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बुधवार, 13 अगस्त 2025

आवारा कुत्तों के आगे बेबस इंसान – किसका हक पहले ?

STRAY DOGS

भूमिका 

अभी हाल ही में आवारा कुत्तों से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने टिपणी की कि  “कुत्ते इंसान के सबसे अच्छे दोस्त हैं उन्हें गरिमा के साथ जीने का हक है |” अर्थात जानवरों के जीवन के अधिकार को माननीय न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया है | लेकिन हाल ही के वर्षों में आवारा कुत्तों के बच्चों,बुजुर्गों और आमजन पर हो रहे जान लेवा और भीभत्स हमलों ने सम्पूर्ण भारत में त्राहिम - त्राहिम मचा रखी है | आमजन में अपने बच्चों और बुजुर्गों पर आवारा कुत्तों के हमलों को लेकर चिंत्ता बढ़ी है | यही नहीं लोग आवारा कुत्तों से जुड़े मामले लेकर कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुए है | 

A dog attacking children in Bhilwara district of Rajasthan

कुत्तों के हमले एक गंभीर समस्या 

दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के अनुसार 19 जुलाई 2025 को राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कुत्ते की काटने की एक घटना में  कुत्ते ने 2 घंटे में 45 लोगों पर हमला किया तथा उनके हाथ-पैर नोचे,  इनमे 25 बच्चे भी शामिल थे | 

सम्पूर्ण देश में हो रहीं इस तरह की घटनाओं ने इंसानी जान के प्रति खतरे को गंभीर कर दिया है इस कारण लोग इसे गंभीरता से ले रहे है | आज इंसान और जानवरों के बीच एक संघर्ष की स्तिथि पैदा हो गई है | 

न्यायालयिक पहुंच 

माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कुत्तों के काटने की घटनाओं से सम्बंधित 193 रिट याचिकाएं हुई | जिनका निस्तारण मानीय न्यायालय ने एक साथ किया | यही नहीं देश के कई अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी कुत्तों के काटे जाने की घटनाओं को लेकर मामले दायर किये गए हैं | 

अभी हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली में कुत्तों द्वारा काटे जाने से रेबीज होने के कारण एक 6 वर्षीय बची की मृत्यु को लेकर एक अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर का संज्ञान लेते हुए स्वप्रेरणा से एक जनहित याचिका को स्वीकार किया गया | याचिका पर प्राथमिक सुनवाई सुनवाई के बाद मानीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि 8 हफ़्तों के अंदर दिल्ली सरकार को दिल्ली एनसीआर की सड़को से सभी आवारा कुत्तो को एनिमल शेल्टर्स में शिफ्ट करे | कुत्तों के हमलों के खतरों से बचाव के सम्बन्ध में सर्वोच्च अदालत का यह एक ऐतिहासिक फैसला है | जो बच्चे कुत्तों के डर से स्कूल जाने से,पार्क में जाने से,बाजार जाने से डरते थे अब वे चैन  की सांस ले सकेंगे | ये फैसला विशेष कर बच्चों और वुजुगों के लिए जीवनदायी सिद्ध होगा |    

आमजन बनाम कुत्ता प्रेमी 

कई बार न सिर्फ आवारा बल्कि अनेक जगह पालतू कुत्तों के हमले भी जानलेवा साबित हुए हैं | ऐसी स्तिथि में इंसानी हुकूक और कुत्तों के हुकूक के बीच प्राथमिकता का एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता है | एक तरफ आमजन जो कुत्तों के हमलों से परेशान है, दुसरी तरफ कुत्ता प्रेमियों की फ़ौज जो हमेसा कुत्तों को जहाँ वह रहता है से दुसरे स्थान पर स्थानांतरित करने का विरोध करते है ,के बीच असमंजस और संघर्ष की स्थति उत्पन्न हो गई है | 

इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता ?

क्या हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता दी जा रही है ? इंसानी जीवन को खतरों से बचाना उसका हक़ नहीं है ? कुत्तों के हमलों से इंसानी जीवन को होने वाले खतरे की जिम्मेदारी कौन लेगा ? अन्ततोगत्वा ये जिम्मेदारी जागरूक समाज और राज्य को ही उठानी पड़ेगी | इंसान बनाम कुत्ते– प्राथमिकता किसे दी जानी चाहिए ? पीड़ित हमेशा इंसान के पक्ष में होगा, लेकिन जानवर प्रेमी सदैव कुत्तों के पक्ष में खड़े दिखाई देते है | कुत्तों के हमलों में मासूम और इकलौतों बच्चों की मृत्यु पर भी पशु प्रेमियों की संवेदनाये  बहुत ही कम द्रष्तिगोचर होती है | भारत में सड़क पर घूमने वाले आवारा कुत्तों की संख्या लाखों में है। ऐसा नहीं है कि  सभी कुत्ते आक्रामक  या रेबीज के बाहक है लेकिन  फिर भी समस्या गंभीर है तथा आमजन में आक्रोश है |  इनमें से अनेक कुत्ते कोई नुकसान नहीं करते। लेकिन…कई बार ये झुंड में हमला कर देते हैं | छोटे बच्चों पर, बुजुर्गों पर, अकेले जा रहे लोगों पर।

भारत में कुत्ते काटने की घटनाओं का सरकारी आँकड़ा

भारतीय संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल करीब 37 लाख कुत्तों के काटने की घटनाये दर्ज हो रही हैं और कई मामलों में लोगों की जान भी जा रही है। कुत्तों के हमलों और उससे होने वाली रेबीज की बीमारी से बच्चे, बूढ़े और जवानों की अकाल और अनावश्यक मृत्यु की ख़बरें लगातार सामने आ रही हैं | लेकिन जब भी कोई आवाज़ उठाता है, जानवर प्रेमी विरोध के लिए सामने होते हैं | जानवरों के कोई हकूक नहीं है इसमे कोइ सचाई  नाही है  बल्कि  सच्चाइ यह है  कि जानवरों को कानूनी हकूक हासिल हैं | कोई उनके खिलाफ नहीं है | कोई नहीं चाहता कि कुत्ते समाज का एक अंग न हो लेकिन ये जिम्मेदारी से हो | कोई जिम्मेदारी तो ले | जिम्मेदारी के लिए कोई सामने नहीं आता | सब चाहते हैं – प्रशासन जिम्मेदारी ले। इस सम्बन्ध में स्थानीय निकाय कानूनों में आवारा जानवरों के प्रबंधन के प्रावधान किये गए है उनका अनुसरण होना चाहिए |

इंसानी जीवन को प्राथमिकता

ये झगड़ा इंसान और जानवरो के बीच का नहीं है, ये मुद्दा है सुरक्षा और संवेदनशीलता के बीच का।इंसानी सुरक्षा भी जरूरी है और जानवरों के प्रति संवेदनशीलता भी ज़रूरी हैं… लेकिन प्राथमिकता इंसानी जीवन को मिलनी ही चाहिए।यह कहना है केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी वी कुन्हीकृष्णन का | उन्होंने यह भी कहा कि,"आवारा कुत्तों के हमले के डर से अनेक बच्चे अकेले स्कूल जाने से डरते हैं। अनेक लोग सुबह की सैर करने से डरते है |अगर आवारा कुत्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है, तो कुत्ते प्रेमी उसके लिए लड़ने के लिए तैयार रहेंगे |"

भारत में न्यायालय का फैसला सर्वोपरि है | हम सब  बतौर एक अच्छे नागरिक उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है | पशु प्रेमी भी अपनी जायज बात भारत के किसी भी न्यायालय में रखने के लिए स्वतंत्र है | ख़तरा मुक्त वातावरण संतुलित विकास के लिये आवश्यक है | 

FAQ :-

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों से कैसे छुटकारा पाएं?

उत्तर :नई दिल्ली स्थित भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वप्रेरित जनहित याचिका में फैसला सुनाया कि आठ हफ़्तों के भीतर सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर स्थायी रूप से आश्रय गृहों में रखा  जाए ।

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों के साथ क्या हो रहा है?

उत्तर: सर्वोच्च न्यायलय ने दिल्ली सरकार को आदेशित किया है कि दिल्ली एनसीआर की सड़कों से सभी आवारा कुत्तों को आश्रय गृहों में भेजा जाए | 

प्रश्न : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का क्या आदेश है?

उत्तर : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश  दिल्ली एनसीआर की सड़कों पर आवारा कुत्तों को पकड़ कर उन्हें आश्रय गृहों में स्थाई तौर पर भेजा जाए तथा इस कार्य में बाधा डालने वालों पर अदालत की अवमानना की कार्यवाही की चेतावनी भी दी है | 

  







 

सोमवार, 4 अगस्त 2025

इंसान वही, हक अलग क्यों? कब मिलेगा LGBTQ+ को विवाह का अधिकार!

भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है |
Source:Click by Blogger 

भूमिका

“परिवार” – सामान्य रूप में एक ऐसा शब्द है, जो  संवेदनाओं से भरा हुया है तथा परिवार का सदस्य होने के नाते हर सदस्य को प्यार, अपनापन और सुरक्षा का एहसास कराता है। 

लेकिन क्या हर इंसान इतना खुसनसीब है कि उसे यह अधिकार मिल पाए ? क्या नैतिक और कानूनी तौर पर हर इंसान को बिना किसी विभेद के अपनी इच्छा से विवाह करने तथा परिवार बनाने की आज़ादी है? दुर्भाग्यवश, भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी इन मूलभूत मानव अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करने के लिए विवश हैं | वे आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है | 

दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (2022 आईएनएससी 834) में, यह माना गया कि पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित भागीदारी या विचित्र संबंधों का रूप ले सकते हैं और जो परिवार पारंपरिक परिवारों से अलग हैं, उन्हें नुकसानदेह स्थिति में नहीं रखा जा सकता। कहना न होगा "परिवार" शब्द को विस्तृत अर्थ में समझा जाना चाहिए।

इस लेख के माध्यम से आज हम बात करेंगे एक ऐसे मुद्दे की, जो केवल नैतिकता, कानून या संविधान से जुड़ा नहीं है, बल्कि प्यार ,संवेदनाओं और समानता के मूलभूत  मूल्यों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है – LGBTQ+ समुदाय का  विवाह करने तथा परिवार बनाने का मानव अधिकार।

LGBTQ+ समुदाय का संघर्ष: पहचान से अधिकार तक

LGBTQ+ समुदाय – यानी लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर व्यक्तियों का समूह  सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि भारत में भी पिछले कई दशकों से अपनी अलग पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करता आया है। इनकी अलग पहचान के मुद्दे का भी एक इतिहास रहा है | 

भारत में ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए क़ानून बना कर उनकी अलग पहचान को भी सम्मान दिया गया तथा अन्य अधिकारों को भी तवज्जो दी गई | ये कानून है - ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019| इसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मान्वाधिकारो की रक्षा करना है लेकिन यहकानून भी उनके विवाह पर शान्त है| 

LGBTQ+ समुदाय के पक्ष में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले द्वारा आई पी सी की धारा 377 को रद्द कर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यह एक बड़ी जीत थी – लेकिन यह सिर्फ एक क़ानूनी कदम था | 

क्योकि आज भी भारत में जब एक समलैंगिक जोड़ा विवाह की बात करता है या परिवार बनाने की बात करता है या एक अन्य व्यक्ति के साथ जीवन बिताने की बात करता है, या बच्चा गोद लेने की बात करता है, तो उन्हें कानूनी और नैतिक दोनों ही स्तर पर समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समाज और सिस्टम आज भी इस समुदाय के विवाह और परिवार बनाने के अधिकार के विरोध में खड़ा हुया है | 

प्रश्न उठता है कि क्या दो परुष अपना विवाह नहीं कर सकते और क्या एक महिला दूसरी महिला से मिलकर विवाह नहीं कर सकती हैं तथा वे माता -पिता नहीं बन सकतीं ? क्या इस समुदाय के दो व्यक्ति, जो एक-दूसरे से आपस में गहरा प्रेम करते हैं, एक बच्चे को उतना ही स्नेह और सुरक्षा नहीं दे सकते जितना एक विषमलैंगिक जोड़ा देता है ? 

यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और विधिक रूप से अत्यधिक जटिल विषय है लेकिन समाधान तो समय की आवश्यकता है | किसी भी व्यक्ति को प्रद्दत उसके मानव अधिकारों से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जा सकता है | सभी व्यक्तियों को, चाहे उनकी यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान कुछ भी हो, मानवाधिकारों के सार्वभौमिक आनंद का अधिकार है  

परिवार बनाने का अधिकार: केवल विषमलैंगिकों का विशेषाधिकार?

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसके साथ साथ अन्तराष्ट्रिय मानव अधिकारों के तहत भी दो प्रोढ़ लोगो को उनकी इच्छा के अनुसार विवाह तथा परिवार बनाने का अधिकार मिला हुया है लेकिन जब LGBTQ+ व्यक्तियों की बात आती है, तो विवाह और 'परिवार' जैसी संस्थाएं केवल  विषमलिंगी संबंधों (पुरुष और महिला के रिश्ते) तक ही सीमित रह जाती हैं। यह गंभीर बिडम्बना का विषय है | 

क़ानूनी सवाल उठते हैं:

क्या LGBTQ+ जोड़ों को विवाह का अधिकार होना चाहिए?

क्या उन्हें परिवार बनाने का अधिकार होना चाहिए   ?

क्या वे संतान गोद ले सकते हैं ?

क्या उन्हें परिवार का दर्जा मिल सकता है? 

