालय में अपील दाखिल करने का मूल अधिकार है तथा उसे " निःशुल्क कानूनी सहायता " पाने का भी अधिकार है 

उच्चतम न्यायालय की विधि व्यवस्था  हुस्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य ए आई आर १९७९ अस सी १३६० में स्थापित किया है कि "शीघ्रतर परीक्षण और निःशुल्क  विधिक सहायता" के अधिकार अनुछेद २१ द्वारा प्रद्दत्त दैहिक स्वतंत्रता  के मूल अधिकार का एक आवश्यक तत्व है | 

विधि वियास्था सुखदास बनाम संघ राज्य क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश ,(१९८६)२ अस सी सी ४०१  में माननीय न्यायालय ने यह स्थापित किया कि " निःशुल्क कानूनी सहायता " प्रदान करने में बिफलता ,जबतक कि  अभियुक्त ने इंकार न कर दिया हो ,परीक्षण को अवैध बना देती है | अभियुक्त को इसके लिए अर्जी देने की जरूरत नहीं होती है | " निःशुल्क कानूनी सहायता " अभियुक्त  का एक मूल अधिकार है और अनुछेद २१ के अधीन युक्तियुक्त ,ऋजु और उचित प्रक्रिया का एक तत्व है | राज्य का यह कर्त्तव्य है कि  उसे बताये कि उसे " निःशुल्क कानूनी सहायता " का अधिकार प्राप्त है | |

समान अवसर के आधार पर समाज में कमजोर वर्गों को निशुल्क विधिक सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु भारतीय संसद द्वारा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ अधिनियमित किया गया | इस अधिनियम के तहत देशभर में विधिक सहायता कार्यक्रमों के सुचारू क्रियान्वयन  की निगरानी और मूल्यांकन किया जाता है | इसके साथ साथ विधिक सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए नीति गत  सिद्धांतों को सुनिश्चित करने के लिए इसका अधिनियमन किया गया है | 

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ के तहत राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण ,राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण और जिला स्तर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की स्थापना की गयी हैं | उक्त प्राधिकरणों में असह्याय, गरीब, कमजोर वर्गों के वादकारिओं और अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करने के लिए अधिवक्ताओं का पैनल गठित किया जाता है| पैनल में शामिल अधिवक्ताओं के द्वारा गरीब व् अन्य व्यक्तियों को दी जाने वाली विधिक सेवाओं के एवज में फीस का भुगतान सरकार द्वारा किया जाता है | इसके अतिरिक्त इसमें लोक अदालत के माध्यम से छोटे मामलों में त्वरित न्याय दिलाने  का प्रावधान किया गया है |  

इस पुनीत कार्य द्वारा सरकार न सिर्फ अंतराष्ट्रीय मानव अधिकारों का सम्मान करती है बल्कि भारतीय संविधान में  " निःशुल्क कानूनी सहायता " की अवधारणा को वास्तविकता में बदलती हुई दृश्टिगोचर होती है | समय- समय पर भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए निर्णयों में " निःशुल्क कानूनी सहायता " को संविधान में प्रद्दत मूल अधिकार का एक आवश्यक तत्व के रूप में वयाख्या की गयी है,के आधार पर सरकार ने उसका भी सम्मान करते हुए  इस क्षेत्र  में बेहतर सेवाओं के प्रति अपनी प्रतिबध्दता कायम रखी हैं |  

निःशुल्क विधिक सेवाओं  में निम्नलिखित  शामिल हैं :

(क) कोर्ट फीस ,प्रक्रिया फीस  और किसी विधिक कार्यवाही के सम्बन्ध में देय या किये गए देय या अन्य सभी प्रकारों का भुगतान ;

(ख) विधि कार्यवाहियों में वकीलों की सेवा प्रदान करना 

(ग) विधिक कार्यवाहियों में आदेश और अन्य दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां  प्राप्त करना और उनकी आपूर्ति करना | 

(घ) मुद्रण और विधिक कार्यवाही में दस्तावेजों के अनुवाद सहित अपील और पेपरवर्क की तैयारी | 

