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गर्भपात समाज में सदैव से एक विवादास्पद विषय रहा है |यह विषय विश्व की करीब आधीआबादी के मानवाधिकारों से सरोकार रखता है | विश्व भर में महिला अधिकारों के प्रति बढ़ती चेतना और आंदोलनो के परिणाम स्वरुप महिला प्रजनन अधिकारों और शारीरिक स्वायत्ता पर बहुत जोर दिया गया | उचित स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण महिलाओं को अपना गर्भपात झोलाछाप चिकित्सकों और अकुशल दाईयों से करना पड़ता था फोटो जिसके कारण गर्भपात के दौरान या बाद में कई मामलों में महिलाओं का स्वास्थ्य गंभीर रूप से ख़राब हो जाता था या उनकी मृत्यु हो जाती थी | यह समस्या सम्पूर्ण समाज के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी थी |
इस समस्या के निदान हेतु विश्व भर के देशों में अलग अलग कानूनौ का निर्माण हुया | इन कानूनौ के तहत अनावश्यक या ऐच्छिक गर्भपात पर रोक लगा दी गयी तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को गर्भपात की अनुमति प्रदान करने के प्रावधान किये गए |
पितृसत्तात्मक समाज के चलते एक दौर ऐसा भी रहा है जिसमे महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन के रूप में समझा जाता रहा है | लेकिन सामाजिक बदलाव के कारण आधी आवादी में अपने अधिकारों को लेकर स्थानीय स्तर से लेकर अन्तराष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थाओं के समक्ष अपने मानव अधिकारों को रखने को लेकर जागरूकता आयी है | परिणाम स्वरूप महिलाओं ने अपने घर से लेकर समाज,सरकार और न्यायालय तक संघर्ष के जरिए अपने हकूक की बातों को पहुंचाया है |
समय समय पर महिलाओं के समक्ष नयी नयी चुनौतियों ने अपने पैर पसारे,लेकिन उनका समाधान भी सामने आया | इसी क्रम में महिलाओं के समक्ष गर्भपात की एक जटिल समस्या भी आयी जिसमे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, कानूनी और मानवाधिकार सन्दर्भों का समावेश होने के कारण इसने बहुआयामी स्वरुप ले लिया | लेकिन महिलाओं की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ने न सिर्फ अंतराष्ट्रीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन अधिकारों को मान्यता दिलाई है |
प्रजनन अधिकार एक व्यापक शब्दावली है जिसके अधीन "गर्भधारण का अधिकार" के साथ-साथ "गर्भ का समापन का अधिकार " भी आता है | इसमें महिला की शारीरिक स्वायत्तता,उसकी गोपनीयता और गरिमा का अधिकार भी आता है | महिलाएं अपने शरीर का उपयोग कैसे करें यह उनकी शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार में आता है तथा इस पर निर्णय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उनको ही है |
विवाह का प्राथमिक उद्देश्य प्रजनन कर संतानोत्पत्ति करना तथा वंश को आगे बढ़ाना है लेकिन समय के साथ साथ भारत में दहेज़ प्रथा तथा बाल विवाह जैसी विकृतियों ने भी जन्म ले लिया | समाज में दहेज़ प्रथा का सबसे भीभत्स असर कन्या भ्रूण ह्त्या के रूप में दृष्टि गोचर हुआ | भ्रूण हत्या रोकने के लिए यद्यपि भारतीय दंड संहिता की धरा ३१२ से ३१८ तक प्रावधान किये गए |
विशेष रूप से समाज में महिला और पुरुष का लैंगिक अनुपात बनाये रखने के लिए कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाया जाना आवश्यक था इसलिए भारत की संसद द्वारा गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, १९९४ पारित किया गया | जिसके तहत गर्भाधारण से पहले या बाद में भ्रूण के लिंग चयन करना, जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के उद्देश्य के लिए लिंग का परीक्षण करना, उसमे सहयोग प्रदान करना,और लिंग चयन के सम्बन्ध में विज्ञापन जारी करने को कानूनी अपराध बना दिया गया |