सही मायने में इन सवालों का उत्तर स्पष्ट है – हाँ, क्योंकि यह अधिकार "इंसान" होने के नाते मिलना चाहिए, न कि केवल किसी विशेष लैंगिक या यौन पहचान के आधार पर।यौन पहचान के आधार पर आज भी गंभीर भेदभाव का अस्तित्व मानव अधिकारों का गंभीर उलंघन है | 

केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका

2023 में सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था सुप्रियो @ सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत संघ (2023 INSC 920) में माननीय न्यायालय ने भले ही समलैंगिक जोड़ों के बीच विवाह को वैध नहीं बनाया हो, लेकिन  यह स्पष्ट किया कि वे बहुत अच्छी तरह से एक परिवार बना सकते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि यह संसद का विषय है। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि LGBTQ+ व्यक्तियों को एक साथ रहने और जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, और उन्हें भेदभाव से बचाया जाना चाहिए।

मद्रास उच्च न्यायालय की पीठ ने दिनांक: 22.05.2025 को एम.ए. बनाम पुलिस अधीक्षक, वेल्लोर एवम अन्य में महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया | जिसमे LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार दिया गया है जो कि बहुत ही प्रगतिशील नर्णय है | 

माननीय न्यायमूर्ति जी.आर.स्वामीनाथन और माननीय न्यायमूर्ति वी.लक्ष्मीनारायणन की  पीठ ने ये फैसला सुनाया |  

इस मामले के किरदार समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली दो लड़कियां है |इस मामले में याचिकाकर्ता लड़की से समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली लड़की को उसकी परिवार ने उसकी इच्छा के विरुद्ध अवैध हिरासत में रखा हुया था|

यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी जिसमे याचिकाकर्ता द्वारा पिता की अवैध हिरासत से उसकी 25 वर्षीय बेटी को स्वतंत्र करने की मांग की गई थी | क्यों कि उसका कहना था कि बंदी के पिता ने उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे हिरासत में रखा हुया था | 

इसके बाद पुलिस द्वारा न्यायालय के समक्ष बंदी और उसकी माँ को पेश किया गया | न्यायालय ने उन दोनों से विस्तृत बातचीत की। बंदी की माँ न्यायालय में ही रो पड़ी तथा उसने अनुरोध किया कि उसे अपनी बेटी को वापस घर ले जाने की अनुमति दी जाए। 

उसके अनुसार, रिट याचिकाकर्ता ने उसकी बेटी को गुमराह किया है। उसने यह भी आरोप लगाया कि उसकी बेटी नशे की आदी है और उसने उसकी इस हालत के लिए याचिकाकर्ता को पूरी तरह से दोषी ठहराया। माँ ने कहा कि उसकी बेटी को काउंसलिंग और पुनर्वास की आवश्यकता है|  

पीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि बंदी से बातचीत करने से पहले, उनके द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देवू जी नायर बनाम केरल राज्य (2024 लाइवलॉ (एससी) 249 में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं या पुलिस सुरक्षा के लिए याचिकाओं से निपटने में अदालतों के लिए जारी दिशा-निर्देशों का ध्यान रखा गया है |   

माननीय न्यायालय द्वारा उपरोक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बंदी से बातचीत की। न्यायालय ने कहा की हमारा एकमात्र प्रयास उसकी वास्तविक इच्छाओं और उसके द्वारा चुने गए विकल्प का पता लगाना था। बंदी की आयु लगभग 25 वर्ष है इसलिए वह बालिग़ है तथा वह शिक्षित है। वह बिल्कुल सामान्य दिखने वाली युवती लग रही थी। उस पर किसी भी तरह की लत का आरोप लगाना अनुचित होगा।

न्यायालय द्वारा पूछे गए एक विशिष्ट प्रश्न पर, बंदी ने उत्तर दिया कि वह समलैंगिक है और रिट याचिकाकर्ता के साथ संबंध में है। उसने कहा कि वह अपनी समलैंगिक सहपाठी  के साथ जाना चाहती है। उसने इस बात की पुष्टि की कि उसे उसके पैतृक परिवार द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है। 

न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हिरासत में लिए गए या लापता व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का पता लगाने में कानून का पालन किया जाए|  यदि हिरासत में लिया गया या लापता व्यक्ति कथित बंदी या पैतृक परिवार के पास वापस न जाने की इच्छा व्यक्त करता है, तो उस व्यक्ति को बिना किसी और देरी के तुरंत रिहा किया जाना चाहिए| 

न्यायालय ने कहा कि चूँकि हमने खुद को संतुष्ट कर लिया है कि बंदी याचिकाकर्ता के साथ रहना चाहती है और उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है, इसलिए हम इस बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को अनुमति देते हैं और उसे स्वतंत्र करते हैं। हम बंदी के पैतृक परिवार के सदस्यों को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से भी रोकते हैं। न्यायालय ने यह निर्णय योग्यकर्ता सिद्धांत, 2006 को दृष्टिगत रख ते हुए सुनाया | 

इस निर्णय ने समुदाय में निराशा का भाव ज़रूर पैदा किया, लेकिन इसने बातचीत के नए रास्ते भी खोले है। 

विधि व्यवस्था शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ, (2018) 7 एससीसी 192 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि पसंद का दावा स्वतंत्रता और गरिमा का एक अविभाज्य पहलू है। एक अन्य महत्वपूर्ण विधि व्यवस्था शफीन जहान बनाम अशोकन केएम (2018) 16 एससीसी 368 में यह स्थापित किया गया कि जीवनसाथी का चुनाव, चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, प्रत्येक व्यक्ति के विशेष अधिकार क्षेत्र में होता है।

सरकार,न्यायालय और समाज सभी को यह समझने की ज़रूरत है कि परिवार केवल सामाजिक संस्थान या खून के रिश्ते  पर आधारित नहीं  है – बल्कि प्यार, आपसी विश्वास और देखभाल पर आधारित है।

परिवार का असली मतलब: प्यार और देखभाल

भारत में आज भी “परिवार” शब्द का अर्थ पति पत्नी, बच्चे और वुजूर्ग माता-पिता के रूप में देखा जाता है। लेकिन आज समय तेजी से बदल रहा है।

कई देशों में आज LGBTQ+ लोग भी बच्चों का पालना पोषण बड़ी गंभीरता और सिद्दत से कर रहे हैं | भारत में भी अनेक समलैंगिक जोड़े एक सुरक्षित और स्थिर घरेलू जीवन जीना चाहते हैं और बच्चों को गोद लेकर उनका अन्य लोगों की तरह पालन पोषण करना चाहते हैं । ये सभी सामान्य मानवीय इच्छाएं हैं – जो किसी भी इंसान को हो सकती हैं। एक समलैंगिक दंपति जब किसी बच्चे को गोद लेता है, तो वह बच्चा भी उतनी ही खुशियाँ और परवरिश पाता है जितना किसी अन्य परिवार में। अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे  कई देशों में समलैंगिक विवाह और परिवार बनाने के अधिकार को विधिक मान्यता प्राप्त है और वहां LGBTQ+ परिवार विवाह कर या  परिवार बनाकर पूरी गरिमा से जीवन जी रहे हैं।

भारत में समाज की मानसिकता: बदलाव की ज़रूरत

भारत में LGBTQ+ समुदाय आज भी तिरस्कार, उपहास और हिंसा का सामना करने को विवश है। अगर कोई लड़का लड़के से प्रेम करता है, या कोई लड़की लड़की से, तो समाज में उसे “अप्राकृतिक कृत्य", “मानसिक बीमारी” या “पश्चिमी सोच” का नतीजा बताया जाता है | 

क्या यह सोच ग़लत है  ?

बिलकुल यह सोच पूरी तरह से गलत है क्यों कि प्रेम, सम्मान और परिवार की भावना किसी जाती, धर्म,पंथ या लैंगिक पहचान की मोहताज नहीं होती है | 

हमारे समाज में एक तरफ वसुदैव कुटुंबकम के अत्यधिक पुराने और विशुद्ध भारतीय सिद्धांत की दुहाई दी जाती है और दूसरी तरफ LGBTQ+ समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित करने में भी कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं | यह स्तिथि गंभीर रूप से विचारणीय है | 

समाज में बदलाव की भावना तभी विकसित होगी जब हम सभी मिलकर आने वाली पीढ़ी को सिखाएँगे कि LGBTQ+ भी उतने ही सामान्य हैं, जितने कि हम। जब हम स्कूलों, फिल्मों, सीरियल्स और न्यूज़  आदि हर जगह  पर उन्हें सही प्रतिनिधित्व देंगे तो उनकी साथ लैंगिक पहचान के कारण होने वाले अपराध बोध को आवश्यक रूप से समाप्त किया जा सकेगा |  अब जरूरत है “परिवार” शब्द को लैंगिक सीमाओं से मुक्त करने की | 

मीडिया, फिल्म और साहित्य की भूमिका

पिछले एक दशक में सिनेमा और वेब सीरीज़ जैसे “मेड इन हैवेन,” “सुभ मंगल ज्यादा सावधान,” “अलीगढ़,” और “रॉकेटमन” ने LGBTQ+ समुदाय के मुद्दों को खुलकर दिखाया है।समाज में यह एक सकारात्मक बदलाव का संकेत है।

सर्व विदित है कि मीडिया समाज का आईना होता है तथा लोकतंत्र का चौथा स्थम्ब भी समझा जाता है। जब मीडिया की कहानीयां LGBTQ+ समुदाय के लोगों की सच्चाई दिखाएगी, जब दर्शक इन पात्रों को सिर्फ “गे या “ट्रांसजेंडर” के रूप में नहीं, बल्कि मानव अधिकार और इंसान के रूप में देखेंगे – तभी  सच्चे बदलाव की उम्मीद की जा सकती है |

आगे का रास्ता: बदलाव की ओर एक कदम

अब समय आ गया है कि भारत LGBTQ+ समुदाय को केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि समान अधिकार उपलब्ध कराए।

आवश्यक कदम:

सरकार द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी जाए|

LGBTQ+ जोड़ों को बच्चा गोद लेने और परिवार बनाने का अधिकार मिले।

स्कूलों और कॉलेजों में LGBTQ+  समुदाय  और समाज में जागरूकता बढ़ाई जाए।

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधत्व दिया जाए| 

समाज में संवेदनशीलता लाने के लिए मीडिया और सरकारी प्रचार अभियान चलाए जाएं।

यह एक कठिन यात्रा ज़रूर है, लेकिन असंभव नहीं। जब समाज प्रेम को सम्मान देना सीख जाएगा, तथा  लैंगिक भेदभाव को तिलांजलि दे देगा , तो हर इंसान को अपना "विवाह" तथा “परिवार” बनाने की आज़ादी होगी–चाहे वह किसी भी लैंगिक पहचान से सम्बन्ध क्यों न रखता हो| 

निष्कर्ष: समानता की ओर एक कदम

LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार केवल एक क़ानूनी विषय नहीं है – यह मानवता, प्रेम और सामाजिक न्याय तथा मानव अधिकार का विषय है।

हर किसी को यह हक़ मिलना चाहिए कि वह अपने जीवनसाथी के साथ घर बसा सके, बच्चे पाल सके, और समाज में सम्मान से जी सके।

हमें यह समझना होगा कि प्रेम प्राकृतिक है तथा भेदभाव  के लिए कोई स्थान नहीं।

अब समय आ गया है कि हम अपने सोच के दायरे को बड़ा करें और एक समावेशी, दयालु और  मानवाधिकार केंद्रित समाज की नींव रखें।

FAQ :

प्रश्न :LGBTQ+ समुदाय के कानूनी अधिकार क्या हैं ?

उत्तर : सामान्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय को भी सभी अधिकार प्राप्त हैं कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर | 

प्रश्न :क्या अन्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय के  लोगों को भी सामान मानव अधिकार प्राप्त हैं ?

उत्तर :हाँ , कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर |  

प्रश्न :मैं अपनी या परिवार के अधिकारों के बारे में जानकारी कहा से लू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए कार्यरत गैर सरकारी संघठनो(NGO ) से संपर्क साध कर | 

प्रश्न :मैं अपने लिए एक अच्छा वकील कैसे ढूँढू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए काम करने वाले वकील से संपर्क साधें | 

प्रश्न :भारत में समलैंगिक जोड़ों का विवाह करना कानूनी है?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समान लिंग वाले जोड़े सामान्य कानून के तहत विवाह कर सकते हैं?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समलैंगिक जोड़ा लाइव इन रिलेशन में रह सकता है ?

उत्तर : रह सकता है | 

प्रश्न :मैं और मेरा पार्टनर सचमुच शादी करना चाहते हैं! हम क्या कर सकते हैं?

उत्तर : लाइव इन रिलेशन में रह सकते हैं | 

प्रश्न  :मैं एक अच्छे समलैंगिक रिश्ते में हूँ, लेकिन मैं शादी नहीं करना चाहता। आपके पास मेरे लिए क्या है?

उत्तर : आप लाइव इन रिलेशन में रह सकते है | 

रविवार, 27 जुलाई 2025

पशु हमले में मृत्यु पर मुआवजा : भारत में क्या है अधिकार ?

आवारा पशु हमले में मृत्यु पर मुआवजा के सम्बन्ध में भारत में क्या है कानूनी अधिकार और मुआवज़ा नीति? यह लेख इस सम्बन्ध में संक्षिप्त में स्पस्ट करता है | जानने  के लिए पूरा पढ़ें |

प्रस्तावना

भारत में कुत्तों द्वारा काटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही और ये कई बार इन घटनाओं की गंभीरता के कारण घायल लोगों की मृत्यु तक हो जाती है |  ऐसी घटनाओं के बाद सवाल उठता है कि  है कि — क्या पीड़ित के परिवार को मुआवजा मिल सकता है? और यदि हाँ, तो किससे और कैसे?

इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में कुत्ता काटने से हुई मृत्यु पर मुआवज़े को लेकर कानून क्या कहता है, किसे उत्तरदायी माना जाता है, और न्याय पाने की प्रक्रिया क्या है।

आज का विषय बेहद संवेदनशील और विवादास्पद है| क्यों कि एक तरफ पशु प्रेमी हैं और दूसरी तरफ आवारा पशुओं  के हमले में गंभीर रूप से घायल हो रहे या मृत्यु के कारण पीड़ित परिवारीजन है | इस लेख के माध्यम से कोशिश की गई है कि आम और खासजन को आवारा पशु जैसे कुत्तों के हमले से घायल या मृत्यु की दिशा में मुआवजा देने के क्या प्रावधान है तथा क्या नीतियां हैं ? अर्थात कुत्ता काटने से हुई मृत्यु पर क्या कहता है क़ानून ? इस लेख के माध्यम से इन्ही प्रश्नो के उत्तर तलासने का प्रयास किया गया है | 

क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल लाखों लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते है जिसमे अनेक लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते है तथा इनमे से कई की मौत हो जाती है | खासकर रैवीज की बीमारी होने पर | कुत्तों के हमलों की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि यह एक वैश्विक समस्या है |  

आज कल भारत के कई राज्यों में कुत्तों को खाना खिलाने से लेकर कुत्तों के हमलों से होने वाली मृत्यु पर मुआवजा तथा कुत्तों के हमलो से परेशान जनता की कठिनाइयों को लेकर अनेक याचिकाएं  भारत के विभिन्न उच्च न्यायालययो से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुकी है | भारत के कई उच्च न्यायालयों ने कुत्तों के काटने पर हुई मृत्यु पर मृतक के उत्तराधिकारिओं को मुआवजा दिया है  जो कि 10  लाख  तक रहा है | 

कुत्तों के काटने से समस्या की गंभीरता

भारत में दिसंबर,2024 के दौरान देश में कुत्तों के काटने के लगभग 22 लाख मामले सामने आए और 37 मौते हुईं। यह बताया गया केंद्रीय पशुपालन और डेयरी मंत्री राजीव रंजन सिंह  द्वारा लोकसभा सत्र के दौरान | इसके अलावा यह  भी बताया गया कि  को बताया पिछले साल बंदर के काटने के मामलों सहित अन्य जानवरों के काटने के  5  लाख 4  हजार 728  मामले  सामने आये | जबकि सच्चाई कुछ अलग हो सकती है क्यों की बहुत से कुत्तो के काटने की घटनाये रिपोर्ट ही नहीं होती है, इसलिए असली संस्ख्या  इस आकड़े से कही अधिक हो सकती है | 

हाल ही में कुत्तों के काटने से मृत्यु पर मीडिया की सुर्खियां

अभी हाल ही में कुत्तों के काटने से रेबीज की बीमारी से हुई मौतों की मुख्य धारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर अत्यधिक चर्चा है | ये चर्चा है  गोल्डमेडलिस्ट कबड्डी खिलाड़ी बृजेश सोलंकी  के सम्बन्ध में तथा.उत्तराखंड राज्य में तैनात एक सबइंस्पेक्टर की कुत्ते के काटने से हुई मृत्यु के बारे मे | कुत्ते के हमले की एक खबर सुनकर आप चौंक जायेगे और ये खबर है राजस्थान राज्य के भीलवाड़ा जिले में एक कुत्ते द्वारा आम लोगों पर किये गए एक हमले के बारे में | इस हमले में 20 जुलाई 2025 को भीलवाड़ा जिले में कुत्ते ने 2 घंटे में 45 लोगों पर हमला किया जिसमे 25 बच्चे घायल बच्चे भी घायल हुए | अब सवाल है – क्या प्यार की कीमत इंसानों की जान होनी चाहिए?

अगर देखा जाय तो उस चर्चा में कुछ गायब है तो वह है पीड़ितों या उनके परिवार वालों के लिए मिलने वाली आर्थिक राहत | भारत में मानवीय आवादी के साथ साथ आवारा कुत्तों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है | ये कुत्ते बड़ी तादात में लोगों को काट रहे है | यह सही है कि हर कुत्ते के काटने से रेबीज की बीमारी नहीं हो सकती लेकिन सावधानी के उद्देश्य से कुत्ते के काटने पर एंटी रेबीज का टीका लगवाना आवश्यक है | भारत में अभी भी लोग आर्थिक टंगी या लापरवाही के कारण २४ घंटे के भीतर टीका नहीं लगवाते है या फिर लेट - लतीफ़ लगवाते हैं | ऐसी स्तिथि में बीमारी के लक्षण दिकने के बाद उनके जीवन को बचाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव हो जाता है |  रैबीज की बीमारी से  बचाव और सावधानी ही सबसे अच्छा उपाय है | व्यक्ति के एक बार रेबीज की बीमारी की चपेट में आ जाने के बाद उसका इलाज आज भी करीब -करीब असंभव है | 

मुआवजा नीति सम्बन्धी कानूनी प्रावधान

भारत में आवारा पशुओं जैसे आवारा कुत्तों के काटने से होने वाली मौतों के लिए मुआवजा दिये जाने का कोई भी विधिक या नीतिगत प्रावधान नहीं है | लेकिन कुत्तों के काटने से हुई मौतों के कई मामलों में मृतक के परिवारीजनों ने न्यायालय का रास्ता अपनाकर मुआवजे की कानूनी लड़ाई जीतने में सफल रहे | इसलिए कहा जा सकता है कि न्यायालय द्वारा निर्मित क़ानून उपलब्ध है जो पीड़ितों या उनके उत्तराधिकारियों की मदद कर उन्हें सहारा दे रहा है|  कई अदालतों द्वारा कुत्तों के काटने पर हुई मौतों के सम्बन्ध में मुआवजा देने का आदेश किया जा चुका है हैं | उदाहरण के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय विभूती चंद मोहंती बनाम उड़ीसा राज्य ,2023 में कुत्ते के काटने से एकलौते बच्चे के मृत्यु पर एक वकील द्वारा दायर जनहित याचिका की सुनवाई के बाद परिवार को 10 लाख रूपये मुआवजे के रूप में दिलाये जाने के आदेश दिए थे | आजकल क़ानूनी जागरूकता के चलते क़ानून का सहारा लेकर पीड़ित मुआवजे के अधिकार को न्यायालय के माध्यम से प्राप्त कर रहे हैं | 

मुआवजा नीति बनाने के लिए कोर्ट का निर्देश       

समाज में कुत्तों से काटने की समस्या ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया कि हरयाणा तथा चंडीगढ़ हाई कोर्ट में 193  रिट याचिकाओं  पर एक साथ सुनवाई में शामिल कर निर्णय सुनाया गया | जिसमे सरकारों को निर्देशित किया गया कि कुत्ते के काटने पर लोगों आई चोटों और मृत्यु की स्तिथि में मुआवजा नीति बनाई जाए | कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि

* एक दाँत के निशाँ की स्तिथि में पीड़ित को न्यूनतम १० हजार रूपये का मुआवजा दिया जाए |

*और 0.2 सेमी घाव की स्तिथि में पीड़ित को न्यूनतम मुआवजा २० हजार रूपये दिए जाए | 

मुआवजा लेने के लिए शुआती औपचारिकताएं  क्या होती हैं ?

*कुत्ते के काटने के बाद सबसे पहले नजदीकी थाने में घटना की सूचना दें |  

*घायल होने की स्तिथि में मेडिकल रिपोर्ट बनवाये तथी मृत्यु होने की स्तिथि में पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तथा डेथ सर्टिफिकेट भी बनवाएं | 

* एक अच्छा वकील करके मुआवजे के लिए न्यायालय की शरण में जाए | 

मनुष्य और जानवर दोनों ही प्रकृति का अभिन्न अंग है | यह सही है कि प्राकृतिक संरक्षण में जानवरों का संरक्षण भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है | लेकिन मनुष्य का संरक्षण जानवरों के संरक्षण से ऊपर के पायदान पर रखे जाने के न्यायिक निर्णय हमारे सामने उपलब्ध हैं | मनुष्य और जानवरों के बीच के टकराव को संतुलित सन्दर्भों में देके जाने की आवश्यकता है | कुत्तों के साथ भी प्यार किया जाना चाहिए लेकिन साबधानी और जिम्मेदारी के साथ | सरकार भी दायित्व के अधीन है कि वह मनुष्य के संरक्षण के साथ साथ जानवरों का भी संरक्षण करे |  

FAQ :-

1 . कुत्ते के काटने पर कितना मुआवजा मिलता है?

2 अगर कुत्ता 10 दिन बाद जिंदा है तो क्या मुझे रेबीज हो सकता है?

3 .कुत्ते के दांत लगने पर क्या करें?

4. कुत्ता काटने पर क्या होता है ?

5. पालतू कुत्ते के काटने पर कौन सी धारा लगती है?



















शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

मानव अधिकारों की नए भारत के निर्माण में भूमिका :मुद्दे ,चुनौतियाँ और समाधान

Contribution of Human Rights in Building a Naya Bharat
प्रस्तावना 

नए भारत की संकल्पना को सिद्धि में बदलने के लिए मानव अधिकारों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है | वर्तमान में मानव अधिकार किसी भी देश की प्रगति और विकास के लिए आवश्यक हैं | जिन देशों में मानव अधिकार का स्तर अच्छा है उनमे निवास करने वाले वियक्तियों का जीवन स्तर भी उच्च स्तरीय है | 

मानव अधिकारों की अवधारणा 

मानव अधिकारों की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता का विकास | मानव अधिकारों की अवधारणा की ऐतिहासिक जड़ें प्राकृतिक अधिकारों में दृटिगोचर होती हैं. | इस प्रकार मानव अधिकार वे अधिकार है जो किसी वियक्ति को उसके मानव होने के नाते स्वतः ही  प्राप्त होते हैं |मानव अधिकार वियक्ति को चहुमुखी विकास का अवसर उपलब्ध कराते है |  मानव अधिकार सार्वभौमिक ,अविभाज्य और एक दूसरे पर निर्भर होते है | सरल भाषा में मानव अधिकार वे हैं जो वियक्ति को मानवीय रूप और गरिमा प्रदान करते हैं | किसी एक मानव अधिकार का उल्लघन वियक्ति और समूह के दूसरे अन्य मानव अधिकारों का प्रत्यछ और अप्रत्यछ रूप से प्रभावित कर सकता है | उसी प्रकार किसी एक अधिकार के संवर्धन और संरक्षण से अन्य अधिकारों का स्वतः ही संवर्धन और संरक्षण संभव है |उदाहरण के रूप में वियक्ति को शिक्षा का लाभ मिलने पर अन्य अधिकारों का स्वतः  ही संवर्धन और संरक्षण हो जाता है  अर्थात मानव अधिकार एक दूसरे पर अंतर्निर्भर हैं | 

मानव अधिकार की भारतीय परिभाषा 

भारत में मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए बने  मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम ,१९९३ की धरा -२(द ) के अनुसार , " मानव अधिकारों से प्राण ,स्वतंत्रता ,समानता और वियक्ति की गरिमा से सम्बंधित ऐसे अधिकार अभिप्रेत हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गए हैं या अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में शामिल हैं और भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं |" 

मानव अधिकारों की प्रकृति 

१७१ देशो और सैकड़ो गैर सरकारी संस्थाओं के सम्मलेन के बाद जारी की गयी विएना घोषणा में स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि , "सभी मानव अधिकार सार्वजनीन ,अविभाज्य, अंतर्सम्बन्ध और अंतर्निर्भर हैं | " साथ ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा गया है कि नागरिक ,राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक  सभी प्रकार के व्यक्तिगत  अधिकारों तथा राज्यों और राज्यों के समूहों  के अंतर्गत सामूहिक अधिकारों का एक मात्र जामिन लोकतंत्र है | विश्व भर में मानव अधिकारों के विकास और क्रियान्वयन  के साथ ही भातीय प्रजातंत्र ने २१ वी सदी में प्रवेश किया है | भारत में भारतीयों के जीवन में आये तमाम सकारात्मक बदलावों को दृष्टिगोचर कर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि  वर्तमान में मानवाधिकारों  के बिना नए भारत की परिकल्पना और वास्तविकता में उसका रूपांतरण बेमानी होगा | 

भारत में मानवाधिकारों का उपयोग तथा क्रियान्वन 

नए भारत एवम समग्र विकास की भारतीय अवधारणाओं को मूर्त रूप में बदलने के लिए सयुक्त राष्ट्र सदस्य  के रूप में भारत के पास मानव अधिकार सिद्धांतों के रूप में सशक्त औजार लम्बे समय से उपलब्ध रहा है | सयुंक्त राष्ट्र अधिकार पत्र की स्वीकृति के बाद से अब तक करीब ७० वर्ष  गुजरने के बाबजूद भारत में मानव अधिकारों पर अमल का इतिहास निराशाजनक रहा है | मानव अधिकारों के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए उनका ज्ञान और सरोकार पैदा करने की जितनी आवस्यकता आज है उतनी कभी नहीं थी | इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत में मानव अधिकारों के संवर्धन की दिशा में कोई कदम ही नहीं उठाये गए है | 
विश्वभर में मानवाधिकारों के संरक्षण अवं संवर्धन के क्षेत्र में प्राप्त प्रमुख उपलब्धि सयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकृत की गयी मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा है जिसे १० दिसम्बर ,१९४८ को स्वीकृत व् अंगीकृत किया गया था | इस घोषणा पत्र  द्वारा स्पष्ट किया गया है कि , "सभी वियक्ति जन्म से स्वतन्त्र  हैं और अपनी गरिमा और अधिकारों के मामले में बराबर है |" इसमें किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा | विश्वभर में इस घोषणा के महत्त्व को इस आधार पर समझा जा सकता है कि अब तक इस दस्तावेज का ५०० से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है | भारत भी उक्त घोषणा पत्र का सदस्य देश है | 
नए भारत के निर्माण से जुड़े अनेक मुद्दे और और चिंताए विद्द्मान रहे है | बाबजूद इसके करीब ७० वर्षों तक भारतीय संसद द्वारा अपने नागरिकों के हितों में अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों का उतना उपयोग नहीं किया गया है जितना किया जाना चाहिए था | 

नए भारत की संकल्पना 

चौहदवीं लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भारत के प्रधान मंत्री बने नरेंद्र मोदी के नए भारत के निर्माण की संकल्पना दरअसल कुछ और नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के मूल संगठन जनसंघ के नेता और उसकी विचार धारा को दार्शनिक आधार देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सपनो को आगे बढ़ाने की यात्रा है | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वर्ष २०१५ में सयुंक्त राष्ट्र संघ सतत विकास समिति के समक्ष सतत विकास विषय पर सम्बोधन किया | हम सबका साझा संकल्प है कि विश्व शांति पूर्ण हो ,व्यवस्था न्याय पूर्ण हो, विकास सस्टेनेबल हो , तो गरीबी के रहते यह कभी भी संभव नहीं होगा | इस लिए गरीबी को मिटाना हम सभी का पवित्र दायित्व है |  