विधिक सेवा प्राधिकारण अधिनियम ,१९८७ की धरा १२ में विधिक सहायता हेतु पात्र  व्यक्तियों के लिए मानदंड निर्धारित किये गए है,जिनमे से कुछ  निम्न प्रकार हैं ;

"१२. प्रत्येक व्यक्ति जिसे कोई मामला दर्ज करना है या अपनी प्रतिरक्षा करनी हैं ,इस अधिनियम के तहत विधिक सेवाओं के लिए हकदार होगा यदि वह व्यक्ति

(क)अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है ;

(ख)संविधान के अनुछेद २३ में निर्दिष्ट मानव तस्करी और बेगार का शिकार है;

(ग)एक महिला या बच्चा है ;

(घ) मानसिक रूप से बीमार या अन्यथा विकलांग व्यक्ति है;

(ड़)अवांछित परिस्थितिओं में रहने वाला वियक्ति जैसे सामूहिक आपदा,जातीय हिंसा,जातिगत अत्याचार,बाढ़, सूखा ,भूकंप या औधोगिक आपदा का शिकार होना ;या 

(च) एक औधौगिक मजदूर है ;

(छ)हिरासत में है,जिसमे अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम ,१९५६ की धरा २ के खंड (जी) के अर्थ में अंदर सुरक्षात्मक घर में हिरासत भी शामिल है,आदि |  

विधिक सेवा प्राधिकरण विधिक सेवा की आवश्यकता वाले व्यक्तियों के आवेदन की  प्रथम दृष्टया जांच के उपरांत पात्र पाए जाने पर उसे सरकारी खर्च पर वकील मुहैया कराते हैं,आवश्यकता के अनुसार न्यायलय शुल्क का भुगतान करते हैं और मुकदद्मे से सम्बंधित अन्य आकस्मिक खर्चे  वहन करते हैं | जब व्यक्ति को विधिक सहायता प्रदान की जाती है तो उससे  विधिक सहायता के एवज में कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता है | 

उपरोक्त से स्पष्ट है कि वर्तमान में निःशुल्क विधिक सहायता न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुकी है जो कि  एक स्वतंत्र और मजबूत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है | देशभर में आज निःशुल्क विधिक सहायता भारतीय संविधान,विशेष विधायन और भारतीय सर्वोच्च न्यायलय द्वारा पारित की गयी विधि व्यवस्थायों द्वारा पोषित और फलीभूत हो रही है | सर्वोच्च न्यायलय द्वारा निःशुल्क विधिक सहायता को एक मूल अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान कर असंख्य गरीबों और निर्बल वर्ग के व्यक्तियो के मानव अधिकारों का संरक्षण और संवर्धन किया है | इसके अतिरिक्त अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणओं में भी विधिक सेवाओं को पर्याप्त स्थान दिया गया है | जिन्हे सदस्य देश अपने यहाँ के कानूनों में सिद्धांतों के रूप में उपयोग कर रहे है | स्पष्ट है कि निःशुल्क विधिक सहायता और मानव अधिकारों में गहरा सम्बन्ध है | मानव अधिकार एक दूसरे पैर निर्भर होते है | एक मानव अधिकार का उलंघन होने पर अन्य मानव अधिकारों के उलंघन का खतरा बना रहता है | निःशुल्क विधिक सहायता का उद्देश्य तभी पूरा हो सकेगा जब प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक आसान और सुलभ पहुंच हो सकेगी जिसके लिए सभी के द्वारा मानव अधिकारों का सम्मान  किया जाना आवश्यक शर्त है |  

सन्दर्भ  

१. मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८

२.अनुछेद १४ ,अनुछेद २२(१) और अनुछेद ३९ (अ)भारत का संविधान ,1950,

३. ऍम ऍम हासकाट  बनाम महाराष्ट्र राज्य ,ए आई आर ,१९७८ अस सी १५४८ 

४.हुस्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य ए आई आर १९७९ अस सी १३६०

५. सुखदास बनाम संघ राज्य क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश ,(१९८६)२ अस सी सी ४०१ 

६. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७

७. महासभा संकल्प 67/187: आपराधिक न्याय प्रणालियों में कानूनी सहायता तक पहुंच पर संयुक्त राष्ट्र सिद्धांत        और दिशानिर्देश (2013)

आशा है कि मेरे  द्वारा  निःशुल्क  विधिक सेवाएं  और मानव अधिकार (Free Legal Aid and Human  Rights in Hindi ) विषय पर दी हुई जानकारी आपको पसंद आई होगी |  

FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले सवाल)


प्रश्न :कानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए कहाँ संपर्क करना चाहिए ?