कुछ विशेष परिस्थितियों में अनचाहे गर्भ धारण से छुटकारा पाने के लिए कोई प्रावधान नहीं था इसलिए चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया | जिसके अनुसार विशेषज्ञ चिकित्सक द्वारा अधिकृत चिकित्सा केंद्र में गर्भवती महिला की पूर्व अनुमति से या नाबालिग या विकृत चित्त होने की स्तिथि में उसके माता-पिता या संरक्षक की पूर्व अनुमति से गर्भ का समापन कराया जा सकता है | उक्त अधिनियम में गर्भपात के स्थान पर गर्भ का समापन शब्द का उपयोग किया गया है | गर्भ के समापन से तात्पर्य है कि चिकित्सकीय या शल्य चिकित्सकीय पद्धतियों का उपयोग करते हुए किसी गर्भावस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया से है |
अधिनियम में बताया गया कि पंजीकृत चिकित्सक द्वारा गर्भ का समापन निम्नांकित परिथितियों में किया जा सकता है :(१) भ्रूण को बनाये रखने में माता की जान को ख़तरा हो |(२) गर्भधारण बलात्कार या कौटुंबिक व्यभिचार का परिणाम हो |(३) यह स्पष्ट हो गया हो कि बच्चे के गंभीर रूप से दिव्यांग पैदा होने की प्रबल संभावना हो |(४) गर्भधारण परिवार नियोजन के साधान की असफलता का परिणाम हो |(५) गर्भावस्था के दौरान महिला की वैवाहिक स्थिति बदल गई हो (जैसे कि विधवा हो गई हो या तलाक हो गया हो) और दिव्यांग महिलायों की स्तिथि में ।
भारत में गर्भपात सम्बंधित क़ानून बनने के बाबजूद आज भी यह एक पूर्ण अधिकार के रूप में नहीं है | चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ में किये गए परिवर्तन से पूर्व १६ हफ्ते से लेकर २० हफ्ते तक पंजीकृत चिकित्सक के अनुमोदन पर अधिकृत चिकित्सा केंद्र पर गर्भ समापन की अनुमति थी
विधि द्वारा स्थापित समय सीमा के भीतर गर्भवती स्त्री द्वारा गर्भ का समापन न कराये जाने की स्थति में उसके पास कोई विकल्प नहीं होता सिर्फ और सिर्फ न्यायालय के समक्ष जाकर गर्भ के समापन की अनुमति लेने के सिवाय | यही ही नहीं महिला को न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन की अनुमति के लिए जाने के बाद न्यायालय के समक्ष अपनी विशेष परिस्थितयों को सिद्ध करना पड़ता है तब कही उसे गर्भ समापन की अनुमति मिलती है |
यदि महिला न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन के लिए आवश्यक कानूनी बाध्यतायें या विशेष परिस्थितियों को सिद्ध करने में असफल रहती है तो विधि द्वारा निर्धारित गर्भ समापन की मियाद निकलने के बाद न्यायालय गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर सकता है | यह स्थति किसी भी महिला के लिए अनचाहे गर्भधारण की अवस्था में अत्यधिक असहज वातावरण पैदा करने वाली होती हैं | यही नहीं कई मामलों में न्यायालय से उपचार प्राप्त करने के लिए पहुंचने के बाद आदेश होने में महीनो का समय यू ही बर्बाद हो जाता है | हर संसाधन विहीन महिला उपचार हेतु उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय नहीं पहुंच सकती है | यह स्थति अनचाहे गर्भधारण से व्यथित महिलाओं के लिए उचित चिकित्सकीय सहायता तक पहुंच के उसके मानव अधिकार से वंचित करती है |
सितम्बर २०२१ में,चिकित्सकीय गर्भ समापन (संशोधन) अधिनियम ,२०२१ लाया गया जिसके द्वारा गर्भ के समापन के लिए निर्धारित समय सीमा २० हफ्ते से बढ़ाकर २४ हफ्ते कर दी गयी | उक्त संसोधन द्वारा भी गर्भवती महिलाओं को गर्भ के समापन को अधिकार के रूप में नहीं प्रदान किया गया | लेकिन समय सीमा को बढ़ाकर सरकार ने गर्भपात के नियमो को लचीला कर महिलाओं को बड़ी रहत पहुचायी | गर्भ के समापन की पुरानी समय सीमा से बाहर अनेक मामले न्यायालयों के समक्ष पहुंच रहे थे इसलिए महिलाओं को गर्भ के समापन के लिए बढ़ाई गई अवधि तक सुरक्षित चिकित्सा सहायता पहुंचाने के लिए उक्त संसोधन लाया गया |
प्रजनन अधिकारों से सरोकार रखने वाली सर्वोच्च न्यायालय की विधि वयवस्था एक्स बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी में २२ सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की मानीय न्यायालय द्वारा अनुमति दी गयी | इस विधि व्यवस्था में न्यायालय ने स्थापित किया गया कि केवल विवाहित स्तिथि के आधार पर किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त अधिकारों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता है तथा किसी प्रकार का विभेद संवैधानिक नहीं है |