पंडित दीन दयाल उपाध्याय का दर्शन 

पंडित दीन दयाल उपाध्याय का विकास के सन्दर्भ में विचार है कि विकास में सरकार द्वारा अंतिम पायदान पर स्तिथ वियक्ति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए तथा जिससे उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की भी पूर्ती हो सके |परिणामस्वरूप एक समरसता वाला समाज तैयार हो सके| पंडित दीन दयाल उपाध्याय के दर्शन को एकात्म मानव दर्शन कहा जाता है और इस एकात्म मानव दर्शन में समग्रता के व्यापक दर्शन होते हैं |
पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने मानव की पहली कड़ी यानी व्यक्ति से लेकर सर्वोच्च स्तर यानी समाज तक गहरा चिंत्तन किया | पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने समाज के किसी वंचित वर्ग की चिंताएं करने की बजाय समाज के चिंतन पर सर्वाधिक बल दिया | वे कभी यह नहीं कहते थे कि पिछड़े वर्ग का विकास किया जाय बल्कि उनका जोर रहता था कि समस्त समाज का विकास किया जाय,अर्थात समस्त समाज के विकास की चिंत्ता करते हुए संतुलित विकास का प्रबल समर्थन करते थे| 
पंडित दीन दयाल उपाध्याय की परिकल्पना थी कि पिछड़ा वर्ग समाज का ही एक अंग है | इसलिए समाज का विकास होने पर पिछड़े वर्ग का विकास स्वतः हो जाएगा | इस लिए सम्पूर्ण समाज के विकास पर बल दिया जाना चाहिए | वे मशीन आधारित विकास के विरोधी थे | वे हर व्यक्ति के हाथ में काम चाहते थे तथा वे अर्थव्यवस्था के  विकेन्द्रीयकरण के प्रबल समर्थक थे | 
नए भारत की परिकल्पना अनायास पैदा हुया विचार न होकर लम्बे समय में विकसित एक जटिल परिकल्पना है और समय के साथ -साथ इसके आयामों में भी विस्तार होता रहा है | 
इस एकात्मवाद का सैद्धांतिक आधार पंडित दीन दयाल के नए भारत की परिकल्पना को मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए मूलभूत और ससक्त आधार उपलब्ध करता है | नए भारत की सैद्धांतिक  अवधारणा  का बीजारोपण  भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारम्भ के समय से ही हो चुका था | लेकिन समय गुजरने के साथ साथ नए भारत की अवधारणा के विभिन्न आयाम देश की आवाम के सामने आते रहे हैं | अलग-अलग कालखंडों में नए भारत के निर्माण की अवधारणा में निरंतर बदलाव होता रहा है |
भारत के पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव  परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के दिल्ली स्तिथि केंद्रीय कार्यालय में न्यू इंडिया पर नई बहस छेड़ कर भारतीयों को आश्चर्य में डाल  दिया | अनेक लोगों को न्यू  इंडिया का अर्थ ही समझ में नहीं आया | मोदी जी ने कहा कि, "न्यू इंडिया सरकार से नहीं बल्कि १२५ करोड़ भारतवासियों की छमताओं  और कुशलताओं  से उभरा है |"
जाती और धर्म आधारित राजनितिक समाज में विखंडन और वैमनस्य पैदा करती है और समाज में विखंडन और वैमनस्य सम्पूर्ण समाज के विकास में गंभीर बाधाएं पैदा करती हैं | जिससे समाज का समग्र विकास  कतई संभव नहीं है | पंडित दीन  दयाल  समाज को विखंडित करने वाली राजनीति के प्रबल विरोधी थे | उन्होंने महसूस किया कि हमें सभी राजनैतिक मतभेदों को दूर करके एक साथ मिलकर देश का समग्र विकास करना चाहिए |      
पंडित दीनदयाल की विशेषता रही है कि उनके द्वारा सदैव ही समग्र विकास की बात की जाती रही है न की खंडित विकास की | खंडित विकास का अर्थ अनेक सन्दर्भों में असंतुलित विकास से जोड़ा जाता है | 
हम आने वाली भविष्य  की  पीडीओं  को दुनिया में क्या सौप कर जाना चाहते  हैं ? यह वर्तमान पीड़ी पर ही निर्भर करेगा कि सिर्फ जीवन यापन करना चाहते है  या गरिमा के साथ जीवन जीना कहते है | यही भविष्य की पीडियों के बारे में सोचना पड़ेगा कि हम उन्हें  सिर्फ जीने के लिए छोड़ कर जाना चाहते है जिसमे गुलामी,संघर्ष, अत्याचार ,अमानवीय व्यवहार, भुकमरी,वर्ग संघर्ष,जातीय और धार्मिक संघर्ष का बोलवाला हो या गरिमामयी जीवन  जीने के लिए एक सुरक्षित व्  स्थायित्व  पूर्ण वातावरण देना कहते है | 
भारत अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था  बनने के कगार पर है बाबजूद इसके सार्वजनिक  स्वास्थय ,शिक्षा ,आवास ,भोजन और पानी जैसे मामले में देश दुनिया के अनेक  देशों से भी पीछे हैं |  इन मानकों पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए भी सामाजिक ,शैक्षिक  और आर्थिक विकास की गति और तेज करनी होगी | जिसके लिए सतत विकास की अवधारणा को विह्वहार में लाने पर जोर देना पडेगा |   

सतत विकास की अवधारणा 

सतत विकास की अवधारणा विकास का ही नया आयाम है | जो नई  पीड़ी की भलाई के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है | शाब्दिक अर्थ के रूप में देखने पर सतत विकास का अर्थ है  निरंतर और परिवर्तन | 
ब्रूटलैंड आयोग , १९८७ में इसे परिभाषित करते हुए कहा कि , " सतत विकास ऐसा विकास है जो भविष्य की पीढ़ी की समस्त आवश्यकताओं को संतुषट करने की आवश्यकता के साथ किसी भी प्रकार का समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी  की आवस्यकता को पूर्ण करता है |"   
मानव अधिकारों पर पहली कॉन्फ्रेंस २२ अप्रेल से १३ मई ,१९६८ तक तेहरान में(ईरान )में आयोजित हुई | इसमें सदस्य राज्यों से गुजारिश की गई  कि वे अपने यहाँ शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार बढ़ावा दे कि छात्रों में मानव अधिकार के प्रति सम्मान पैदा हो सके | पंडित  दीन दयाल का भी दर्शन था कि , "महिलाओं की शिक्षा के बिना एक सुसभ्य समाज का निर्माण असंभव है | 

नए भारत के निर्माण में चुनौतियाँ 

बर्तमान में भारत के समक्ष अनेक चुनौतियाँ है | जैसे की स्वछता की समस्या ,नदियों में प्रदुषण की समस्या ,आवास की समस्या, कुशल कामगारों की समस्या, शिक्षा और स्वास्थय की समस्या, सम्पूर्ण कम्प्यूटरीकरण का अभाव ,किसानो की समस्याएं मजदूरों की समस्याएं ,गरीबी और बेरोजगारी के समस्या आदि | उक्त चुनौतियों का सामना समाज में हर व्यक्ति द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन तथा मानव अधिकारों का सम्मान करते हुए किया जा सकता है | इसके लिए सरकार की प्रबल इच्छा शक्ति की अति आवश्यकता है | भारत में मानव अधिकारों का संरक्षण एवम संवर्धन लिए भारत के नागरिक और भारतीय संसद के पास मानव अधिकार सिद्धांतों और नियमो के रूप में औजारों की एक बृहत श्रंखला उपलब्ध है |  जिसका उचित और व्यवहारिक उपयोग कर न्यू इंडिया के परिकल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है | समय आ गया है जब हमें विचार करना होगा कि हम आने वाली पीढ़ीओं को विरासत में कैसी दुनिया सौपना चाहते हैं | 

उपसहार 

नए भारत के निर्माण में नरेंद्र मोदी संसद की उच्चत्तम क्षमताओं का सद्पयोग करना चाहते है लेकिन इसके लिए अनेक क्षेत्रों के अलावा मानव अधिकार शिक्षा के संवर्धन की दिशा में भी अनेक मुद्दे और चुनौतियाँ उपस्थित हैं जिनके निवारण के लिए  इस प्रकार के लेख की आवस्यकता को बल मिलता है | यह लेख पंडित दीन दयाल के नए भारत की परिकल्पना के भारतीय स्वरुप को मूर्तरूप प्रदान करने में मानव अधिकार सिद्धांतों का अधिकाधिक उपयोग का रास्ता प्रशस्त करने में सहायक होगा | इसके अतिरिक्त  पंडित दीन दयाल की परिकल्पना के भारतीय स्वरुप को वैश्विक आधार प्रदान करने तथा ज्ञान के यथार्थ योगदान में सहायक होगा | नए भारत की संकल्पना को सिद्धि में परिवर्तित करने के लिए भारत में मानव अधिकारों का संवर्धन अवं संरक्षण आवश्यक है | मानव अधिकारों के प्रति सम्मान की इच्छा शक्ति को बढ़ावा देकर विकसित भारत @२०४७ के लक्ष्य को प्राप्त कर आजादी के १०० वे वर्ष २०४७ तक एक विकसित भारत का सपना नए भारत के रूप  में साकार किया जा सकता है | 

सन्दर्भ श्रोत 

१. पी ऍम मोदी स्पीच एंड दी यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल समिट ,सितम्बर २५ ,२०१५ | 
२. डॉ  ऍम सी  त्रिपाठी ,आणविरोन्मेंटल लॉ ,सेंट्रल लॉ पब्लिकेशन इलाहाबाद ,उत्तर प्रदेश | 
३. ह्यूमन राइट्स एजुकेशन ,असोसिएशन ऑफ़ इंडियन यूनिवर्सिटीज ,ए आई यू  हाउस ,कोटला मार्ग नई दिल्ली |
४. ब्रजेश बाबू ,ह्यूमन राइट्स एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट ,ग्लोबल पब्लिकेशन नई दिल्ली | 
५. यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल डेवलपमेंट एजेंडा २१ ,यूनाइटेड नेशंस ऑन एनवायरनमेंट ,रिओ दे जेनेरिओ ,ब्राजील ३-१४ जून १९९२ | 
६. द  प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट ,१९९३ | 
७. विएना डेक्लरेशन एंड प्रोग्रमम ऑफ़ एक्शन ,वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस  ऑन  ह्यूमन राइट्स ,विएना ,१४-१५ जून,१९९३|  
८. मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा १९४८ | 
९.डॉ कमल कौशिक ,एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीन दयाल उपाधियाह,प्रकाशक पंडित दीन दयाल स्मृति महोत्सव समिति दीन दयाल धाम फराह, मथुरा | 
१०. डॉ कमल कौशिक ,भारत के महान दार्शनिक, पंडित दीन दयाल उपाधियाह,प्रकाशक पंडित दीन दयाल स्मृति महोत्सव समिति दीन दयाल धाम फराह, मथुरा | 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच अन्तर्सम्बन्ध -Interlinkage between Forensic Science & Human Rights(In Hindi)

