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Image by Mike Lukin from Pixabay edited by Canva |
भारत विश्व भर में विविधताओं के देश के रूप में जाना जाता है | यहाँ अनेक त्यौहार मनाये जाते हैं और उनके पीछे एक परम्परा होती है जो समाज की सोच और संस्कृति के दर्शन कराती है |
करवा चौथ भी एक त्यौहार है जिसे मुख्य रूप से उत्तर भारत की विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पतियों की दीर्घायु की कामना करते हुए व्रत रख कर मनाया जाता है |
यह त्यौहार महिलाओं के प्रेम, समर्पण और त्याग का प्रतीक माना जाता है | लेकिन, क्या यह परंपरा महिलाओं के मानव अधिकारों, लैंगिक समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों और अधिकारों के अनुकूल है?
इस लेख में हम करवा चौथ के पावन त्यौहार का मानव अधिकारों के सन्दर्भ में विश्लेषण करेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि यह परम्परा आज की मानव अधिकार केंद्रित सोच के अनुकूल है |
करवा चौथ: एक सांस्कृतिक परंपरा
करवा चौथ एक सांस्कृतिक परम्परा का हिस्सा है | यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है | इस दिन विवाहित स्त्रियाँ सुबह से लेकर और चंद्रमा दर्शन तक व्रत रखती हैं।
इस त्यौहार से कई लोक कथाये जुडी हुई हैं | जिसमे एक स्त्री के पति की मृत्यु होने की बाद उसकी जान बचाने के लिए अथक प्रयास करती है और अंत में व्रत और कठोर आस्था के बूते पर वह अपने पति को जीवित करने में सफल हो जाती है |
इस प्रकार करवा चौथ का त्यौहार विशेषकर सिर्फ महिलाओं के लिए, बल्कि पुरुषों के लिए भी न सिर्फ धार्मिक महत्व रखता है बल्कि सामाजिक और भावनात्मक महत्व भी रखता है |
करवा चौथ पर ह्रदय विदारक घटना
अभी हाल ही में करवा चौथ के दिन उत्तर प्रदेश के उरई जिले में एक दुर्घटना हुई | एक व्यक्ति करवा चौथ से पहले जूए में रूपये हार गया और उसने पत्नी के गहने गिरवी रख दिए |
पत्नी से वादा किया था की करवा चौथ पर गहने छुड़ा लाएगा | लेकिन यह हो न सका | इससे छुब्ध होकर उसने आत्महत्या कर ली | पत्नी ने व्रत रखा था तथा उसके ३ बच्चे हैं |
मानव अधिकार और करवा चौथ
1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
हर व्यक्ति को यह स्वंत्रता और अधिकार है कि वह अपने अनुसार धार्मिक, सामाजिक मामलों में निजी पसंद के अनुसार निर्णय ले सके | जब कोई महिला अपनी इच्छा के अनुसार व्रत रखती है तो यह उसकी स्वयं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है |
लेकिन यदि यदि ये परंपरा वह किसी सामाजिक या पारिवारिक अपेक्षा या दबाब में निभाने को विवश होती है तो यह उसके मानव अधिकार का उल्लंघन का रूप धारण कर लेता है |
हर इंसान को यह अधिकार है कि वह अपनी धार्मिक, सामाजिक और निजी पसंद के अनुसार निर्णय ले सके।
जब कोई महिला अपनी इच्छा से करवा चौथ का व्रत रखती है, तो यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।
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Image by Rudy and Peter Skitterians from Pixabay |
एक दौर था जब भारत में पीरियड्स से गुजर रही महिलाओं को घर की किचिन (रसोई ) में जाने से रोक दिया जाता था |
लेकिन आज उसी उन्नत समाज ने उस घिसी- पिटी परम्परा को दरकिनार करते हुए स्त्रियों के लिए घर में ओप्पन किचिन (खुली रसोई जिसमे प्रवेश करने के लिए कोई दरवाजा ही नहीं होता है ) की व्यवस्था को तहे दिल से अपना लिया है | यह कैसी परम्परा थी जिसमे रसोई की मालकिन को ही रसोई में घुसने का अधिकार नहीं होता था |
2. करवा चौथ की परंपरा क्यों है लैंगिक समानता का मुद्दा?