उत्तर : कानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए  विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यालय में संपर्क करना चाहिए| 

प्रश्न :निःशुल्क कानूनी सेवाएं कैसे मिलती हैं ?

उत्तर : निःशुल्क कानूनी सेवाएं लेने के लिए राष्ट्रीय सेवा प्राधिकरण,राज्य सेवा प्राधिकरण और जिला सेवा प्राधिकरण के कार्यालयों से संपर्क कर वहां से फॉर्म प्राप्त कर उसे उचित रूप में  भर कर जमा कर दे | प्राधिकरण द्वारा  उचित  पात्रता पाये जाने पर निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्राप्त हो जायेगी | 

प्रश्न :निःशुल्क कानूनी सेवाएं  प्राप्त करने के लिए कौन कौन से व्यक्ति पात्रता रखते हैं ?

उत्तर : निःशुल्क कानूनी सेवाएं  प्राप्त करने के लिए निम्नांकित व्यक्ति पात्रता रखते हैं :
(क)महिलाये और बच्चे | 
(ख) अनुसूचित  जाति और जनजाति के सदस्य | 
(ग) सामूहिक आपदा , हिंसा,बाढ़ ,सूखा और भूकंप ,औधोगिक आपदा के शिकार  व्यक्ति | 
(घ) दिव्यांगजन | 
(ड़) हिरासत में व्यक्ति
(च) जिन व्यक्तियों की वार्षिक आय १ लाख रूपये से अधिक नहीं हैं | उच्तम न्यायालय विधिक सेवा समिट में सीमा ५००००० रुपए हैं | 
(छ)मानव तस्करी के शिकार या भिखारी |  

  




गुरुवार, 16 मई 2024

विधि का उल्लंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकार: एक अवलोकन

Human Rights of Child in Conflict with Law













भारत में  पुलिस द्वारा अपनी चालानी रिपोर्ट में अक्सर विधि का उल्लंघन करने वाले बालकों की  अधिक उम्र दर्शाने के कारण उन्हें प्रौढ़ जेलों में बंद कर दिया जाता है जिसके कारण उन्हें अपने मानव अधिकारों से वंचित होना पड़ता है | जबकि बालकों के  लिए विशेष रूप से  बने किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ में बालकों के मानव अधिकारों के संवर्धन एवम संरक्षण के लिए कई विधिक सिद्धांतों की व्यवस्था की गयी है | लेकिन उन सिद्धांतों का किशोर न्याय बोर्ड ,बाल कल्याण समिति तथा अन्य अभिकरणों द्वारा समुचित रूप से अनुपालन  और अनुसरण नहीं हो रहा है | जिसके कारण आये दिन विधि का उलंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकारों का उल्लंघन आम बात हो गयी है | समाज और आपराधिक न्याय व्यवस्था के विभिन्न अंगों द्वारा उक्त सिद्धांतों का व्यवहार  में अनुसरण करके विधि का उलंघन करने वाले बालकों के जाने-अनजाने में होने वाले मानव अधिकार उल्लंघन को आसानी से रोका जा सकता है |

मुख्य शब्दमानव अधिकार , किशोर , विधि का उल्लंघन करने वाले बालक, भारतीय संविधान , निजता का अधिकार ,पोक्सो एक्ट २०१२ ,जे जे एक्ट २०१५ |  