Forensic Science and Human Rights

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच रिस्ते 

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच अन्तर्सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण और जटिल विषय है | फॉरेंसिक साइंस का मुख्य उद्देश्य गंभीर अपराधों की जांच कर उसकी तह तक पहुंचना है तथा आपराधिक न्याय प्रणाली के समक्ष उच्च कोटि के साक्ष्य उपलब्ध कराकर सत्य की स्थापना में न्यायालय की सहायता करना है |
दूसरी ओर मानव अधिकार वे अधिकार है जो मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति को उसके जन्म से प्राप्त है | इन अधिकारों में गरिमा,समानता,स्वतंत्रता, जीवन, सुरक्षा और सक्षम न्यायालय से न्याय की मांग करने का अधिकार    हर व्यक्ति के चहुमुखी विकास के लिए आवश्यक है | ये सभी मनुष्यों को बिना किसी मूल,वंश ,घर्म,जाति,नस्ल,रंग,भाषा,क्षेत्र, लिंग,आदि के भेदभाव के प्राप्त होते हैं। यही नहीं गरिमा का अधिकार व्यक्ति की मृत्यु या ह्त्या के उपरांत उनके शवों को भी  प्राप्त होता  है |
किसी भी देश में मानव अधिकारों का संरक्षण एक सुदृढ़ लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है | अक्सर फॉरेंसिक साइंस का उपयोग मानव अधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं से सम्बंधित जटिल तथ्यों को उजागर करने के लिए  किया जाता है | जब नियम विरुद्ध किसी व्यक्ति को किसी झूठे अपराध में फंसाया जाता है और उसे यातनाये दी जाती है या हिरासत में ही उसकी ह्त्या कर दी जाती है | ऐसी स्थति में अपराधियों के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति गवाही देने वाला सामने नहीं आता है  जिसके कारण सरकार पोषित या संरक्षण पाए व्यक्तियों के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही पहले तो प्रारम्भ नहीं होती है और यदि प्रारम्भ हो भी जाए तो साक्ष्य के अभाव में न्यायलय से दोषमुक्त हो जाते है | ऐसी स्थति में पीड़ितों के लिए फॉरेंसिक साइंस ही न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के द्वार खोलती है |
विश्व के अलग-अलग देशों में नरसंहार की कई घटनाएं इतनी भीभत्स और भयानक हुयी है कि उन घटनाओं का कोई चश्मदीद जीवित नहीं बचा, जो घटना के सम्बन्ध में परिथितिजन्य विवरण उपलब्ध करा सके | जो  जीवित बचे वे आताताईयों के भयवस अपना मुँह खोलने के लिए तैयार नहीं  थे | 
जो जीवित बचे उनके द्वारा दिए गए घटना सम्बन्धी विवरण की सत्यता की पुष्टि के बिना घटना की सच्चाई को उजागर करना अपने आप में अत्यधिक दुरूह कार्य था| इस जटिल कार्य को आसान बनाया फॉरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों द्वारा फॉरेंसिक साइंस का उपयोग करके | 
आज फॉरेंसिक साइंस में बहुत उन्नति हो चुकी है| यही कारण है कि फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से विश्व के कई देशों में मानवाधिकार उलंघन की भीभत्स आपराधिक घटनाओं का खुलासा संभव हो सका है | 
विश्वभर में फॉरेंसिक साइंस का मानव अधिकार उल्लंघन के वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के सशक्त माध्यम के रूप में उपयोग होता रहा है | कई देशों के फॉरेंसिक साइंस के वैज्ञानिकों ने मानवता के विरुद्ध अपराध के रूप में नरसंहार की घटनाओं से सम्बंधित विशेष तथ्यों को उजागर करने का काम किया है| यही नहीं आज यह विज्ञान प्रयोगशालाओं से बाहर निकलकर दूर दराज स्थित आपराधिक घटना स्थलों तक पहुंच रहा है। वर्तमान में इसके अनेक उदाहरण उपलब्ध है |  जिनमे से कुछ यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं | 
उदाहरण स्वरुप, वर्ष १९९५ में स्रेवेनिका के बोसनियन गांव में सर्वों द्वारा मारे गए बोसनियन लोगों के शवों को बरामद किया गया | उनका सावधानी पूर्वक उत्खनन और विश्लेषण के परिणाम स्वरुप सामने आये वैज्ञानिक सबूतों को साक्षियों के ब्यानो के साथ मिलाया गया |  इस घटना में  ८००० लोगों की सामूहिक हत्या हुई थी |  
उसी प्रकार वर्ष १९९० में ग्वाटेमाला कमीशन फॉर हिस्टोरिकल क्लेरिफिकेशन ने अनेकों सामूहिक कब्रों की खुदाई के आदेश दिए | अनेकों वर्ष बीतने के बावजूद पीड़ित और स्थानीय लोग जोर से यह नहीं कह सकते थे कि उनके पास ही उनके परिजनों या रिश्तेदारों के शवों को दफनाया गया था | उक्त सामूहिक कब्रों को तहसनहस  और हेरफेर करने के प्रयास किये गए | परन्तु सामूहिक कब्रों के उत्खनन के उपरान्त निकले परिणामों ने स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध कराये कि ग्वाटेमाला आर्मी ने वर्ष १९८० में अत्याचार किये थे | 
73 वर्षीय ओकलाहोमा निवासी क्लाइड स्नो दुनिया के जाने-माने फोरेंसिक मानवविज्ञानी माने जाते है | वे  आपदाओं, दुर्घटनाओं और हिंसक अपराधों में मारे गए लोगों का वैज्ञानिक विधि से परीक्षण कर घटना के पीछे छिपे रहस्यों को उजागर करते है | वर्ष १९७९ में अमेरिकन एयर लाइन्स की १९१ दुर्घटनाग्रस्त हुई जिसमे २७३ लोग मारे गए | क्लाइड स्नो ने जांच करने के लिए एक टीम बनाई जिसमे चिकित्स्कीय जांचकर्ता ,दन्त चिकित्सक तथा एक्स -रे तकनीसियन शामिल थे | दुर्घटनाग्रस्त लोगों के अवशेषों की जांच  पूरी करने के परिणामस्वरूप  २७३ लोगों में से २४४ लोगों की पहचान कर ली गयी थी सिर्फ २९ लोग ही अज्ञात बचे थे | 
यह फॉरेंसिक साइंस ही है जिसकी बदौलत मानवता के विरुद्ध गंभीरऔर भीभत्स अपराधों का खुलासा संभव हो सका है  |  
सयुंक्त राष्ट्र  संघ की सुरक्षा परिषद् ने सशस्त्र संघर्ष के दौरान लापता हुए लोगों पर ११ जून २०१९ को पहली बार प्रस्ताव पारित किया जिसमे इस बात पर चिंता जाहिर की गयी गयी कि लापता होने वाले लोगों की संख्या में कमी आने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं | 
परिषद् ने सर्व सम्मिति से संकल्प २४७४ (२०१९ ) को अपनाते हुए कहा कि संघर्ष के दोनों पक्षों को वह सभी उचित उपाय करने चाहिए जिनसे लापता लोगों की अनवरत खोज चलती रहे तथा उनके अवशेषों  की वापसी सुनिश्चित हो| दोनों पक्ष बिना किसी दुराग्रह के लापता लोगों का हिसाब दें और लापता लोगों की शीघ्र ,गहन और प्रभावी जांच सुनिश्चित हो | 
सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव में कहा गया कि  हम महान वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति से परिचित है जिससे अन्य बातों के साथ -साथ लापता लोगों की खोज और पहचान की प्रभावी विधियों में उल्लेख्नीय बृद्धि हुई है जिसमे फॉरेंसिक साइंस ,डीएनए  विश्लेषण ,उपग्रह मानचित्र और इमेजनरी ,तथा जमीन भेदने वाला रडार शामिल है | 
सुरक्षा परिषद् के उक्त प्रस्ताव में शास्त्र संघर्ष से जुड़े पक्षों से सशस्त्र संगर्ष के बाद मृतकों की तलाश करने ,उन्हें बरामद करने,उनकी पहचान करने ,दफ़न स्थलों का मानचित्र बनाने ,मृतकों के शवों का सम्मान करने करने और उचित रूप में रख रखाव का आग्रह किया गया है |  
सुरक्षा परिषद् के उक्त प्रस्ताव के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्ताव में शवों और उसके परिजनों या रिश्तेदारों के मानव अधिकारों के प्रति संघर्ष के दोनों पक्षों को सम्मान दिए जाने का आग्रह किया है साथ ही लापता, लोगों की खोज में वैज्ञानिक विधियों के रूप में फॉरेंसिक साइंस ,डीएनए  विश्लेषण ,उपग्रह मानचित्र और इमेजनरी तथा जमीन भेदने वाला रडार के उपयोग की वकालत की है |
फॉरेंसिक साइंस की बदौलत अपराधी को सजा दिलाकर पीड़ित के मानव अधिकारों को संरक्षित किया जाता है उसी तरह अभियुक्त के निर्दोष साबित होने पर अभियुक्त की स्वतंत्रता और न्याय प्राप्ति के अधिकार का संरक्षण होता है | 
अनेक मामलों में जानबूज कर की गयी आगजनी और हत्याओं को दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है लेकिन फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से की जाने वाली जांच पड़ताल से दूद का दूध और पानी का पानी हो जाता है | आगजनी या ह्त्या करने वालों का पता चल जाता है तथा पीड़ितों को फॉरेंसिक साइंस की बदौलत छतिपूर्ति संभव हो पाती है | 

शवों /मृतकों का सम्मान और उचित व्यवहार का मानव अधिकार  

विश्वभर में अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमे कब्रों में दफ़न लोगों को उत्खनन द्वारा निकाला गया और उनकी फॉरेंसिक साइंस के तहत जांच की गयी और उसके बाद उन शवों की पहचान होने पर वे उनके परिजनों और रिश्तेदारों को सौंपे गए जिससे वे अपनी रीती रिवाज के साथ उनका अंतिम संस्कार कर सके | मृत्यु या ह्त्या के बाद भी उनके शवों को सम्मान दिया जाना पीड़ितों के परिवारीजनों और रिश्तेदारों को दर्द भरा सकून देता है जिससे उन्हें भी गरिमा के अधिकार का अहसास होता है |
सर्वोच्च न्यालय की विधि व्यवस्था आश्रय अधिकार अभियान  बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, ए आई आर २००२ एस सी ५५४  में सड़क पर मरने वाले आश्रयहीन व्यक्तियों के अदावाकृत  शवों को उनके धर्म के अनुसार रीति रिवाज  से अंतिम संस्कार के अधिकार को स्थापित किया गया है | 
फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों के बीच अंतर्रसम्बन्धों के बारे में जानकर आप आश्चर्यचकित होंगे कि स्पेन में हिंसा के इतिहास को चुनौती देने के लिए एक बहुत व्यापक फॉरेंसिक साइंस -आधारित मानवाधिकार आंदोलन खड़ा हो गया | इस आंदोलन के उद्देश्यों में परिवार के मारे गए या लापता परिजनों को खोजने,उन्हें वापस लाने और उनको पुनः दफनाने में सहायता करना और राज्य के अत्याचारों और नरसंहार के समय घटित घटनायों को वैज्ञानिक तथ्यों से पुष्ट करना शामिल था | 
सही मायने में यह एक अधिकार आधारित वैज्ञानिक आंदोलन था जो कि अतीत की हिंसक और भीभत्स कहानियों को उजागर करने पर आधारित था | इस आंदोलन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए अवशेषों को प्राप्त करना और विज्ञान के सुस्थापित सिद्धांतों का उपयोग सुनिश्चित कर उनकी पहचान कराना था | यह अत्यधिक दुरूह कार्य था | शव परीक्षण भी फॉरेंसिक साइंस का एक विषय है | 
इस आंदोलन की खास  बात यह थी कि इस आंदोलन में फॉरेंसिक साइंस अर्थात विज्ञान को परिवारों के मानव अधिकारों की प्राप्ति का एक सशक्त माध्यम बनाया गया | जिसकी की बदौलत अर्जेंटीना में डीएनए परीक्षण से कम से कम 130 लापता बच्चों की पहचान संभव हो सकी
जिन परिवारों से उनके परिजन लापता होते हैं उनके पता न लगने तक परिवारीजन हमेशा शोक में डूबे रहते हैं  और उनके मिलने का इंतज़ार ख़त्म नहीं होता है | इस दौरान परिवारीजन अपने प्रियजनों का अपनी आस्था और परम्पराओं के अनुसार अंतिम संस्कार के अधिकार से वंचित रहते हैं और उनके इस इन्तजार को अनेकों मामलों में समाप्त किया है फॉरेंसिक साइंस के उपयोग ने | 
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विधि व्यवस्था पंडित परमानंद कतरा बनाम भारत संघ ,१९९५ (३)एस सी सी २४८ में स्थापित किया है कि,"भारत के संविधान के अनुछेद २१ के तहत सम्मान और उचित व्यवहार का अधिकार न सिर्फ जीवित व्यक्ति को है बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर को भी उपलब्ध है |"
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था रामजी सिंह मुजीब भाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य ,(२००९)५ एआईआईऐलजे ३७६  में  माना गया कि भारत के संविधान के अनुछेद २१ में "व्यक्ति" शब्द में एक मृत व्यक्ति भी समाहित है और सम्मान के साथ जीवन के अधिकार का विस्तार इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसमे उसके मृत शरीर को भी उसकी परंपरा,संस्कृति और धर्म के अनुसार सम्मान दिया जाए, जिसका वह हकदार होता है तथा समाज को मृतक के प्रति किसी प्रकार का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है | 
भारत के राष्ट्रीय विधायन और विधि व्यवस्थायों  में ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ,संकल्प २००५ /२६ ,१९ अप्रैल २००५ , में मानव अधिकार और फॉरेंसिक विज्ञानं पर एक प्रस्ताव में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने "मानव अवशेषों के सम्मानजनक तरीके से निपटाने के महत्व, जिसमे उनका उचित प्रबन्धन और निपटारा शामिल है, तथा साथ ही परिवारों की आवश्यकताओं के प्रति सम्मान" को रेखांकित किया गया है |  
उपरोक्त से स्पष्ट है कि न सिर्फ जीवित व्यक्ति को गरिमा का अधिकार प्राप्त है बल्कि मृत शरीर को भी जीवित व्यक्ति के सामान गरिमा का अधिकार प्राप्त है |    