करवा चौथ की परंपरा का केंद्र बिंदु मुख्य रूप से महिलाये हैं। करवा चौथ की परंपरा में पुरुषों से अपनी पत्नी की दीर्घायु के लिए व्रत रखने की किसी भी पारिवारिक या सामाजिक अपेक्षा की उम्मीद नहीं की जाती है | बस यही है जो समाज में लैंगिक असमानता को दर्शाता है।
हालांकि हाल के कुछ वर्षों में पुरुषों ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए महिलाओं के साथ व्रत रखने में कंधे से कंधा मिलाया है, लेकिन यह अभी तक अपवाद स्वरूप ही है |
जब तक इस परम्परा का स्वरुप एकतरफा बना रहेगा तब तक बराबरी के मूल सिद्धांत और लैंगिक समानता का प्रश्न उठता रहेगा |
3. महिला का स्वास्थ्य और शारीरिक अधिकार
करवा चौथ में महिलाएं सुबह से लेकर चाँद दिखाई देने तक निर्जला व्रत रखती हैं, चाहे वे किसी भी स्थति में हों, जैसे कि वे बीमार हों, गर्भवती हों या अन्य स्वास्थ्य कारणों से व्रत रखने में सक्षम न हों, फिर भी पारिवारिक या सामाजिक दबाब के वसीभूत होकर उन्हें व्रत रखना पड़ता है | यह स्थति उनके शरीर पर उनका अधिकार (Right to Bodily Autonomy) के उल्लंघन में मानी जाती है |
मीडिया और बाजारवाद की भूमिका
आधुनिक समाज पर मीडिया और बाजारवाद का गहरा असर हुया है | मीडिया और कॉर्पोरेट घरानो ने महिलाओं के इस पवित्र परम्परा आधारित पर्व को आधुनिक "फैशन इवेंट" बना दिया है |
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Image by Suket Dedhia from Pixabay |
महिलाओं द्वारा इस पर्व पर मॅहगी साज-सज्जा, मेहंदी, महंगे कपड़े, गहने और उपहार खरीदे जाते हैं| मीडिया और कॉर्पोरेट के प्रभाव ने इस मॅहगी खरीददारी को इस त्यौहार का एक अनिवार्य हिस्सा बना हैं।
त्यौहार के आने से पहले ही वॉलीवुड फिल्मो के सितारे और विज्ञापन करवा चौथ के पर्व को एक महिला के सम्बन्ध में आदर्श पत्नी के रूप में प्रस्तुत करते हैं | जो अपने पति के लिए व्रत रखती है | भूखी रहती है | त्याग करती है | प्रेम का अथाह प्रदर्शन करती है |
इस सारी मीडिया और कॉर्पोरेट गठजोड़ की कवायत से महिलाओं और पुरुषों दोनों पर एक सामाजिक दबाब निर्मित होता है |
विशेष रूप से महिलाओं पर अलग तरह का दबाब पड़ता है जिमे वह सोचने लगती है कि वह त्यौहार सम्बन्धी परम्परागत गतिविधयों का अनुसरण नहीं करेगी तो वह अपने रिश्ते को पूर्ण सम्मान नहीं दे पाएगी |
यही दबाब उसको जीने नहीं देता है और परिणाम स्वरुप घर में नई - नई समस्याएं जन्म लेने लगती हैं तथा संबंधों में दरार आ जाती है | अक्सर इनके नतीजे अख़बारों की सुर्खियाँ बन जाते हैं |
सामाजिक तथा पारिवारिक दबाव और मानसिक स्वास्थ्य
आजकल अधिकांश माँ- बाप अपने बच्चों को अंगरेजी स्कूलों में पढ़ाना पसंद करते हैं | जिसके चलते उनके मन वैज्ञानिक प्रबृति की ओर झुकने लगते हैं और बच्चे खुले स्वभाव के भी हो जाते हैं |
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Image by Anil sharma from Pixabay |
कई महिलायों को पति, सास -ससुर का डर करवा चौथ का व्रत रखने के लिए विवश कर सकता है |
इससे महिलाओं में उनके भविष्य के प्रति डर, मानसिक तनाव, आत्मबल का अभाव, अपराध बोध जैसे भाव पैदा हो सकते हैं |