आज के समाज में ,बालकों के मानव अधिकारों का उलंघन एक ज्वलंत  सामाजिक और मानवाधिकार  मुद्दा है | जिस पर हमें संजीदगी और गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है | किशोरों द्वारा किये गए अपराधों के सम्बन्ध में किशोरों के साथ प्रौढ़ अपराधियों  के जैसा व्यवहार अंतराष्ट्रीय कानूनों द्वारा प्रतिषिद्ध किया गया  है इस सन्दर्भ में भारत में पहला क़ानून १९८६ में आया, जिसे वर्ष २००० में संशोधित किया गया तथा उसके बाद किशोरों के बृहद हित को ध्यान रखते हुए एक बार फिर वर्ष २०१५ में वर्ष २००० वाले क़ानून को समाप्त कर नए क़ानून को लाया गया जो कि किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ कहलाया | इस अधिनियम के माध्यम से, बालकों के संरक्षण और मानव अधिकारों की रक्षा में समाज से लेकर आपराधिक न्याय वयवस्था तक  सभी स्तरों पर सहयोग की आवश्य्कता है |

उक्त अधिनियम का उद्देश्य है कि अधिनियम के अधीन भारतीय संविधान के अनुछेद १५ के खंड (), अनुच्छेद ३९ के खंड ( ) और खंड ( ),अनुच्छेद ४५ और अनुच्छेद ४७ के उपबंधों के अधीन यह सुनिश्चित करने के लिए कि बालकों की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जाए और उनके मूलभूत मानव अधिकारों की  पूर्णतया संरक्षण किया जाए |,शक्तियां प्रदान की गई है, और कर्तव्य अधिरोपित किये हैं |

यह अधिनियम  स्पष्ट करता है कि तत्समय किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट  किसी बात के होते हुए हुए भी ,इस अधिनियम के उपबंध के तहत देख रेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों से सम्बन्धित सभी मामलों तथा विधि का उलंघन करने वाले बालकों से सम्बंधित सभी मामलों पर लागू होंगे जिसके अंतर्गत

(1) विधि का उलंघन करने बालकों की गिरफ्तारी,निरोध,अभियोजन शास्ति और,पुनर्वास और समाज में पुनः मिलाना |

() देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों के पुनर्वास ,दत्तक ग्रहण ,समाज में पुनः मिलाने और वापसी की प्रक्रियाएं और विनिश्चिय अथवा आदेश भी शामिल हैं |

इस अधिनियम में  बाल अपचारी, जिसे विधि का उल्लंघन करने वाला बालक के रूप में परिभाषित किया गया है ,को उनके मानव अधिकारों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए कई मानक प्रावधान किये गए हैं | अधिनियम के अनुसार बालकों को दंड के प्रावधान  प्रौढ़ अपराधियों के मुकाबले अत्यधिक लचीले बनाये गए हैं | बालकों के अधिकार भी मानव अधिकार की श्रेणी में आते है | बाल अधिकारों पर कन्वेंशन १९८९ मानता  है कि किशोरों के भी मानव अधिकार हैं , और  १८ वर्ष से छोटी उम्र के व्यक्तियों को यह  सुनिश्चित करने के लिए विशेष  सुरक्षा की आवश्यकता है कि उनका पूर्ण विकास ,उनके अस्तित्व और उनके सर्वोत्तम हितों का सम्मान किया जाए |

मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा १९४८ में बिना किसी विभेद के सभी को मानव होने के नाते मानव अधिकार प्राप्त हैं | लेकिन उक्त घोषणा पत्र में किशोरों के विशेष सन्दर्भ में कोई प्रावधान उपलब्ध नहीं था | लेकिन समय के साथ साथ विधि का उलंघन करने वाले बालकों  और पीड़ित किशोरों  के मानव अधिकारों के संवर्धन अवं संरक्षण के लिए विशेष कानूनों की आवश्यकता महसूस की गयी जिसकी भरपाई के लिए  बच्चों के अधिकार पर कन्वेंशन १९९२ को स्वीकृत और अंगीकृत किया गयाभारत सरकार ने सयुक्त राष्ट्र की साधारण  सभा द्वारा अंगीकृत बालकों के अधिकारों से सम्बंधित अभिसमय को,जिसमे ऐसे मानक विहित किये गए हैं  जिसका बालक के सर्वोत्तम हित को सुनिश्चित करने के लिए  सभी राज्य पक्षकारों द्वारा पालन किया जाना है ,का दिनांक ११ दिसम्बर २०९२ को अंगीकरण किया गया |

