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भारत में जब बलात्कार, कौटुम्बिक व्यभिचार, दत्तक ग्रहण, पारिवारिक विवाद, मानव तस्करी, मानव अंग तस्करी, गुमशुदा बच्चों या आपदा पीड़ितों की पहचान, जैसे संवेदनशील मानवाधिकार मुद्दे समाज में उठते है |
और ये मुद्दे जब अदालत तक पहुँचते हैं— तब कई बार सच्चाई का खुलासा करने के लिए कोई प्रत्यक्षदर्शी साक्षी न्यायालय के समक्ष उपलब्ध नहीं होता है | तथा इन मुद्दों के सम्बन्ध में कोई दस्तावेजी साक्ष्य भी न्यायालय के समक्ष नहीं होते हैं |ऐसी स्तिथि में सच्चाई जानने का एकमात्र रास्ता होता है न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले DNA जांच के लिए आदेश |
आजकल यह पूर्ण रूप से स्थापित हो गया है कि डीएनए तकनीक एक मानवाधिकार उपकरण बन चुकी है — जो निर्दोष को बाइज्जत दोषमुक्त घोषित कराती है तथा दोषियों को सजा दिलाती है |
यह वैज्ञानिक तकनीकी गुमशुदा बच्चों को उनके परिवारों से मिलवाती है, आपदा में मारे गए लोगों की पहचान करती है | यह सटीक पितृत्व तथा मातृत्व भी तय करती है।
DNA क्या है ?
DNA अर्थात डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड कोशिका (CELL) में पाया जाता है | यह निर्देशों का एक समूह है। ये निर्देश जीव की वृद्धि और विकास के लिए उत्तरदाई होते हैं | हर व्यक्ति का DNA अद्वितीय होता है |
विभिन्न DNA में भिन्नता का उपयोग व्यक्तियों की पहचान करने में किया जाता है | आज DNA तकनीक किसी भी व्यक्ति की पहचान सटीकता से स्थापित करने के लिए पूर्ण रूप से विश्वसनीय मानी जाती है | न्यायालयों ने भी इस बात पर अपनी मुहर लगा दी है |
पारिवारिक विवाद, विवाहेतर संबंध, दत्तक ग्रहण या कौटुम्बिक व्यभिचार (Insest) में DNA का महत्त्व
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"कोई भी व्यक्ति यदि खुद को पिता मानने से इनकार करता है, तो अदालत डीएनए परीक्षण की अनुमति दे सकती है, यदि इससे न्याय में सहायता मिले।" इस प्रकरण में पिता ने बच्चे की पैतृकता पर संदेह जताया था और डीएनए परीक्षण की माँग की। इस प्रकरण में विचारण न्यायालय ने डीएनए परीक्षण की अनुमति दे दी थी |
जब मामला माननीय सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों, खासकर गौतम कुंडू के फैसले पर ध्यान दिया गया और यह माना गया कि "एक वास्तविक DNA परीक्षण का परिणाम भी साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 की निर्णायकता से बचने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है|"
इस पारिवारिक विवाद को यदि मानव
अधिकार दृष्टिकोण से
देखा जाए तो
यह यह मामला "बच्चे की पहचान
जानने के अधिकार"
से जुड़ा है।
ये महत्वपूर्ण
मानव अधिकार है
|लेकिन मौलिक विधि से बाध्य है |
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माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकरण में निर्णय देते हुए स्थापित किया कि "यदि किसी की प्रतिष्ठा दांव पर हो, तो डीएनए टेस्ट की अनुमति दी जा सकती है।"
इस निर्णय को
मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य
में देखा जाए
तो यह नारी
गरिमा और सच्चाई
के खुलासे के
बीच एक संतुलन
स्थापित करता
है |
कौटुम्बिक व्यभिचार के मामलों में कोई प्रत्यदर्शी साक्षी न होने के कारण अभियुक्त को सजा दिलाने में DNA परीक्षण की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है | कौटुम्बिक व्यभिचार(Incest) से तात्पर्य होता है करीबी खून के रिश्तों के बीच यौन सम्बन्धो का स्थापित होना है | यह एक जघन्य और अनैतिक अपराध की श्रेणी में आता है |
बेटी के साथ कौटुम्बिक व्यभिचार और ह्त्या के एक मामले में उत्तर प्रदेश के आगरा में विशेष पॉक्सो अदालत के न्यायाधीश ने अभियुक्त /पिता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है |