फोरेंसिक साइंस  का तात्पर्य एवम क्षेत्र 

फोरेंसिक साइंस की आधुनिक और उत्कृष्ट परिभाषा के अनुसार कानूनी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उपयोग में लाए जाने वाला कोई भी विज्ञान फोरेंसिक विज्ञान है। फॉरेंसिक साइंस या न्यायालयीय विज्ञान मुख्य रूप से किसी आपराधिक घटना या अपराध की जांच तथा उसका विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक सिद्धांतों औरअत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग से संबंधित है। फॉरेंसिक वैज्ञानिक अपराध स्थल से एकत्र किए गए सबूतों/सुरागों को अदालत में प्रस्तुत करने के वास्ते ग्राहीय साक्ष्य के तौर पर इन्हें परिवर्तित करने का प्रयास करता है।
अर्थात यह विज्ञान आपराधिक घटनाओं की जांच में वैज्ञानिक  विधियों का उपयोग करता है | जिससे आपराधिक घटना से सम्बंधित तथ्यों की पुष्टि सटीकता के साथ हो सके | एक फॉरेंसिक साइंटिस्ट किसी प्रकरण से सम्बंधित जटिल तथ्यों की उपस्थिति के बाबजूद एक निश्चित सटीकता के साथ उसके समक्ष आने वाले  प्रश्नो का उत्तर दे सकता हैं | यह विज्ञान आपराधिक न्याय व्यवस्था में समाज और मानवता के विरुद्ध होने वाले जघन्य अपराधों में अत्यधिक सटीक और ग्राहीय  साक्ष्य उपलब्ध करती है | इस विज्ञान का मूलमंत्र है सत्य की खोज करना | 
समाज में अनेक आपराधिक घटनाएं ऐसी होती है जो किसी की उपस्थिति में नहीं होते हैं अर्थात जिसके कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं होते है | ऐसी स्तिथि में अपराधी को पहचान कर घटना से सटीकता से जोड़ना तथा अपराधी को सजा दिलवाना सम्पूर्ण आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए कोई आसान कार्य नहीं होता है | बस यही वह स्थति होती है जहाँ आपराधिक न्याय व्यवस्था का ध्यान फॉरेंसिक साइंस की ओर जाता है |
फॉरेंसिक विज्ञान के तहत घटना स्थल पर मौजूद सुबूतों ,जैसे कि मृतक का शव,खून के धब्बे,वीर्य,नाखून,बाल,अन्य वस्तुएं,अँगुलियों के निशान,हतियार तथा शरीर पर लगे गोलियों के निशान तथा उन पर लगा गन पाउडर आदि,  के अतिरिक्त अन्य शारीरिक, रासायनिक और जैविक तथ्यों का संकलन किया जाता है और आवश्यकता अनुसार प्रयोगशाला में उन नमूनों का उपयोग किया जाता है | जिसके परिणाम स्वरुप विश्लेषण के आधार पर सटीक जानकारी, तथ्यों औरअपराधियों की पहचान की जाती है | 
न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के लिए किसी आपराधिक घटना या दुर्घटना के तथ्यों के सम्बन्ध में सटीकता, पारदर्शिता और निष्पक्षतापूर्ण जानकारी का होना आवश्यक है और यह जानकारी एकत्रित होती है फोरेंसिक साइंस में उपलब्ध उन्नत तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग से |
इस विज्ञान का मुख्य उद्देश्य न केवल दोषियों को सजा दिलाना है बल्कि बल्कि निर्दोष व्यक्तियों को उनके विरुद्ध हो रहे अन्याय से बचाना भी है | न्यायालय में इन साक्ष्यों के स्वीकार किये जाने योग्य होने पर अपराध के दोषी को सजा मुकर्रर होती है या निर्दोष होने की स्तिथि में बाइज्जत मुक्त कर दिया जाता है | 
साक्ष्य विहीन मुकद्द्मों में न्यायालय का निर्णय मुख्य्तया फॉरेंसिक साइंस द्वारा इकट्ठे किये गए सबूत के सम्बन्ध में निकाले गए निष्कर्षों पर ही निर्भर करता है | इस विज्ञान द्वारा न्यायालय को किसी अपराध के सम्बन्ध में सटीक जानकारी मिलती है जो आपराधिक न्याय व्यवस्था को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाती है खासकर जब न्यायालय के समक्ष अँधा मामला होता है| अर्थात मामले में निर्णय लेने के लिए किसी प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते है लेकिन सबूत के रूप में वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध होने की सम्भावनाये होती हैं |इससे वर्तमान न्याय प्रणाली में फॉरेंसिक साइंस की भूमिका का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है | 
फोरेंसिक साइंस का विस्तार आज बहुत व्यापक तथा एक बहु-विषयक क्षेत्र के रूप में हो चुका है। वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों के चलते आये दिन इस क्षेत्र में व्यापक विस्तार हो रहा है | फोरेंसिक विज्ञान में फिंगरप्रिंट से लेकर फोरेंसिक मनोविज्ञान, फोरेंसिक नृविज्ञान, फोरेंसिक ओडोन्टोलॉजी, फोरेंसिक पैथोलॉजी, फोरेंसिक जीवविज्ञान और सीरोलॉजी,फोरेंसिक रसायन विज्ञान, फोरेंसिक भौतिकी, फोरेंसिक कीट विज्ञान, विष विज्ञान, डीएनए विश्लेषण, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग, डिजिटल फोरेंसिक, फोरेंसिक इंजीनियरिंग, फोरेंसिक बैलिस्टिक, फोरेंसिक अकाउंटिंग, प्रश्नगत दस्तावेज, फोरेंसिक पोडियाट्री, फोरेंसिक भाषाविज्ञान और वन्यजीव फोरेंसिक तक कई तरह के विषय शामिल हैं जो उसके बहु-विषयक होने की स्पष्ट गवाही देते हैं | 

न्यायालय में फॉरेंसिक साक्ष्य का महत्त्व 

फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से संकलित सबूतों के सम्बन्ध में यह आवश्यक नहीं कि न्यायालय हर मामले में उन्हें साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर ले | यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर होता है कि फॉरेंसिक साइंस के द्वारा किसी घटना के सम्बन्ध में जांच के नतीजों को स्वीकार करे या ना करे | 
यदि फॉरेंसिक साइंस के नतीजों को किसी न्यायालय द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह न्यायालय के समक्ष उपस्थित प्रकरण में साक्ष्य का रूप धारण कर लेता है तथा वह न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले निर्णय का आधार बनता है | 
यद्यपि १ जुलाई २०२४ से पहले फॉरेंसिक साइंस के तहत संग्रह किये गए सबूत भारतीय साक्ष्य अधिनियम,१८७२ की धरा ४५ के अधीन विशेषज्ञ की राय के तहत आते थे परन्तु उक्त अधिनियम के समाप्त किये जाने के बाद लाये गए नए भारतीय साक्ष्य अधिनियम,२०२३ की धरा ३९ में भी विशेषज्ञ की राय को सम्मिलित किया गया है | 
फॉरेंसिक साइंस के सबूत स्वतः ही साक्ष्य का रूप धारण नहीं करते हैं बल्कि उन सबूतों के सम्बन्ध में उस फॉरेंसिक साइंस विशेषज्ञ की जिसने सबूतों का संकलन या उनकी प्राप्ति के के बाद वैज्ञानिक विश्लेषण किया है उसकी मुख्य-परीक्षा और प्रति-परीक्षा के बाद ही वे सबूत साक्ष्य में बदलते है अन्यथा की स्थति में उस फॉरेंसिक साइंस के सबूत का भी कोई महत्त्व नहीं होता है |
ऐसी अपराधिक घटनाओं, जिनके सम्बन्ध में चच्छुदर्शी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते है, वहां अपराधियों को सजा दिलाने या निर्दोषों को दोषमुक्त करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अलावा एक मात्र विकल्प के रूप में फॉरेंसिक साइंस का महत्त्व अत्यधिक बढ़ जाता है | क्यों कि कानूनी प्रक्रिया में भौतिक साक्ष्य अत्यधिक महत्व के होते हैं  साक्षी की तुलना में भौतिक साक्ष्य में हेरफेर करना मुश्किल होता है तथा ये साक्ष्य अत्यधिक भरोसेमंद, प्रमाणिक तथा वैज्ञानिक समुदाय द्वारा स्वीकृति प्राप्त होते है |
न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के लिए किसी आपराधिक घटना या दुर्घटना के तथ्यों के सम्बन्ध में सटीकता, पारदर्शिता और निष्पक्षतापूर्ण जानकारी का होना आवश्यक है और यह जानकारी एकत्रित होती है फोरेंसिक साइंस में उपलब्ध उन्नत तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग से, जो किसी भी न्यायालय में किसी प्रकरण में निर्णय और आदेश देने के लिए आवश्यक है |  

फोरेंसिक साइंस का भारतीय परिदृश्य 

वर्तमान समय में न्याय प्रणाली में आये दिन अनेक आमूलचूक परिवर्तन हो रहे हैं | जिसके कारण भारत में अपराधों की जांच प्रक्रिया के दौरान साक्ष्य संकलन में फॉरेंसिक साइंस की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी है | फॉरेंसिक साइंस को हिंदी भाषा में न्यायिक या न्यायालयिक विज्ञान भी कहा जाता है | यह विज्ञानं किसी आपराधिक घटना की तह तक जाने का अवसर प्रदान करती है | 
भारतीय न्याय व्यवस्था में फोरेंसिक विज्ञान का उपयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872  के लागू होने के साथ ही  शुरू हो गया था। इस अधिनियम ने भारतीय न्यायालयों में वैज्ञानिक साक्ष्य की ग्राहीयता को मान्यता प्रदान की। आपराधिक जांचपड़ताल में वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग के बढ़ने के साथ ही भारत में फोरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या में इजाफा हुया है लेकिन न्यायालयों में लंबित मुकदद्मों की तुलना में अभी भी फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और  फॉरेंसिक विज्ञान में में कुशल मानव संसाधन की अत्यधिक कमी है | 
इस बात की तस्दीक होती है फॉरेंसिक साइंस पर नयी दिल्ली में आयोजित एक वेबिनार से | अगस्त, २०२० में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,इंडिया द्वारा भारत में फॉरेंसिक साइंस  की स्थापना और सम्बंधित मुद्दों पर आयोजित वेबिनार की समाप्ति इस निष्कर्ष के साथ हुई कि भारत में फॉरेंसिक लैब्स और उनके सञ्चालन के लिए पर्याप्त संख्या में मानव संसाधन की कमी है | 
केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने, वर्ष २०२३ में गुजरात के गाँधीनगर में राष्ट्रीय फॉरेंसिक विज्ञानं विश्वविद्यालय (NFSU) के ५ वे अंतर्राष्ट्रीय अपराध विज्ञान सम्मलेन को सम्बोधित करते हुए कहा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसी व्यवस्था की गयी है कि ५ वर्षों के बाद देश को हर वर्ष ९ हजार से अधिक वैज्ञानिक अधिकारी और फॉरेंसिक विज्ञान विशेषज्ञ मिलेंगे |  
लेखक उक्त वेबिनार में आये सुझावों में से एक महत्वपूर्ण सुझाव को पाठकों के साथ साझा कर रहा है और यह सुझाव था एकीकृत बीएससी (फॉरेंसिक) एलएलबी में एक अलग पाठ्यक्रम के रूप में फॉरेंसिक क़ानून की पढ़ाई शरू करना | इस सुझाव पर अमल करते हुए उत्तर प्रदेश स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉरेंसिक साइंस (UPSIFS) के संस्थापक निदेशक डॉ जी के गोस्वामी, (IPS) ने इंस्टिट्यूट में एकीकृत बीएससी (फॉरेंसिक) एलएलबी (ऑनर्स) का पाठ्यक्रम भारत में संभवतः सर्वप्रथम प्रारम्भ कराकर न्याय और मानव अधिकार संरक्षरण की दिशा में मानव अधिकार आयोग की अनुसंसा का अनुसरण किया है |
फॉरेंसिक विज्ञान में डीएनए फिंगरप्रिंट के महत्त्व को समझते हुए एनडीए सरकार द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग और अनुप्रयोग)विनियम विधेयक,२०१९ को लाया गया लेकिन बाद में इसे वापस ले लिया गया है |  
कानून के क्षेत्र में आपराधिक न्याय प्रणाली की वर्तमानआवश्यकताओं को देकते हुए भारत में मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता, १८६० ,दंड प्रक्रिया संहिता ,१९७३ ,और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,१८७२ को समाप्त कर दिया है | इनके स्थान पर नए सिरे से क्रमशः तीन नए कानूनों भारतीय न्याय संहिता,२०२३,भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ,२०२३ तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम,२०२३ को भारतीय संसद द्वारा पास करा कर १ जुलाई, २०२४ से लागू कर दिया गया है | 
कहना न होगा कि आपराधिक न्याय व्यवस्था की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रकते हुए उसको अधिक गतिशील ,सुदृढ़ और पारदर्शी बनाने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ में आमूलचूक परिवर्तन किया गया है |इस परिवर्तन के तहत अधिनियम की धारा १७६(३) के तहत एक नया प्रावधान लाया गया है|  यह प्रावधान स्पष्ट करता है कि,
            "किसी ऐसे अपराध के जो सात वर्ष या अधिक के लिए दंडनीय बनाया गया है ,के होने से सम्बंधित पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी को कोई सूचना प्राप्त होती है तो अपराध में कारणों का पता लगाने के लिए न्याय सम्बन्धी दल को न्याय सम्बन्धी साक्ष्य संग्रह करने के लिए अपराध स्थल पर भेज सकेगा और कार्यवाही की वीडियो भी किसी इलेक्ट्रॉनिक साधन से बनाएगा जिसमे मोबाइल फोन भी शामिल है | " 
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ के उक्त प्रावधान के अवलोकन से प्रतीत होता है  कि सरकार द्वारा न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए उपचार के रूप में फॉरेंसिक विज्ञान पर बहुत बल दिया जा रहा  है | 
यद्धपि वर्तमान में फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं में पहले से ही अनेक मामले जांच की राह टोह रहे हैं | इन प्रयोगशालाओं में जांच के लिए भेजे गए नमूनों की समय से जांच न होने तथा उसके न्यायालय के समक्ष उपलब्ध न होने के कारण अनेक आपराधिक मुकदद्मे के निस्तारण में अत्यधिक विलम्ब होता है | जिसके कारण न्यायालयों पर भी अत्यधिक बोझ बढ़ता है | 