यह लेख उन असहाय विधि का उलंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकारों की अवधारणा को समझने और उनके सुरक्षित भविष्य के लिए  सामजिक, विधिक और  मानव अधिकार सन्दर्भ में जागरूकता फैलाने का एक प्रयास है |

मानव अधिकार सामान्य तौर पर वे अधिकार है जो हर व्यक्ति को उसके मनुष्य होने नाते स्वतः प्राप्त होते है | ये अविभाज्य ,अन्तर्सम्बन्धित और अन्तर्निर्भर होते है | साधारण तौर पर मानव अधिकारों को आर्थिक,सामजिक,सांस्कृतिक,नागरिक और राजनैतिक मानव अधिकारों की श्रेणी में रखा गया हैइसके अतिरिक्त व्यक्तिगत और सामूहिक मानव अधिकार की श्रेणी में विभक्त किया गया है | बालकों के मानव अधिकार सामूहिक मानव अधिकारों की श्रेणी में आते हैं | सयुंक्त राष्ट्र  की परिभाषा के अनुसार मानव अधिकार जाति ,लिंग ,राष्ट्रीयता ,भाषा ,धर्म या किसी अन्य आधार पर भेदभाव किये बिना सभी को प्राप्त हैं |

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम,१९९३ की धरा के  अनुसार "मानव अधिकार " का तात्पर्य  संविधान के अंतर्गत गारंटीकृत  अथवा अंतर्राष्ट्रिय प्रसंविदाओं में सम्मिलित  तथा भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय जीवन,स्वंत्रता,समानता तथा व्यक्ति की गरिमा से सम्बंधित अधिकार है |

विधि का उल्लंघन करने वाले बालकों द्वारा किये गए अपराधों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है :

प्रथम  श्रेणी में "छोटे अपराधजिसके लिए भारतीय दंड सहिता  या तत्समय  प्रबृत अन्य विधि के अधीन अधिकतम दंड  मॉस के कारावास का है |

द्वितीय श्रेणी में "घोर अपराधजिसके लिए भारतीय दंड सहिता  या तत्समय  प्रबृत  अन्य विधि के अधीन -

()तीन वर्ष से अधिक और वर्ष से अनधिक की अवधि के न्यूनतम कारावास का उपबंध है |

() वर्ष से अधिक के अधिकतम कारावास का उपबंध है किन्तु कोई न्यूनतम कारावास या वर्ष से कम के न्यूनतम कारावास का उपबंध नहीं है |

तृतीय श्रेणी में "जघन्य अपराध" रखे गएँ हैं |जिसके लिए भारतीय दंड सहिता  या तत्समय प्रबृत  अन्य विधि के अधीन न्यूनतम कारावास वर्ष या उससे अधिक के कारावास का है |

 किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण)अधिनियम, २०१५ में विधि का उलंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकारों को प्रत्यछ रूप में उद्द्घृत नहीं किया गया है लेकिन उसके कई प्रावधान अप्रत्यछ रूप में  विधि का उलंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकारों की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं तथा उनके मानव अधिकारों का संवर्धन एवम संरक्षण को  बढ़ावा देते हैं |

बालकों के ये मानव अधिकार किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण)अधिनियम, २०१५ के प्रसाशन में अनुसरित किये जाने वाले साधारण सिद्धांतों के रूप में इंगित किये गए हैं | ये मूलभूत सिद्धांत केंद्रीय सरकारों ,बोर्ड ,समिति या अन्य अभिकरण द्वारा अधिनियम के उपबंधों को क्रियान्वयन करते समय मार्गदर्शन के रूप में कार्य करते है | ये मूलभूत सिद्धांत ही दरअसल विधि का उलंघन करने वाले बालकों के मानव अधिकार है | ये बालक के मानव अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण करते हैंये मूलभूत सिद्धांत निम्न प्रकार हैं :