यह अपराध बोध के लक्षण धीरे - धीरे पारिवारिक कलह और विवादों में बदल जाते है | जो उनके शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं और उनके मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए उत्तरदाई हो सकते हैं |
महिलाओं पर किसी तरह की परम्परा की अनिवार्यता उनके मानव अधिकारों पर गंभीर आघात होता है | आजकल किसी भी धार्मिक परम्परा को महिलाओं के अधिकारों का उलंघन करके आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है |
उन्हें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और श्रद्धा के साथ ही आगे बढ़ाया जा सकता है, किसी तरह के डर और दबाब के साथ नहीं |
सकारात्मक बदलाव के लिए बदलती युवाओं की सोच
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Image by Virat Maurya from Pixabay |
समाज सदैव परिवर्तनशील रहता है | समय के साथ- साथ आज भी समाज में बदलाव दिखाई दे रहा है | नई पीढ़ी की महिलाएँ और पुरुष अब इन परंपराओं को नए दृष्टिकोण से देखने लगे हैं।
नए युवा समाज में नए उदाहरण पेश कर रहे हैं | कई पति- पत्नी दोनो मिलकर अब उपवास रखते हैं | परंपरागत लैंगिक असमानता ध्वस्त हो रही है | क्या पत्नी को ही पति की दीर्घायु की आवश्यकता है ?
क्या पति को पत्नी की दीर्घ आयु की कोई आवश्यकता नहीं है ? वास्तव में दोनों को दोनों की बराबर आवश्यकता है तथा दोनों एक दुसरे के पूरक हैं |
आज का युवा पितृ सत्तात्मक सोच का त्याग करने को धीरे -धीरे ही सही लेकिन तैयार जरूर हो रहा है| इस बात की तस्दीक सोशल मीडिया पर समय समय पर युवाओं द्वारा चलाये गए "Mutual Karwa Chauth" और "Choice-based fasting" जैसे ट्रेंड्स को देख कर की जा सकती है |
परम्परा बनाम अधिकार: संतुलन की आवश्यकता
परम्पराएं सदैव से धर्म और संस्कृति का अभिन्न अंग रही हैं | वर्तमान में धार्मिक स्वतंत्रता को भी एक मौलिक मानव अधिकार का दर्जा दिया हुया है।
लेकिन परम्परा के नाम पर जब किसी की स्वतंत्रता, समानता या स्वास्थ्य के अधिकारों का उल्लंघन हो, तब प्रश्न उठना लाजमी हो जाता है |
करवा चौथ से मुँह मोड़ने की बजाय महिलाओं को व्रत रखने या न रखने की स्वतंत्रता दी जाए | पुरुष भी बराबर की भागीदारी निभाए |
शारीरिक स्वास्थय और मानसिक स्वास्थ्य के मानव अधिकारों को व्रत की परम्परा पर प्राथमिकता दी जाए |
निष्कर्ष
करवा चौथ भारतीय त्यौहारों में से एक अनोखा त्यौहार है जिसमे महिलाओं की सक्रीय भागीदारी होती है | यह महिला केंद्रित अद्भुत परम्परा है, जो महिलाओ के प्रेम, समर्पण और त्याग की भावनाओं को दर्शाती है |
लेकिन आजकल के समय में इसे आंखमूंद कर अनुसरण करने की बजाय सोच समझ कर अनुसरण करना जरूरी है | इसके पीछे कुछ वास्तविकताएं हैं जिन्हे झुठलाना या नजर अंदाज करना उनके लिए हानिकारक हो सकता है |
मानव अधिकारों, जिसमें महिला अधिकार और लैंगिक समानताएँ भी शामिल हैं, के नजरिये से यह अत्यधिक तार्किक और आवश्यक है |