इस विधि व्यवस्था में यह भी स्थापित किया गया कि गर्भावस्था को पूर्ण करने या समाप्त करने का निर्णय महिला की शारीरिक स्वतंत्रता के अधिकार और जीवन में अपना रास्ता चुनने की उसकी क्षमता पर पूरी तरह आधारित है | माननीय न्यायालय ने यह भी माना कि अनचाही गर्भावस्था से महिलाओं के जीवन पर गंभीर और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जैसे कि उसकी शिक्षा, रोजगार और मानसिक स्वास्थ्य को बाधित करना |
सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय ने गर्भ का समापन करने को विभिन्न कारणों से विवश महिलाओं के पक्ष में मानवाधिकार केंद्रित एक सकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया था अर्थात उनके प्रजनन मानवाधिकारों को व्यापक रूप प्रदान करने की दिशा में एक सकारात्म न्यायिक निर्णय था |
विधि व्यवस्था शुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशाशन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया है कि किसी भी महिला का प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद २१ का एक अहम् पहलू है | इसी प्रकार न्यायमूर्ति केएस पुट्टस्वामी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य नामक निर्णय में महिला के प्रजनन करने या प्रजनन न करने को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार और निजता का अधिकार के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी |
सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था एक्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में ,२७ वर्षीय २ बच्चों की एक विवाहित महिला ने अवांछित गर्भधारण होने के बाद प्रारम्भ में स्वास्थ्य केंद्रों पर गर्भ के समापन कराने का प्रयास किया लेकिन उचित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध न होने पर उसका तत्काल समापन कराने के लिए आवश्यक स्वास्थय सेवा तक पहुंच की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का रूख करने के लिए विवश होना पड़ा |
याचिकाकर्ती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत विपक्षिओं को उनकी वर्तमान गर्भावस्था से चिकित्सकीय गर्भपात के लिए दिशा निर्देश जारी करने के निर्देश दिए जाने की याचना की गयी | उसने याचिका में बताया कि २४ हफ्ते तक उसे अपनी गर्भावस्था का पता नहीं लग सका, क्योंकि उसे लेक्टेशनल एमेनोरिया की बीमारी थी जिसके कारण दूध पिलाने वाली महिला को महामारी (पीरियड्स) नहीं होते हैं | महिला ने बताया कि दूसरे बच्चे के जन्म के बाद पहली बार प्रसूति रोग विशेषज्ञ (गयनोकोलॉजिस्ट) के पास गयी क्योंकि उसे उलटी,कमजोरी,सुस्ती और पेट में परेशानी महसूस कर रही थी | उसका उल्ट्रासाउंड हुआ जिसके बाद उसे पता चला कि वह गर्भवती है | उस वक्त गर्भावस्था अनुमानतः २४ हफ्ते की थी |
याचिकाकर्ती ने कथन किया की वह और उसके पति ने अस्पतालों में चिकित्सकीय गर्भ का समापन कराने का प्रयास किया लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी एक्ट, १९७१ सपठित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी रूल्स २००३ (२०२१ में यथा संसोधित) के कारण असफल रही | इस लिए वह रिट के अधिकार क्षेत्र के तहत सर्वोच्च न्यायालय पहुंची और उसने निम्न आधारों पर अपने गर्भ समापन की अनुमति की मांगी | (क)वह प्रसवावस्था के बाद होने वाले डिप्रेशन से पीड़ित है और उसकी मानसिक स्थति अनुमति नहीं देती है कि अन्य बच्चे को बड़ा कर सके |(ख)उसका पति उसके परिवार में एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति है और उसके पास देखभाल करने के लिए पहले से ही दो बच्चे हैं और परिवार के अन्य सदस्य भी हैं जो उन पर निर्भर हैं |