निजता के अधिकार
के विरुद्ध
DNA की बाध्यता
का निषेध
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"बिना किसी ठोस आधार के किसी को ज़बरदस्ती डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।" यह स्थापित किया गया है माननीय सुप्रीम कोर्ट की विधि व्यवस्था Goutam Kundu v. State of West Bengal, (1993) 3 SCC 418 में |
इस विधि व्यवस्था में मुद्दा उठा कि क्या अदालत किसी पति को जबरन डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य कर सकती है? मानवाधिकार के द्रष्टिकोंड से यह फैसला निजता के अधिकार (Right to Privacy) और स्वतंत्रता (Liberty) की रक्षा करता है।
किसी भी
व्यक्ति के
लिए निजता का
अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता महत्वपूर्ण
मानव अधिकारों की
श्रेणी में आते
हैं |
निजता का अधिकार
बनाम सामाजिक
न्याय
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Canwa Edited Image by Tyli Jura from Pixabay |
माननीय सुप्रीम कोर्ट की विधि व्यवस्था Sharda v. Dharmpal, (2003) 4 SCC 493 में महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया कि क्या कोई कोर्ट मेडिकल जांच का आदेश कर सकती है ? जिसमे DNA जांच भी शामिल है |
इस सम्बन्ध में कोर्ट ने स्थापित किया कि, "कि किसी व्यक्ति को डीएनए परीक्षण कराने का निर्देश देने में जीवन या निजता के अधिकार का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।"
यदि इस
निर्णय को मानवाधिकार
सन्दर्भ में
देखा जाए तो
यह निजता के
अधिकार और सामाजिक
न्याय के संतुलन
को दर्शाता है
| सामाजिक न्याय
का क्षेत्र अत्यधिक
विस्तृत है
| मानव अधिकार और
सामाजिक न्याय
एक दूसरे के
पूरक हैं |
बाल तस्करी, गुमशुदा बच्चों और आपदाओं में पीड़ितों की पहचान
बाल तस्करी, गुमसुदगी और आपदाओं में मृतकों की पहचान में भी DNA परीक्षण का उपयोग महत्वपूर्ण साबित हुया है |
अनेक बार तस्करी के दौरान बचाये गए बच्चों या गुमसुदगी के कई वर्ष बाद बरामद बच्चों के माँ बाप के सम्बन्ध में पुख्ता जानकारी नहीं होती है | ऐसी स्तिथि में DNA परीक्षण द्वारा ही उन बच्चों को उनके माता -पिता से मिलाना संभव हो पाता है| अभी हालिया घटना 2025 की ,जिसमे प्रयागराज से सीमांचल एक्सप्रेस से 18 बच्चों को तस्करी से बचाया गया।
इस प्रकरण को यदि मानव अधिकार के रूप में देखा जाए तो बच्चों को पारिवारिक जीवन पाने के अधिकार की पूर्ती होती है |
इस अधिकार की पुष्टि किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 से भी होती है और यह अधिकार न सिर्फ गुमसुदा और परित्यक्त बच्चों को मिला हुया है बल्कि विधि का उल्लंघन करने वाले अभिकथित बालकों को भी मिला हुया है | बालक अधिकार के रूप में यह एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार है |
कुछ दशक पहले आपदाओं में मृतकों की पहचान एक गंभीर समस्या थी | 12 जून 2025 को अहमदाबाद से लंदन जा रहा एयर इंडिया का एक विमान सरदार वल्लभभाई पटेल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ने के बाद दुर्घटनाग्रस्त हो गया था |
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Source: Social Media |
इस दुर्घटना में 241 यात्रियों की मृत्यु हो गई थी तथा एक यात्री ब्रिटिश नागरिक विश्वास कुमार रमेश (40) चमत्कारिक रूप से बच गया था |
इस दुर्घटना में यात्रियों के शव इस कदर जल गए थे कि उनकी पहचान किसी भी सूरत में संभव नहीं थी | लेकिन DNA परीक्षण से उन सभी की पहचान संभव हो सकी | जिससे मृतकों के वास्तविक तथा विधिक उत्तराधिकारियों को न्याय के रूप में मुआवजा मिल सका |
मानवाधिकार दृष्टिकोण: क्यों है यह तकनीक जरूरी?