इस त्यौहार को स्वेच्छा, समझदारी, आपसी सूज-बूझ, और पारस्परिक सम्मान के साथ मनाया जाए -ना कि सामाजिक दबाब, दिखावे और परम्परा के बोझ के तहत | जबकि हर घर की आर्थिक स्थति अलग-अलग होती है |
यदि कोई स्त्री अपनी इच्छा से पूरी आजादी से स्वयं की प्रेरणा से करवा चौथ का व्रत रखती है तो यह उसका अधिकार है |
लेकिन उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध यह सब करने के लिए कहा जाता है तो यह यह परम्परा नहीं बल्कि एक सामाजिक दबाब है | हर सामाजिक और पारिवारिक दबाब महिला मानवाधिकारों के विरुद्ध है |
यदि महिला गर्भवती है या किसी गंभीर रोग से ग्रस्त है या वह स्वयं व्रत रखने की इच्छुक नहीं है, ऐसी स्थति में उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्रत रखने के लिए विवश करना उसके अधिकारों के खिलाफ है | यह उसके स्वास्थ्य के मानव अधिकार का उल्लंघन होगा |
करवा चौथ के पावन पर्व को परम्परा और महिला मानवाधिकार के बीच संतुलन बनाते हुए एक समावेशी और लैंगिक समानता के रूप में अपनाना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता है | जिससे परम्परा और महिला अधिकार दोनों साथ साथ चल सकेंगे |
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ ):-
प्रश्न : करवा चौथ का पर्व क्यों मनाया जाता है?
उत्तर: करवा चौथ मुख्य रूप से विवाहित स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है | इस पर्व पर स्त्रियाँ पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और अपने पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं |
प्रश्न : क्या करवा चौथ महिला अधिकारों का उल्लंघन करता है?
उत्तर: नहीं | यदि महिला स्वेच्छा से व्रत रखती है तो यह उसका अधिकार है | लेकिन किसी महिला को करवा चौथ का व्रत सामाजिक दबाब, पारिवारिक मजबूरी या डर के कारण रखना पड़ता है| तो यह निश्चित तौर पर उसके मानव अधिकारों का उल्लंघन माना जा सकता है, जिसमे व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी शामिल है |
प्रश्न : क्या पुरुष भी करवा चौथ का व्रत रखते हैं?
उत्तर: हाँ | हाल के वर्षों में अनेक पुरुष भी करवा चौथ का व्रत रखने लगे हैं ताकि अपनी पत्नी के प्रति सम्मान और समानता प्रदर्शित कर सके |
यधपि अभी भी यह सामान्य अभ्यास नहीं है | लेकिन यह लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक पहल है।
प्रश्न : करवा चौथ का व्रत न रखना क्या गलत माना जाता है?
उत्तर: कुछ पुरातन सोच रखने वाले परिवारों में करवा चौथ का व्रत न रखने वाली महिलाओं को बुराई का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन आधुनिक परिवारों में व्रत रखना या न रखना नितांत व्यक्तिगत विषय है और इसके लिए किसी महिला को तंग तथा परेशान नहीं किया जाना चाहिए |
प्रश्न : क्या करवा चौथ की परंपरा और आधुनिकता में संतुलन संभव है?
उत्तर: क्यों नहीं संभव है, हाँ संभव है | यदि करवा चौथ को पति-पत्नी दोनों बिना किसी लैंगिक भेदभाव के अपनाएँ, सिर्फ महिला के ऊपर न थोपा जाए तो निश्चित रूप से परम्परा और स्वंत्रता के बीच बेहतर संतुलन की गुंजाइश है |
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