याचिकाकर्ती को उसी दिन आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस ,नई दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के समक्ष उपस्थित होने के आदेश पारित किये गए | जिसके बाद अल्ट्रासोनोग्राफी की रिपोर्ट के आधार पर माननीय न्यायालय द्वारा ९ अक्टूबर २०२३ को माना कि गर्भावस्था के जारी रखने से याचिकाकर्ती की मानसिक स्तिथि को गंभीर रूप से छति पहुंचेगी और इस आधार पर उसे चिकित्सकीय गर्भपात की अनुमति प्रदान कर दी गयी |
लेकिन उसके बाद हुए घटनाक्रम में दरअसल दिनांक १० अक्टूबर, २०२३ को आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस,नई दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के एक सदस्य द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया गया कि गर्भ के जीवित रहने की प्रबल संभावनाएं है तथा सर्वोच्च न्यायालय से दिशा निर्देश प्रदान करने की गुजारिश की कि क्या भ्रूण की ह्रदय गति रोकी जानी चाहिए |यदि भ्रूण की ह्रदय गति नहीं रोकी जाती है तो बच्चे को गहन चिकित्सा के अधीन रखना पडेगा और इस बात की अधिक संभावना है कि बच्चे को तत्काल या दीर्घकालीन शारीरिक और मानसिक विकलांगता हो जाए | सदस्य चिकित्सक ने न्यायालय से दिशा निर्देश की मांग की कि क्या भ्रूणह्त्या की जानी चाहिए, उन्होंने कहा कि हम आभारी होंगे यदि माननीय न्यायालय प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए दिशा निर्देश जारी करे |
इसी के बाद न्यायालय ने अपना पूर्व में दिया गया आदेश वापस ले लिया और इसके बाद न्यायालय में हुयी बहस ने नया मोड ले लिया | न्यायालय के समक्ष रखे जा रहे तर्कों में भ्रूण की स्तिथि और अजन्मे बच्चे के अधिकारों के बारे में न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया | परिणाम स्वरुप अंतिम निर्णय के तौर पर न्यायालय ने याचिकाकर्ती की प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार के मुकाबले अजन्मे बच्चे के अधिकारों को ज्यादा वरीयता दी,जिसके कारण न्यायालय ने गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर दिया |
उक्त निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि प्रजनन स्वायत्तता के पूर्ण उपयोग के लिए गर्भवती महिला को अपनी परिस्थितिजन्य खतरों और गर्भपात की अपनी पूर्ण आवश्यकता को साबित करना होगा | इससे स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व में दिए गए निर्णयों में प्रजनन अधिकारों के बारे में अंतिम निर्णयकर्ता के रूप में गर्भवती महिला को मान्यता दी गयी थी लेकिन उक्त निर्णय से प्रतीत होता है कि महिला को प्राप्त गर्भ के समापन का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है बल्कि तार्किक प्रतिबंधों की भेट चढ़ गया है|
उपरोक्त अधिनियम प्रजनन स्वायत्तता व् महिला केंद्रित होने के बाबजूद सेवा प्रदाता केंद्रित हो गया है अर्थात अधिनियम में वर्णित विशेष परिस्थितियों और गर्भ के समापन हेतु अनुमन्य समय-सीमा के बाहर अवांछित या अनचाहे गर्भ के समापन के लिए गर्भवती महिला को चिकित्सकों और न्यायालयों पर ही निर्भर रहना होगा | जिससे स्पष्ट है कि महिलाओं को प्राप्त गर्भपात का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है तथा यह अधिकार तार्किक प्रतिबंधों द्वारा बाधित या सीमित अधिकार है |
सयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की वर्ष २०२२ में दी गयी एक विधि व्यवस्था डॉब्स बनाम जैक्सन महिला स्वास्थ्य संगठन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया कि अमेरिका का संविधान गर्भपात का अधिकार प्रदान नहीं करता है | इस निर्णय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने पुरानी विधि व्यवस्थायों रो बनाम वाडे ,१९७३ तथा प्लांड पररेंटहुड बनाम कासे, १९९२ को रद्द कर दिया |