निर्दोषिता की उपधारणा का अधिकार- किसी विधि का उलंघन करने वाले बालक के १८ वर्ष की आयु पूर्ण करने तक यह उपधारणा की जाएगी कि वह किसी असद्भावना पूर्वक या आपराधिक आशय का दोषी नहीं है |

गरिमा और योग्यता का अधिकार- सरकार ,किशोर न्याय बोर्डबाल कल्याण समिति या अन्य अभिकरण के द्वारा सभी बालकों के साथ गरिमा और अधिकारों के साथ वर्ताब किया जाना चाहिए

विधिक कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार- प्रत्येक विधि का उलंघन करने वाले बालक को सुने जाने का और उसके हितों को प्रभावित करने वाली सभी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है |

बालक के सर्वोत्तम  हित का सिद्धांत- बालक के सम्बन्ध में सभी विनिश्चय /आदेश मुख्यतया इस आधार पर किये जाएंगे कि वे बालक के सर्वोत्तम हित में हों | बालक के इस मानव अधिकार का का दारोमदार बालकों के सम्बन्ध में क़ानून का क्रियान्वयन करने वाली संस्थाओं पर है जिसमे सरकार,किशोर न्याय बोर्ड, बाल कल्याण समिति  तथा अन्य अभिकरण आते हैं |

सुरक्षा का सिद्धांत-विधि का उलंघन करने वाले बालक की सुरक्षा के हित में सभी उपाय किये जाने चाहिए| जो बालक को  उपहानी ,दुर्व्यवहार या बुरे  बर्ताव से बचाते हों |

गैर कलंकीय शब्दार्थों का सिद्धांत- विधि का उलंघन करने वाले किसी बालक के सम्बन्ध में किये गए आदेश या विनिश्चय में प्रतिकूल या अभियोगात्मक शब्दों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए |  

अधिकारों का अधित्यजन किये जाने का सिद्धांत- विधि के अनुसार विधि का उलंघन करने वाले बालक के किसी अधिकार का किसी भी प्रकार से अधित्यजन (त्याग) अनुज्ञेय या विधिमान्य नहीं है | चाहे उस अधिकार को त्यागने की इच्छा उस बालक द्वारा या बालक की और से कार्य करने वाले व्यक्ति  या किसी बोर्ड या समित द्वारा  क्यों की गयी हो | किसी मूल अधिकार का प्रयोग किया जाना अधित्यजन की कोटि में नहीं आता है |

समानता और विभेद किये जाने का सिद्धांत- विधि का उलंघन करने वाले किसी बालक के विरुद्ध किसी भी आधार पर ,जिसमे लिंग ,जाति ,नस्ल ,जन्म स्थान ,निसक्तता भी आती है ,किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा  और पहुंच ,अवसर  और बर्ताव में समानता हर बालक को दी जानी चाहिए |

एकान्तता और गोपनीयता के अधिकार का सिद्धांत- विधि का उलंघन करने वाले प्रत्येक बालक को सभी साधनो द्वारा और सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था में अपनी एकान्तता और गोपनीयता का संरक्षण करने का अधिकार प्राप्त है |

अंतिम उपाय के रूप में बालकों को संरक्षण गृह में रखने का सिद्धांत-विधि का उलंघन करने वाले किसी बालक को उसकी युक्तियुक्त जांच के बाद ही अंतिम अवलम्बन के उपाय के रूप में संथागत देखरेख में रखा जाना चाहिए |

नए सिरे से शुरूआत करने का सिद्धांत- किशोर न्याय पद्धति के अधीन किसी बालक के अपराध से सम्बंधित पिछले सभी अभिलेखों को विशेष परिस्थितियों के सिवाय समाप्त कर दिया जाना चाहिए अन्यथा की स्थिती में नहीं |

बालक और प्रौढ़ अभियुक्त की कार्यवाही का एक साथ होने का सिद्धांत- किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ की धारा २३() के अनुसार दंड प्रक्रिया सहिंता ,१९७३ की धरा २२३ में या तत्समय प्रबृत किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी विधि का उलंघन करने वाले  किसी  बालक के साथ किसी ऐसे व्याक्ति  की जो बालक नहीं है, सयुंक्त कार्यवाही नहीं की जा सकती है

विधि का उलंघन करने वाले बालकों के विरुद्ध पारित किया जा सकने वाला आदेश- किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ की धारा २१ के तहत विधि का उलंघन करने वाले  किसी बालक को इस अधिनियम  के  उपबंधों अधीन या भातीय दंड संहिता १८६० या तत्समय प्रबृत किसी अन्य विधि के उपबंधों के अधीन ऐसे किसी अपराध के लिए छोड़े  जाने की संभावना के बिना मृत्यु या आजीवन कारावास का दंडादेश नहीं दिया जाएगा |

किसी अपराध के निष्कर्षों के आधार पर निर्हर्ताओ से मुक्ति का अधिकार- किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ की धारा २४() के अनुसार तत्समय प्रबृत किसी अन्य विधि में किसी अन्य बात के होते हुए भी ,कोई बालक ,जिसने कोई अपराध किया है तथा जिसके बारे में इस अधिनियम के अधीन कार्यवाही  की जा चुकी है | किसी ऐसी निर्हता (अयोग्यता )से ,यदि कोई हो ,ग्रस्त नहीं माना जाएगा ,जो ऐसी विधि के अधीन किसी अपराध की दोषसिद्धि से जुडी हो ;

 इसी अधिनियम की धरा २४() के अनुसार किशोर न्याय बोर्ड ,पुलिस को या बालक न्यायालय या अपनी स्वयं की रजिस्ट्री को यह निदेश देते हुए आदेश देगा कि ऐसी दोषसिद्धि के सुसंगत अभिलेख ,यथास्तिथि ,अपील की अवधि या ऐसी युक्तियुक्त अवधि,जो विहित की जाए ,समाप्त होने के पश्चात नष्ट कर दिए जायेगे | परुन्त जघन्य अपराध की दिशा में यह स्तिथि लागू नहीं होगी |

निजता का अधिकार- किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ की धारा ७४() के  अंतर्गत बालक की  पहचान के प्रकटन का प्रतिषेद किया गया है जिसके अनुसार किसी जांच या अन्वेषण या  न्यायिक प्रक्रिया के बारे में किसी समाचार पत्र ,पत्रिका या समाचार पृष्ठ या दृश्य -श्रव्य माध्यम या संचार के किसी अन्य रूप में किसी रिपोर्ट में ऐसे नाम ,पते या विद्यालय या किसी अन्य विशिष्ट को प्रकट नहीं किया जाएगा , जिससे विधि का उलंघन करने वाला बालक या देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालक या किसी पीड़ित बालक या किसी अपराध के साक्षी की ,जो तत्समय प्रबृत किसी विधि के अधीन ऐसे मामले में अंतर्वलित है ,पहचान हो सकती है और ही ऐसे किसी बालक का चित्र प्रकाशित किया जा सकता है |

परन्तु , यथास्तिथि ,जांच करने वाला किशोर न्याय बोर्ड ,ऐसा प्रकटन ,लेखबद्ध किये जाने वाले ऐसे कारणों से तब अनुज्ञात कर सकेगा,जब उसकी राय में ऐसा प्रकटन बालक के सर्वोत्तम  हित में हो

अपनी पसंद के अधिवक्ता की सेवायें लेने का अधिकार- दंड प्रक्रिया सहिता, १९७३ की धारा ३०१ के परन्तुक के अधीन रहते हुए बालक का कुटुंब या संरक्षक इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के लिए अपनी पसंद के अधिवक्ता की सेवाएं लेने के लिए हक़दार हैं

परन्तु,यदि बालक का कुटुंब या संरक्षक अधिवक्ता का खर्च वहन करने में असमर्थ है तो विधिक सेवा प्राधिकरण उसको अधिवक्ता उपलब्ध कराएगा |