फॉरेंसिक साइंस पर न्यायिक दृष्टिकोण 

भारत में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने फॉरेंसिक साइंस के अलग -अलग विषयों पर न्यायिक दृष्टिकोण के रूप में अनेक विधि व्यवस्थाएँ दी है | जिनमे से कुछ महत्वपूर्ण विधि व्यवस्थायों का इस लेख में वर्णन किया जा रहा है | 
सर्वोच्च न्यालय की विधि व्यवस्था उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम सुनील और अन्य ,एआईआर २०१७ एस सी २१५० में स्थापित किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को साक्ष्य के समर्थन के लिए फुटप्रिंट देने के लिए आदेशित किया जा सकता है किन्तु ये भारतीय संविधान के अनुछेद २०(३) के अधीन संरक्षण की गारंटी का उलंघन नहीं माना जाएगा |  
सर्वोच्च न्यायालय के केस लॉ एच पी एडमिनिस्ट्रेशन बनाम ओम प्रकाश, एआईआर १९७२ एस सी ९७५ में माननीय न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया है कि "फिंगरप्रिंट विज्ञान एकदम सही विज्ञान है |"  
सर्वोच्च न्यालय  द्वारा दिए गए एक निर्णय जसपाल सिंह बनाम राज्य ,एआईआर १९७९  एस सी १७०८  में माननीय न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया है कि "फिंगरप्रिंग पहचान का विज्ञान किसी गलती एवम संदेह को नहीं स्वीकार करता है |" 
विधि व्यवस्था रामा सुब्रमण्यम बनाम केरला राज्य ,एआईआर २००६ एससी ६३९ में मृतक के बैडरूम में रखी अलमारी पर अभियुक्त की उँगलियों के चिन्ह पाए गए तथा उसके बाल मृतका की साड़ी और कच्छी पर पाए गए | इस प्रकरण में न्यायालय ने अभियुक्त को ह्त्या का दोषी पाया | 
सर्वोच्च न्यालय द्वारा निर्मित विधि फूल कुमार बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन, (१९७५ )१ एससीसी ७९७ में एक डकैती के दौरान छुए गए कैशबुक के कुंडे पर अभियक्त के अंगूठे के निशान पाए गए जिन्हे विशेषज्ञ की सहायता से न्यायालय में सिद्ध किया गया | इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वाराअभियुक्त की सजा को बरकरार रखा गया | इस विधि व्यवस्था से फॉरेंसिक साइंस के सम्बन्ध में अवर न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट होता है | 
आसाम राज्य बनाम यू एन रालखोवा ,१९७५ सी आर एल जे ३५४ के प्रकरण में अभियुक्त द्वारा अपनी पत्नी और तीन पुत्रियों की ह्त्या कर दी थी और उनके शवों को १० फरवरी १९७० रात्रि में जला दिया गया | अगले दिन पुलिस द्वारा उनके शवों को कब्जे में ले लिया गया | अभुक्त के विरुद्ध ह्त्या करने का आरोप लगा | अवशेषों के कंकाल का परीक्षण किया गया | जिमे उनकी खोपड़ी और फोटो का मिलान किया गया | जिसमे पाया गया कि ४ कंकाल उसकी पत्नी और पुत्रियों के थे| उक्त आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया | 
मुकेश एवम अन्य बनाम स्टेट एनसीटी ऑफ़ दिल्ली अवं अन्य ,ए आई आर २०१७ एस सी २१६१ , जिसे निर्भया केस के नाम से भी जाना जाता है | भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बलात्कार की घटना घटित हुई | पीड़िता के शरीर पर आए दाँतों से काटने के निशानों ने अपराधी को पहचानने के लिए महत्वपूर्ण सुराग दिए | इन सुरागों के तहत पीड़िता को दाँतों से आई चोटों के फोटो लिए गए साथ ही पांच अभियुक्तों के दाँतों के पैटर्न लिए गए |
उक्त दोनों के मिलान के विश्लेषण से आये परिणामो से स्पष्ट हुया कि पांच अभियुक्तों में से पीड़िता को दाँत से काटकर चोट पहुंचाने वाला अभियुक्त राम सिंह था | इस प्रकरण में भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,१९७२ की धरा ४५ के अधीन विशेषज्ञ की राय माननीय न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी | 
विश्वभर में फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों के उपयोग से संकलित किये गए सबूतों के आधार पर न्यायालयों द्वारा अनगिनत आपराधिक प्रकरणों में निर्णय दिए गए हैं | जनके आधार पर न सिर्फ पीड़ितों को न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण हुया है बल्कि अनेक  अभियुक्तों को झूठे प्रकरणों में दोषमुक्त घोषित किये जाने से उनको न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण संभव हो सका है |  

निष्कर्ष 

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं। फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों का मेल एकीकृत और समग्र आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए आवश्यक है | फॉरेंसिक साइंस  का सही और सटीक तरीके से उपयोग किया जाए तो यह विधा परिस्थिति अनुसार अपराध के पीड़ितों और अभियुक्तों दोनों को न्याय दिलने और मानव अधिकारों की रक्षा में सहायता करती है। जब आपराधिक न्याय व्यवस्था फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों का पालन करते हुए संकलित किये गए सही सबूतों के आधार पर निर्णय लेती है, तो यह न्याय और मानव अधिकारों की सुरक्षा में अत्यधिक सहायक होती है।
फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों के एकीकृत आंदोलनों और मिशनों ने  विश्व के अनेक देशों में फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों का उपयोग करके मानव अधिकार उलंघन से पीड़ित असंख्य  लोगों  के आँसू  पौछे है तथा उन्हें न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण  कराया है  
फॉरेंसिक विज्ञान के माध्यम से संकलित सबूतों का साक्ष्य के रूप में सही समय तथा सही उपयोग करके न्यायालय की प्रक्रिया में तेजी लाकर समय से मुकदद्मों का निपटारा किया जा सकता है | जिससे न्याय जल्दी सुलभ हो सकता है  | क्योंकि न्याय में देरी न्याय से इंकार के सामान होता है | 
फॉरेंसिक साइंस का बिना किसी दुराग्रह के सही और निष्पक्ष उपयोग मानव अधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। इसलिए, एक स्वस्थ्य और मजबूत लोकतंत्र बनाये रखने के लिए आपराधिक न्याय व्यवस्था में मानव अधिकार पहुंच के सिद्धांत के तहत फॉरेंसिक साइंस का उपयोग करते समय मानव अधिकारों का सम्मान,संरक्षण और पूर्ति किया जाना आवश्यक और प्रथम शर्त है | 
विशेष रूप से भारतीय सन्दर्भ में उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ की धारा १७६(३) के तहत फॉरेंसिक साइंस के लिए पर्याप्त मूलभूत ढांचा, जिसमे उसके उपयोग हेतु कुशल मानव संसाधन का निर्माण और पूर्ति शामिल है, की जल्द से जल्द पुख्ता व्यवस्था को कागजो से उतार कर अभ्यासिक रूप प्रदान किया जाएगा |  








 
 



शनिवार, 25 मई 2024

Free Legal Aid and Human Rights in Hindi - निःशुल्क विधिक सेवाऐं और मानव अधिकार -संपूर्ण जानकारी

Free Legal Aid and Human Rights
























विधिक सहायता का सम्पूर्ण ढांचा मानव अधिकार,नैसर्गिक न्याय और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की बुनियाद परखड़ा है | कानूनी प्रक्रिया के चुंगल में फँसे प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए तथा कोई भी व्यक्ति अनसुना नहीं रहना चाहिए, इसी सिद्धांत का पोषण विधिक सहायता और निःशुल्क विधिक सहायता करते हैं | भारतीय संविधान के तहत सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करते हुए गरीबों और कमजोरों के लिए निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था की गयी है इसके साथ ही राज्य को उत्तरदायी बनाया गया है कि वह सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराएं | इसी अनुक्रम में विधिक सेवाएं प्रदान करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ पास किया गया | 

विश्वभर में व्यक्तियों और समूहों के मानव अधिकारों का संवर्धन एवम संरक्षण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक  ऐतिहासिक दस्तावेज तैयार कराया, जिसे मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के नाम से जाना जाता है तथा इसे १० दिसम्बर १९४८ को स्वीकृत और अंगीकृत किया गया | यह दस्तावेज उन मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं का समावेश करता है जो सभी व्यक्तियों और समूहों को बिना किसी जाती,मूलवंस , लिंग ,धर्म या किसी संस्कृति या अन्य किसी स्तिथि के प्राप्त होते हैं | 

यह मानव अधिकार दस्तावेज घोषणा करता है कि सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा और अधिकारों में सामान हैं | ये विश्वभर में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में उपयोग किये जाते है | उक्त सिद्धांत सभी के लिए न्याय,न्यायसंगत और समावेशी समाज की आधारशिला रखते है | यह सभी देशों और उनके यहां विधि के साशन के लिए आवश्यक हैं कि  वे अपने -अपने यहाँ मानव अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण को सुनिश्चित करें |जिसके लिए उनके द्वारा मानव अधिकार सिद्धांतों का सम्मान आवश्यक है | 

भारत में विधिक सहायता और निःशुल्क विधिक सहायता के प्रावधानों का किया जाना तथा उनका समुचित क्रियान्वयन अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों के सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण  कदम हैं | 

विधिक सहायताऔर निःशुल्क विधिक सहायता से तात्पर्य  ऐसी सहयता से है जिसकी  आवश्यकता वाद दाखिल करने वाले या  अभियुक्त  को न्यायलय के समक्ष अपना पक्ष रकने के लिए पड़ती है लेकिन आर्थिक तंगी के चलते या किसी अन्य कारण से अपना पक्ष न्यायलय के समक्ष रखने में असमर्थ होता है, ऐसी स्तिथि में सरकार द्वारा उसे  विधि अनुसार विधिक सहायता या निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराये जाने का प्रावधान है|  गरीबी या अन्य किसी निर्योग्यता के कारण व्यक्ति की न्याय तक पहुंच न हो सके तो विधि के समक्ष समता और विधि का सामान संरक्षण का कोई महत्त्व नहीं है जो कि विधि के साशन के लिए आवश्यक है | 

लश्कर -ए -तैयबा के १० पाकिस्तानी आतंकियों ने जिसमे अजमल आमिर कसाब  भी था, समुंद्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर २६ नवंबर २००८ को मुंबई में कई जगह आतंकी हमलों को अंजाम दिया था | इन हमलों में कई विदेसी  नागरिकों सहित १५० से अधिक लोगों की जान गयी थी | कसाब को मुंबई की अदालत ने दोषी करार देते हुए  फाँसी की सजा सुनाई | 

यह मुकद्दमा सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा वहां भी सजा को बरक़रार रखा गया | भारतीय न्याय व्यवस्था में विधिक सहयता के प्रावधान के तहत उसे आतंकवादी होने के बाबजूद विधिक सहायता उपलब्ध कराई गयी | आतंकी कसाब को ट्रायल कोर्ट में उसका केस लड़ने के लिए एक स्वतंत्र  वकील उपलब्ध कराया गया था | निष्पक्ष सुनवाई के लिए यह व्यवस्था की गयी थी | 

सामान्य अर्थों में मानव अधिकार वे मूलभूत अधिकार है जो व्यक्तियों को स्वतः उनके मानव मात्र होने के नाते उन्हें प्राप्त होते हैं | सयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार सयुक्त राष्ट्र  के लोग  यह विस्वास करते है कि कुछ ऐसे मानव अधिकार हैं जो  कभी छीने नहीं जा सकते हैं | 

सयुंक्त राष्ट्र के अनुसार मानवाधिकार सभी मनुष्यों में निहित अधिकार हैं, चाहे उनकी जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता, भाषा, धर्म या कोई अन्य स्थिति कुछ भी हो। मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार और बहुत कुछ शामिल हैं। बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकारों का हकदार है। 

मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८ में मानव अधिकारों की एक विस्तृत शृंखला का व्यक्ति के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख  मिलता है लेकिन विशेष समूहों के सन्दर्भ में नहीं | समय की मांग के अनुरूप विविध समूहों के अधिकारों को भी सयुक्त राष्ट्र ने अपने एजेंडा में शामिल करते हुए महिलाओं,बच्चों,विकलांग व्यक्तियों, अल्पसंख्यकों, विभिन्न यौनिकता वाले व्यक्तियों और अन्य कमजोर समूहों के लिए विशिष्ट मानकों को शामिल कर धीरे -धीरे मानव अधिकार कानूनों का विस्तार किया है | कई समाजों में  लम्बे समय से  विभिन्न रूपों में  भेदभाव झेलना आम बात थी लेकिन अब उनके पास ऐसे अधिकार है जो उन्हें भेदभाव से बचाने में समर्थ हैं | 

विधिक सहायता पाने में आर्थिक अक्षमता या किसी अन्य निर्योग्यता के चलते न्याय तक पहुंच को सुगम बनाने में  संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विस्तारित मानव अधिकार अत्यधिक उपयोगी साबित हो रहे हैं | 

मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८ में विधिक सहायता की उपलब्धता  से सुसंगत मानव अधिकारों का विवरण दिया गया है जो निम्न प्रकार है;

१.घोषणा के अनुछेद ७ के अनुसार क़ानून की निगाह में सभी सामान हैं और सभी बिना भेदभाव के कानूनी सुरक्षा के अधिकारी है यदि इस घोषणा का अतिक्रमण करके कोई भी भेदभाव किया जाए,उस प्रकार के भेदभाव को किसी प्रकार से उकसाया जाए,तो उसके विरुद्ध सामान संरक्षण का अधिकार सभी को प्राप्त है| 

२.घोषणा के अनुछेद ८ में स्थापित किया गया है कि सभी को संविधान या क़ानून द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरुद्ध समुचित राष्ट्रीय अदालतों की कारगर सहायता पाने का हक है | 

३.इसी घोषणा का अनुछेद १० स्पष्ट करता है कि सभी को पूर्णतः और सामान रूप से हक़ है कि उनके अधिकारों और कर्तव्यों के निश्चय करने के मामले में और उनपर आरोपित फौजदारी में किसी मामले में उनकी सुनवाई न्यायोचित  और सार्वजानिक रूप से निरपेक्ष  एवम निष्पक्ष अदालत द्वारा की जाएगी | 

४.घोषणा के अनुछेद २८ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानव अधिकार को समाहित करते हुए इंगित किया है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतराष्ट्रीय व्यवस्था प्राप्ति का अधिकार है जसमे इस घोषणा में उल्लिखित अधिकारों और  स्वतंत्रताओं को पूर्णतः प्राप्त किया जा सकता सके |

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष २०१३ में  आपराधिक न्यायिक प्रणालियों में कानूनी सहायता तक पहुंच पर सयुक्त राष्ट्र सिद्धांत और दिशानिर्देश  जारी किये जिनका उपयोग सदस्य देश अपने यहाँ मार्गदर्शक के रूप में कर सकते हैं | जिन्हे राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार लागू किया जाना चाहिए |  

स्वत्रंत्रा प्राप्ति के बाद भारत विश्व में सबसे बड़े लोक तंत्र के रूप में स्थापित हुआ तथा देश में साशन व्यवस्था  का सञ्चालन करने के लिए लिखित संविधान स्वीकृत एवम अंगीकृत किया गया | स्वंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय समाज में  सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक विषमता के जड़ें बहुत गहरी थी | जिन्हे पाटने के लिए संविधान में मूल अधिकारों और  राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की व्यवस्था  की गयी | जिससे स्पष्ट है की भारतीय संविधान के तहत कल्याणकारी राज्य की अवरधारणा को मान्यता प्रदान की गयी,जो कि समाज में व्याप्त  विविध प्रकार की विषमताओं को समाप्त करने पर बल देता है | परिणाम स्वरुप संविधान में कमजोर और शोषित वर्गों के कल्याण के लिए प्रावधान किये गए | 

वर्तमान में भी अखबारों और न्यूज़ चैनल के माध्यम से  समाज में  कमजोर और शोषित वर्गों के विरुद्ध हिंसा,शोषण और अतियाचार की घटनाएं पढ़ने और देखने को मिलती हैं अर्थात आज भी समाज में अनेक लोग ऐसे हैं जो हिंसा,अत्याचार और शोषण की स्तिथि में अपनी ओर से वाद दायर करने या फौजदारी वाद में अपना बचाव करने में असमर्थ होते हैं जिससे न्याय तक उनकी पहुंच न होने से उन्हें न्याय से वंचित रहने को विवश होना पड़ता है |