आपराधिक तथा नागरिक न्याय व्यवस्था में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ DNA के भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है | यह न्याय के सन्दर्भ में निर्दोषों को दोषी ठहराए जाने से बचाने में मदद करती है |
यह पुनर्वास के क्षेत्र बहुत मददगार तकनीकी है | यह तकनीकी पिछड़े बच्चों को उनके परिवारों से मिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |
यह तकनीकी व्यक्ति की सही पहचान सुनिश्चित कर उसके अस्तित्व के अधिकार को स्थापित करती है | नारायण दत्त तिवारी बनाम रोहित शेखर, (2012) 12 एससीसी 554 में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित किया गया कि पितृत्व स्थापित कराने का अधिकार निजता के अधिकार पर भारी है |
रोहित शेखर जिसने अपने पिता के साथ DNA के आधार पर सुप्रीम कोर्ट तक केस लड़ा |6 वर्ष की कानूनी लड़ाई के बाद नारायण दत्त तिवारी से पाया था बेटे होने का हक |
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श्रोत :दैनिक जागरण आगरा ,25 अगस्त 2025 |
DNA से जुडी एक और मार्मिक कहानी पाठकों के लिए प्रस्तुत है | २८ नवम्बर की शर्द रात में फरुखाबाद की एक किन्नर अंजलि अपने समूह के साथ नेग माँग कर लौट रही थी | तभी सड़क किनारे झाड़ियों में एक मासूम की रोने की आवाज आई |
उसने झांक कर देखा तो एक नवजात बच्चा मिला | जिसे लेकर अंजलि अपने गुरु के पास पहुंची | गुरु ने कहा हमलोगों में बच्चों को पालने का रिवाज नहीं है |
अंजलि ने उस नवजात बच्ची को उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा जिले में रहने वाली एक महिला को दे दिया | महिला के पहले से ही चार बच्चे थे | लेकिन परिवार की सहमति मिलने के बाद उसने उसे पाला तथा अच्छे स्कूल में पढ़ाया |
बच्ची की उम्र करीब 8 वर्ष की होने पर किन्नर अंजलि का प्यार एक बार फिर जाग गया और वह उसे कुछ समय के लिए अपने यहाँ ले गयी | बाद में उसने उसे वापस करने से इंकार कर दिया | बच्ची की पालनहार माँ ने बच्ची को वापस पाने के लिए पुलिस में शिकायत की |
परिणाम स्वरुप मामला बाल कल्याण समिति आगरा के समक्ष पहुंचा | वहां से बच्ची को बालगृह भेज दिया गया | बच्ची को वापस पाने के लिए उसकी माँ यशोदा (बदला हुया नाम ) की मदद के लिए आगरा निवासी नरेश पारस नामक सोशल वर्कर सामने आये |
इसके बाद प्रकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंच गया | इसी बीच एक दम्पति ने बच्ची उनकी होने का दावा किया | न्यायालय ने उन्हें एक पक्ष बनाया और उनका DNA परीक्षण कराने के आदेश दिए |
न्यायालय में DNA परीक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद पता चला कि बच्ची पर अपना दावा करने वाले दम्पति का DNA बच्ची के DNA से मैच ही नहीं कर रहा है |
न्यायालय ने दम्पति का दावा खारिज कर बच्ची को पालनहार माता के पक्ष में मुक्त करने का आदेश दिया | उक्त कहानी से स्पष्ट है कि DNA परीक्षण के कारण ही बच्ची गलत हातों में जाने से बच गई |सम्पूर्ण कहानी के लिए देखें नरेश पारस का ब्लॉग THE JOURNEY OF NARESH PARAS .
भारत में DNA का कानूनी ढाँचा
भारत में DNA परीक्षण के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अधीन रहते हुए जांच के आदेश दिए जा सकते है | लेकिन इसके सन्दर्भ में प्राथमिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना आवश्यक है अन्यथा की स्तिथि में DNA की निर्णायक भूमिका भी व्यर्थ है |
विशेष मामलो में CrPC (Section 53 & 164A) के तहत डीएनए सैंपल की अनुमति दी जा सकती है |नए कानूनो में धाराएं बदल गई हैं |
भारत में DNA तकनीकी के लिए नियामक ढांचा उपलब्ध कराने के लिए लोकसभा में DNA तकनीकी (उपयोग और अनुप्रयोग ) नियामक विधेयक, 2019 पेश किया जा चुका है | जिसे बाद में वापस ले लिया गया |
DNA की कानूनी स्वीकार्यता और सटीकता
भारत के न्यायालयों में डीएनए परीक्षण परिणामो को उच्च विश्वसनीयता प्राप्त है, बशर्ते कि परीक्षण सरकार द्वारा सत्यापित प्रयोगशालाओं में हुआ हो |
DNA सेम्पल को जांच के लिए भेजे जाने के बाद परीक्षण परिणामो की रिपोर्ट तक अर्थात चैन ऑफ़ कस्टडी में कोई खामी न हो इसके अलावा DNA नमूने की जांच के लिए न्यायालय की अनुमति ली गई हो |
भारत के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स ने कई मामलो में DNA परीक्षण रिपोर्ट को निर्णायक साक्ष्य के रूप में मान्यता दी है- विशेष रूप से पारिवारिक और नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में |
आगे की राह: क्या ज़रूरत है?