 बालक  को आयु निर्धारण का अधिकार- अधिकाँश आपराधिक घटनाओं में दृष्टिगोचर होता है कि पुलिस चालानी में पुलिस द्वारा अपने अनुमान के अनुसार विधि का उलंघन करने वाले बालक की उम्र लिख देती है | जिसके कारण गिरफ्तारी के बाद किशोर को प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए बनी कारागार में भेज दिया जाता है | विधि का उलंघन करने वाले बालक को यह अधिकार है कि वह स्वयं को किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष उपस्थित हो कर या पुलिस द्वारा बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करने पर अपनी आयु का निर्धारण करा सकता है | बोर्ड को बालक की सही आयु के सम्बन्ध में कोई शंका है तो वह बालक की  ओर से साक्ष्य प्राप्त करके आयु निर्धारण करता है |

किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५ की धारा ९४(३)के अनुसार किशोर न्याय बोर्ड द्वारा उसके समक्ष इस प्रकार लाये गए व्यक्ति की अभिलिखित आयु ,इस अधिनियम के प्रयोजन के लिए उस व्यक्ति की सही आयु समझी जाती है |

पोक्सो अधिनियम,२०१२ के तहत विशेष न्यायलय के समक्ष बालक को आयु निर्धारण का अधिकार- लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम ,२०१२ की धरा ३४ (१)के अनुसार जहाँ अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी बालक द्वारा किया जाता है वहां ऐसे बालक पर किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५  के उपबंधों के अधीन कार्यवाही की जाती है |

वही धरा ३४(२) स्पष्ट करती करती है कि यदि विशेष नन्यायालय के समक्ष  किसी कार्यवाही में आयु के सम्बन्ध में कोई प्रश्न उठता है कि कोई  व्याक्ति बालक है या नहीं तो ऐसे प्रश्न का अवधारण विशेष न्यायलय द्वारा ऐसे व्याक्ति की आयु के सम्बन्ध में स्वयं का समाधान करने के पश्चात किया जाता है |

अपील और पुनरीक्षण का अधिकार- विधि का उलंघन करने वाले बालक को विधि अनुसार अपील और पुनरीक्षण का अधिकार प्राप्त है | इसके अतरिक्त उसे अधिनियम के प्रसाशन में अनुसरित किये जाने वाले साधारण सिद्धांतों में से एक नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अंतर्गत पुनर्विलोकन का अधिकार भी प्राप्त है | यह बालक का अत्यधिक अहम् अधिकार है जो कि किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५  के अंतर्गत विधि का उलंघन करने वाले बालक को प्रदत्त  किया गया है |

 आज के बालक नए भारत का मुस्तकबिल  बनेंगे | सयुंक्त राष्ट्र आपराधिक न्याय वयवस्था में  बालकों को प्रौढ़ अपराधियों के रूप में  देखने को प्रतिषेदित करता है | इसी लिए सयुंक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने बालकों के मानव अधिकारों  के संवर्धन एवम संरक्षण के लिए  अपने यहाँ  विशेष  कानूनों का निर्माण किया है और अंतराष्ट्रीय कानून के दायरे में रहते हुए उनका क्रियान्वयन कर रहे है |

नए भारत की संकल्पना को सिद्धि में बदलने के लिए , बालक, जो कि देश का मुस्तकबिल है ,को सम्पूर्ण समाज और आपराधिक न्याय वयवस्था के सभी अवयवों तक शामिल हैं, द्वारा सहेजने की आवश्यकता है | बालको की वकालत करने वाले  सभी लोग जिसमे अधिवक्ता से लेकर मनोवैज्ञानिक ,गैर सरकारी संघटन ,सामाजिक  और मानव अधिकार कार्यकर्ता तथा आपराधिक न्याय वयवस्था के सभी अवयवों  द्वारा  बालको के मानव अधिकार सम्बन्धी सिद्धांतों को व्यवहार में उतार  कर ही देश के भविष्य को एक नई  दिशा प्रदान की जा सकती है | उक्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी महती आवश्यकता है 

 सन्दर्भ

.मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा १९४८ 

. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ 

बाल अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन १९८९

बच्चों के अधिकार पर कन्वेंशन १९९२

.मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम ,१९९३

 ६.लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम ,२०१२

 ७.किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षक)अधिनियम ,२०१५



 

 

 

 

 

 

 

 

                                                                                                                                  

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