उक्त स्तिथि में उनके मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के किये सामाजिक,आर्थिक और प्रशासनिक सहयोग की आवश्यकता होती है | इस आवश्यकता की पूर्ती हेतु अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों के तहत भारत में निर्मित और स्वीकृत विधि में प्रावधान किये गए है जिनका उपयोग करके सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर और असहाय  वर्ग सरकार की ओर  से विधिक सहायता प्राप्त कर सकते हैं | कुछ स्तिथियों में यह विधिक सहायता निःशुल्क भी उपलब्ध होती है | 

सामान्य अर्थ में विधिक सहायता का उद्देश्य न्याय तक सभी लोगों की पहुंच और जागरूकता से है | अन्य शब्दों में कहे तो विधिक सहायता का उद्देश्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति के मानव अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण हो सके और अन्याय ,हिंसा और शोषण से मुक्ति हो सके | विधिक सहायता राज्य द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए प्रदान की जाती है कि कोई व्यक्ति किसी अक्षमता  जैसे गरीबी ,अशिक्षा आदि  के कारण न्याय से वंचित न रहे |  इसके कारण गरीब ,कमजोर वर्ग की न्याय तक पहुंच आसान हो जाती है | विधिक सहायता कार्यक्रमों के माध्यम से गरीब,वंचित और शोषित वर्ग आसानी से अपने अधिकारों और कर्तव्यों को के बारे में जान पाते हैं और उनको प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं अर्थात विधिक सहायता का उद्देश्य समानता पर आधारित न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज की रचना करना है जिसमे अन्याय से कम से कम लोग प्रभावित हों | 

भारतीय संविधान के मूल अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों में  क्रमशः अनुछेद १४ ,अनुछेद २२(१) और अनुछेद ३९क  में क्रमशः विधि के समक्ष समता, अपनी रूचि के विधि व्यवसायी  से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार तथा  समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रावधान दिए गए हैं |  

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में अनुछेद ३९क, समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रावधानों से सम्बंधित है | यह कहता है कि "राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि सामान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो,और वह विशिष्ट्तया,यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए,उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की वियास्था करेगा |" अर्थात सभी के लिए समान न्याय अवं निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था राज्य सरकार करेगी। 

चूकि नीति निर्देशक तत्व सरकार के लिए सुशासन और कल्याणकारी नीतियों के निर्माण में मूलभूत सिद्धांतों को आत्मसात करने हेतु दिशा निर्देशक के रूप में कार्य करते है | इस लिए एक प्रकार से ये प्रावधान सरकार पर एक प्रतिबद्धता अधिरोपित करते है | सामान अवसर के आधार पर यह सुनिश्चित होता है कि आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के आधार पर कोई भी नागरिक न्याय पाने के अवसरों से वंचित न हों |  

भारतीय संविधान का अनुछेद १४ प्रावधान करता है कि "भारत राज्य क्षेत्र में किसी वियक्ति की विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा | "इस अनुछेद की शब्दावली भारत के सभी नागरिकों और व्यक्तियों को  सामान अधिकार और अवसर प्रदान करती है तथा उनका  हर प्रकार के विभेद से संरक्षण करती है | 

भारतीय संविधान का अनुछेद २२(१) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रूचि के विधि व्यवसायी  से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार प्रदान करता है | 

अनुछेद २१ के अनुसार " किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं |" उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुछेद २१ की  व्यापक सन्दर्भों में व्याख्या की है | जिसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं | 

उच्चतम न्यायालय की विधि व्यवस्था  ऍम ऍम हासकाट  बनाम महाराष्ट्र राज्य ,ए आई आर ,१९७८ अस सी १५४८ में अनुछेद २१ की विस्तृत व्याख्या करते हुए स्थापित किया है कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति को उच्च न्यायालय में अपील दाखिल करने का मूल अधिकार है तथा उसे " निःशुल्क कानूनी सहायता " पाने का भी अधिकार है 

उच्चतम न्यायालय की विधि व्यवस्था  हुस्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य ए आई आर १९७९ अस सी १३६० में स्थापित किया है कि "शीघ्रतर परीक्षण और निःशुल्क  विधिक सहायता" के अधिकार अनुछेद २१ द्वारा प्रद्दत्त दैहिक स्वतंत्रता  के मूल अधिकार का एक आवश्यक तत्व है | 

विधि वियास्था सुखदास बनाम संघ राज्य क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश ,(१९८६)२ अस सी सी ४०१  में माननीय न्यायालय ने यह स्थापित किया कि " निःशुल्क कानूनी सहायता " प्रदान करने में बिफलता ,जबतक कि  अभियुक्त ने इंकार न कर दिया हो ,परीक्षण को अवैध बना देती है | अभियुक्त को इसके लिए अर्जी देने की जरूरत नहीं होती है | " निःशुल्क कानूनी सहायता " अभियुक्त  का एक मूल अधिकार है और अनुछेद २१ के अधीन युक्तियुक्त ,ऋजु और उचित प्रक्रिया का एक तत्व है | राज्य का यह कर्त्तव्य है कि  उसे बताये कि उसे " निःशुल्क कानूनी सहायता " का अधिकार प्राप्त है | |

समान अवसर के आधार पर समाज में कमजोर वर्गों को निशुल्क विधिक सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु भारतीय संसद द्वारा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ अधिनियमित किया गया | इस अधिनियम के तहत देशभर में विधिक सहायता कार्यक्रमों के सुचारू क्रियान्वयन  की निगरानी और मूल्यांकन किया जाता है | इसके साथ साथ विधिक सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए नीति गत  सिद्धांतों को सुनिश्चित करने के लिए इसका अधिनियमन किया गया है | 

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७ के तहत राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण ,राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण और जिला स्तर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की स्थापना की गयी हैं | उक्त प्राधिकरणों में असह्याय, गरीब, कमजोर वर्गों के वादकारिओं और अभियुक्तों को निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करने के लिए अधिवक्ताओं का पैनल गठित किया जाता है| पैनल में शामिल अधिवक्ताओं के द्वारा गरीब व् अन्य व्यक्तियों को दी जाने वाली विधिक सेवाओं के एवज में फीस का भुगतान सरकार द्वारा किया जाता है | इसके अतिरिक्त इसमें लोक अदालत के माध्यम से छोटे मामलों में त्वरित न्याय दिलाने  का प्रावधान किया गया है |  

इस पुनीत कार्य द्वारा सरकार न सिर्फ अंतराष्ट्रीय मानव अधिकारों का सम्मान करती है बल्कि भारतीय संविधान में  " निःशुल्क कानूनी सहायता " की अवधारणा को वास्तविकता में बदलती हुई दृश्टिगोचर होती है | समय- समय पर भारत के सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए निर्णयों में " निःशुल्क कानूनी सहायता " को संविधान में प्रद्दत मूल अधिकार का एक आवश्यक तत्व के रूप में वयाख्या की गयी है,के आधार पर सरकार ने उसका भी सम्मान करते हुए  इस क्षेत्र  में बेहतर सेवाओं के प्रति अपनी प्रतिबध्दता कायम रखी हैं |  

निःशुल्क विधिक सेवाओं  में निम्नलिखित  शामिल हैं :

(क) कोर्ट फीस ,प्रक्रिया फीस  और किसी विधिक कार्यवाही के सम्बन्ध में देय या किये गए देय या अन्य सभी प्रकारों का भुगतान ;

(ख) विधि कार्यवाहियों में वकीलों की सेवा प्रदान करना 

(ग) विधिक कार्यवाहियों में आदेश और अन्य दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां  प्राप्त करना और उनकी आपूर्ति करना | 

(घ) मुद्रण और विधिक कार्यवाही में दस्तावेजों के अनुवाद सहित अपील और पेपरवर्क की तैयारी | 

विधिक सेवा प्राधिकारण अधिनियम ,१९८७ की धरा १२ में विधिक सहायता हेतु पात्र  व्यक्तियों के लिए मानदंड निर्धारित किये गए है,जिनमे से कुछ  निम्न प्रकार हैं ;

"१२. प्रत्येक व्यक्ति जिसे कोई मामला दर्ज करना है या अपनी प्रतिरक्षा करनी हैं ,इस अधिनियम के तहत विधिक सेवाओं के लिए हकदार होगा यदि वह व्यक्ति

(क)अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है ;

(ख)संविधान के अनुछेद २३ में निर्दिष्ट मानव तस्करी और बेगार का शिकार है;

(ग)एक महिला या बच्चा है ;

(घ) मानसिक रूप से बीमार या अन्यथा विकलांग व्यक्ति है;

(ड़)अवांछित परिस्थितिओं में रहने वाला वियक्ति जैसे सामूहिक आपदा,जातीय हिंसा,जातिगत अत्याचार,बाढ़, सूखा ,भूकंप या औधोगिक आपदा का शिकार होना ;या 

(च) एक औधौगिक मजदूर है ;

(छ)हिरासत में है,जिसमे अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम ,१९५६ की धरा २ के खंड (जी) के अर्थ में अंदर सुरक्षात्मक घर में हिरासत भी शामिल है,आदि |  

विधिक सेवा प्राधिकरण विधिक सेवा की आवश्यकता वाले व्यक्तियों के आवेदन की  प्रथम दृष्टया जांच के उपरांत पात्र पाए जाने पर उसे सरकारी खर्च पर वकील मुहैया कराते हैं,आवश्यकता के अनुसार न्यायलय शुल्क का भुगतान करते हैं और मुकदद्मे से सम्बंधित अन्य आकस्मिक खर्चे  वहन करते हैं | जब व्यक्ति को विधिक सहायता प्रदान की जाती है तो उससे  विधिक सहायता के एवज में कोई भी शुल्क नहीं लिया जाता है | 

उपरोक्त से स्पष्ट है कि वर्तमान में निःशुल्क विधिक सहायता न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुकी है जो कि  एक स्वतंत्र और मजबूत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है | देशभर में आज निःशुल्क विधिक सहायता भारतीय संविधान,विशेष विधायन और भारतीय सर्वोच्च न्यायलय द्वारा पारित की गयी विधि व्यवस्थायों द्वारा पोषित और फलीभूत हो रही है | सर्वोच्च न्यायलय द्वारा निःशुल्क विधिक सहायता को एक मूल अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान कर असंख्य गरीबों और निर्बल वर्ग के व्यक्तियो के मानव अधिकारों का संरक्षण और संवर्धन किया है | इसके अतिरिक्त अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणओं में भी विधिक सेवाओं को पर्याप्त स्थान दिया गया है | जिन्हे सदस्य देश अपने यहाँ के कानूनों में सिद्धांतों के रूप में उपयोग कर रहे है | स्पष्ट है कि निःशुल्क विधिक सहायता और मानव अधिकारों में गहरा सम्बन्ध है | मानव अधिकार एक दूसरे पैर निर्भर होते है | एक मानव अधिकार का उलंघन होने पर अन्य मानव अधिकारों के उलंघन का खतरा बना रहता है | निःशुल्क विधिक सहायता का उद्देश्य तभी पूरा हो सकेगा जब प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक आसान और सुलभ पहुंच हो सकेगी जिसके लिए सभी के द्वारा मानव अधिकारों का सम्मान  किया जाना आवश्यक शर्त है |  

सन्दर्भ  

१. मानव अधिकारों की सावभौमिक घोषणा ,१९४८

२.अनुछेद १४ ,अनुछेद २२(१) और अनुछेद ३९ (अ)भारत का संविधान ,1950,

३. ऍम ऍम हासकाट  बनाम महाराष्ट्र राज्य ,ए आई आर ,१९७८ अस सी १५४८ 

४.हुस्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य ए आई आर १९७९ अस सी १३६०

५. सुखदास बनाम संघ राज्य क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश ,(१९८६)२ अस सी सी ४०१ 

६. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम ,१९८७

७. महासभा संकल्प 67/187: आपराधिक न्याय प्रणालियों में कानूनी सहायता तक पहुंच पर संयुक्त राष्ट्र सिद्धांत        और दिशानिर्देश (2013)

आशा है कि मेरे  द्वारा  निःशुल्क  विधिक सेवाएं  और मानव अधिकार (Free Legal Aid and Human  Rights in Hindi ) विषय पर दी हुई जानकारी आपको पसंद आई होगी |  

FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले सवाल)


प्रश्न :कानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए कहाँ संपर्क करना चाहिए ?

उत्तर : कानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए  विधिक सेवा प्राधिकरण के कार्यालय में संपर्क करना चाहिए| 

प्रश्न :निःशुल्क कानूनी सेवाएं कैसे मिलती हैं ?

उत्तर : निःशुल्क कानूनी सेवाएं लेने के लिए राष्ट्रीय सेवा प्राधिकरण,राज्य सेवा प्राधिकरण और जिला सेवा प्राधिकरण के कार्यालयों से संपर्क कर वहां से फॉर्म प्राप्त कर उसे उचित रूप में  भर कर जमा कर दे | प्राधिकरण द्वारा  उचित  पात्रता पाये जाने पर निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्राप्त हो जायेगी | 

प्रश्न :निःशुल्क कानूनी सेवाएं  प्राप्त करने के लिए कौन कौन से व्यक्ति पात्रता रखते हैं ?

उत्तर : निःशुल्क कानूनी सेवाएं  प्राप्त करने के लिए निम्नांकित व्यक्ति पात्रता रखते हैं :
(क)महिलाये और बच्चे | 
(ख) अनुसूचित  जाति और जनजाति के सदस्य | 
(ग) सामूहिक आपदा , हिंसा,बाढ़ ,सूखा और भूकंप ,औधोगिक आपदा के शिकार  व्यक्ति | 
(घ) दिव्यांगजन | 
(ड़) हिरासत में व्यक्ति
(च) जिन व्यक्तियों की वार्षिक आय १ लाख रूपये से अधिक नहीं हैं | उच्तम न्यायालय विधिक सेवा समिट में सीमा ५००००० रुपए हैं | 
(छ)मानव तस्करी के शिकार या भिखारी |  

  




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