उपरोक्त के अवलोकन से यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण न होगा कि विश्व के सर्वाधिक विकसित माने जाने वाले देश सयुक्त राज्य अमेरिका में अब गर्भपात का अधिकार पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है | यद्धपि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का गर्भपात के अधिकार को समाप्त करने का निर्णय यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका का गर्भपात सम्बंधित मानव अधिकार प्रावधानों की संयक्त राष्ट्र संघ के सदस्य के रूप में अंतराष्ट्रीय समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता के विपरीत है |
उक्त से स्पष्ट है कि भारत में ही नहीं अमेरिका जैसे विकसित देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद गर्भवती महिलाओं के लिए अधिकार के रूप में गर्भपात की उचित चिकित्स्कीय सुविधाओं तक पहुंच अत्यधिक दुरूह कार्य हो गया है | वहीं फ्रांस विश्व का पहला देश बन गया है जिसने वर्ष २०२४ में महिलाओं के पक्ष में गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक अधिकार के रूप में घोषित किया है |
यदि ऐतिहासिक पटल पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि हिन्दू अवधारणा के अनुसार गर्भपात या भ्रूण ह्त्या एक पाप था | विधिक दृष्टांतों से भी पता चलता है कि अजन्मे शिशु को भी जीवित व्यक्ति की भाँति माना जाता है | ब्रॉनबेस्ट बनाम कोट्ज़ नामक विधि व्यव्स्था में अजन्मे बच्चे को मानव के समान स्वीकार किया गया | जन्म लेने के अधिकार को देखें तो स्पष्ट होता है कि गर्भपात का अधिकार कोई पूर्ण अधिकार नहीं है |
जन्म लेने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ में जीवन का अधिकार से पूर्ण रूप से संरक्षित है | यदि एक गर्भवती महिला को भ्रूण समापन का पूर्ण अधिकार दिया जाता है तो यह भ्रूण ह्त्या का एक नया अधिकार उत्त्पन्न करेगा | एक स्वस्थ और जीवित रहने की प्रबल छमता रखने वाले भ्रूण या अजन्मे शिशु की हत्या विश्व के किसी भी विधि में अनुमन्य नहीं है |
जन्म से पहले और जन्म के बाद शिशुओं का संरक्षण राज्य के दायित्वाधीन है | राज्य किसी भी महिला या बालिका को यह अधिकार नहीं दे सकता कि वह कोख में पल रहे अजन्मे बच्चे की हत्या करे या करवाए | इसी लिए गर्भपात के अधिकार को भारतीय दंड संहिता और चिकित्सकीय प्रक्रिया तथा गर्भ समापन अधिनियम ,१९७१ द्वारा सीमित किया गया है | परिणामस्वरूप भ्रूण में पल रहे बच्चे को जीवित पैदा होने का विधिक संरक्षण राज्य द्वारा प्राप्त होता है |
गर्भवती बालिकाओं और महिलाओं की गर्भपात के अधिकार के रूप में चिकित्सकीय सुविधाओं तक की पहुंच अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार के मूल में स्थापित है | गर्भपात तक पहुंच एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार है जो मानव अधिकारों की व्यापक शृंखला के रूप में जीवन,व्यक्ति की सुरक्षा,गोपनीयता,गैर भेदभाव के मानव अधिकारों केसाथ-साथ क्रूर,अमानवीय, या अपमानजनक व्यवहार से मुक्ति की गारंटी भी प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण है |व्यक्ति के एक मानव अधिकार के उल्लंघन की स्तिथि में उसके अन्य कई मानव अधिकारों पर भी नकारात्मक असर पड़ता है |
संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकार कमेटी ने गर्भपात के अपराधीकरण के सम्बन्ध में अपनी चिंता जाहिर की है तथा सदस्य राज्यों से असुरक्षित गर्भपात रोकने के लिए सुरक्षित गर्भपात के साधनों तक अधिक से अधिक पहुंच बढ़ाने का अनुरोध किया है | उपरोक्त से स्पष्ट है कि सुरक्षित और आवश्यक गर्भसमापन के लिए मानव अधिकार केंद्रित तथा संतुलित विधि और नीतियाँ ही सर्वाधिक हितकारी उपाय है जिससे गर्भपात के अधिकार और भ्रूण के अधिकार में संतुलन कायम हो सके |
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