एक अच्छे समाज में सामाजिक न्याय और मानव अधिकार स्थापित करने के लिए DNA परीक्षण की सुविधा को आम आदमी तक पहुँचाना होगा |
इस क्षेत्र में कुशल मानव संसाधन बढ़ाना होगा | DNA परीक्षण से सम्बंधित पाठ्यक्रमों में विस्तार करना होगा | डीएनए परीक्षण रिपोर्ट न्यायालयों में तयशुदा समय से पहुचे इसकी पुख्ता व्यवस्था करनी होगी |
DNA से सम्बंधित नीति मानवाधिकार-केंद्रित होनी चाहिए तथा यह बच्चों, महिलाओं, ट्रांसजेंडर और अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों के के प्रति संवेदनशील हो | डेटा सुरक्षा पर स्पष्ट कानून लाया जाए जिसमें DNA सम्बंधित डेटा भी शामिल हो |
अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसरण में भारतीय प्रयोगशालाओं की स्थापना की जानी चाहिए तथा DNA परीक्षण के सम्बन्ध में उच्च स्तरीय मानकों की स्थापना के लिए स्वतंत्र DNA निगरानी संस्थान की आवश्यकता है | जिसे नागरिक समाज, वैज्ञानिकों और विधि विशेषज्ञों की भागीदारी से बनाया जाना चाहिए |
निष्कर्ष:
किसी भी विवादित मुद्दे पर न्याय करने के लिए न्यायालय को पुख्ता साक्ष्यों की आवश्यकता होती है | अनेक मुद्दे ऐसे होते हैं जहाँ कोई भी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं होता है | ऐसी परिस्थतियो में DNA परीक्षण अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ ):
प्रश्न : DNA तकनीक मानवाधिकारों की रक्षा में कैसे सहायक है?
उत्तर : DNA विश्लेषण के माध्यम से जेनोसाइड, सुनामी, प्राकृतिक आपदाओं में मारे गई लोगों की पहचान ,लापता व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है। गलत तरीके से दोषी ठहराए गए लोगों को न्याय दिलाया जा सकता है | यह परिवारों को मिलाने में सहायक है | अधिकारों की स्थापना में सहायक है |
प्रश्न : क्या DNA परीक्षण मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में सबूत बन सकता है?
उत्तर : हाँ, DNA परीक्षण न्यायालय में वैज्ञानिक रूप से सटीक और भरोसेमंद सबूत माना जाता है| यह बलात्कार, हत्या, मानव तस्करी जैसे गंभीर मामलों में सत्य को उजागर करने में कारगर है।
प्रश्न : क्या DNA तकनीक से लापता लोगों को खोजा जा सकता है?
उत्तर : जी हाँ, DNA तकनीक के उपयोग से लापता लोगों को खोजा जा सकता है |
प्रश्न : क्या DNA टेस्ट निजता का उल्लंघन करता है?
उत्तर : DNA परीक्षण एक संवेदनशील प्रक्रिया है। इसके लिए व्यक्ति की सहमति आवश्यक होती है। इसमें निजता के उल्लंघन की स्तिथियों को ध्यांन में रखा जाता है |
प्रश्न : क्या DNA तकनीक से बलात्कार पीड़ितों को न्याय मिल सकता है
उत्तर : बिलकुल,बलात्कार के मामलों में DNA सबूत अपराधी की पहचान करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।न्याय दिलाने में असर कारक भूमिका निभाते हैं |
प्रश्न : क्या यह तकनीक भारत में उपलब्ध है?
उत्तर : हाँ, भारत में कई सरकारी और निजी प्रयोगशालाओं में आधुनिक DNA परीक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं।