मंगलवार, 26 अगस्त 2025

काटते कुत्तों से कराहते लोग: सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला और NCR की सच्चाई!

आवारा कुत्ता (STRAY DOG)

प्रस्तावना 

भारत आवारा कुत्तों की एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है | आज देश भर में सड़कों और गलियों में आम आदमी को चोर उच्चक्कों और बदमासो से इतना डर नहीं है जितना डर आवारा कुत्तों के हमलों का है | आये दिन अखबारों और न्यूज़ चैनलों में खबरे आती है -बच्चो पर आवारा कुत्तों का हमला, कुत्तों ने सुबह की सैर करते बुजुर्ग को नौचा, कुत्तो के काटने से अस्पताल में भर्ती, अस्पातल में रैबीज के टीके की किल्लत |

आवारा कुत्तों के हमलों का भारत पर दबाब

सरकारी आकड़ों के अनुसार भारत में डॉग बाईट (कुत्ता काटने) की घटनाएं साल दर साल बड रही हैं | वर्ष 2022  में  डॉग बाईट की 21,89,909  घटनाएं हुई | वर्ष 2023 में ये घटनाएं बढ़कर 30,52,521 हो गई  तथा वर्ष 2024 में इन घटनाओं में अप्रत्याशित बृद्धि हुई और 37,15,713  घटनाओं तक पहुच गई | सिर्फ जनवरी 2025 के आकड़े  4,29,664 घटनाओं तक पहुंच गए | ये आकड़े सरकारी है यद्यपि वास्तविकता में ये आकड़े और भी अधिक हो सकते हैं | यानी हर साल लाखों लोग आवारा कुत्तों के काटने से पीड़ित हो रहे है और खौफजदा हैं |

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसलाआम आदमी को इंसाफ की उम्मीद ?

आवारा कुत्तो के हमलों को लेकर लम्बे समय से देश के विभिन्न हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई चल रही है | न्याय भूमि बनाम गवर्नमेंट ऑफ़ एन सी टी ऑफ़ दिल्ली एंड अदर्स के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने स्थापित किया कि, "दिव्यांगजनों को आवारा पशुओं के हमले के खतरे के बिना चलने का मौलिक अधिकार है।" भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला एक कानून बना, जिसे दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के रूप मे जाना जाता है | 

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबरसिटी हाउंडेड बाय स्ट्रेज, किड्स पे प्राइसके आधार पर मामले का स्वतः संज्ञान लिया था इस खबर में रैबीज से छह साल की बच्ची की मौत के बारे में बताया गया था|

कोर्ट ने 11 अगस्त 2025 को आदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में सड़कों से पकडे गए आवारा कुत्तों को उनके स्थानांतरण के बाद फिर से सड़कों पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इस संबंध में, संबंधित अधिकारियों द्वारा नियमित रूप से उचित रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए।आवारा कुत्तों को पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 के अनुसार पकड़ा जाएगा, उनकी नसबंदी की जाएगी और उनका टीकाकरण किया जाएगा | जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है,उन्हें वापस नहीं छोड़ा जाएगा। कुत्ता आश्रयों/पाउंडों में आवारा कुत्तों की नसबंदी और उनका टीकाकरण करने के लिए और हिरासत में लिए जाने वाले आवारा कुत्तों की देखभाल के लिए पर्याप्त कर्मचारी होने चाहिए।

दिल्ली सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि साल 2024 में भारत में 37 लाख से ज्यादा कुत्ता काटने के मामले दर्ज हुए। उन्होंने दलील दी कि सिर्फ नसबंदी से हमलों को रोका नहीं जा सकता और बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए तुरंत कदम उठाना जरूरी है।

सभी पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एन.वी. अंजरिया की तीन जजों की पीठ ने 22 अगस्त 2025 को संशोधित दिशानिर्देश जारी किए, जो इस प्रकार हैं:

1.आवारा कुत्तों को पकड़ कर नगर निगम और प्राधिकरण द्वारा नसबंदी और टीकाकरण किया जाय।

2.रेबीज से संक्रमित या आक्रामक कुत्तों को छोड़ कर अन्य सभी आवारा कुत्तों को नसबंदी और टीकाकरण के बाद वापस उनके इलाकों में छोड़ा जाए|

3.हर वार्ड में फीडिंग जोन बनाए जाएं, और सड़कों पर खाना खिलाना प्रतिबंधित होगा।

4.कोर्ट के आदेश के पालन में बाधा डालने वाले व्यक्ति या संगठन पर कार्रवाई होगी।

5.जो नागरिक आवारा कुत्तों को गोद लेने के इच्छुक हैं वे नागरिक नगर निगम से संपर्क कर विधिवत प्रक्रिया के तहत कुत्ते को गोद ले सकते हैं, लेकिन उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि वह कुत्ता दोबारा सड़क पर न आए।

6.कोर्ट के आदेश में यह मामला अब सिर्फ दिल्ली एनसीआर का नहीं रहा बल्कि इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत के लिए कर दिया गया है | अब सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को ABC नियम, 2023  का पालन करना होगा | 

कोर्ट के इस फैसले ने एनिमल लवर्स को निश्चित रूप से खुश होने का अवसर दिया है, लेकिन काटते कुत्तों से कराहते लोगों को शायद वह राहत नहीं मिली है जिसकी उन्हें उम्मीद थी | ज़मीनी स्तर पर कुत्तों के हमले से आमजन को राहत कैसे मिलेगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा |

आम आदमी की हालत

बच्चे खेल के मैदान में जाने से डरते हैं। माता-पिता बच्चों को अकेले स्कूल भेजने से कतराते हैं। बुज़ुर्ग सुबह-सुबह वॉक पर निकलने से डरते हैं। दिहाड़ी मज़दूर और ग़रीब तबका सबसे ज्यादा पीड़ित है, क्योंकि उनके पास कुत्तों के हमलों से बचने के लिए आवागमन के लिए चार पहिया वाहन नहीं हैं, महंगे रेबीज इंजेक्शन या सुरक्षित गेट बन्द कॉलोनी का विकल्प ही नहीं है। सवाल यह हैजब इंसान ही सुरक्षित नहीं रहेगा तोमानव अधिकारकिस काम के?

दैनिक भास्कर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार एक कुत्ते ने मात्र घंटे में करीब 25 मासूम बच्चों पर हमले किये | भारत के अन्य शहरों से भी खबरे है जिनमे मासूम बच्चों को कुत्तों के झुण्ड ने बुरी तरह से नौचा और बाद में उनकी मृत्यु हो गई |  सोशल मीडिया पर तैरते इन घटनाओं के वीडियो अत्यधिक ह्रदय बिदारक है| जिन्हे एक सामान्य आदमी देख भी नहीं सकता है |

यद्यिप सरकार के आकड़े के अनुसार कुत्ते के काटने से होने वाली रैबीज की बीमारी से मौतों का आकड़ा एक सैकड़ा से भी नीचे है लेकिन काटने के मामले लाखों में होने से इनके इलाज से गरीब आम आदमी की कमर टूट रही है| जबकि अधिकाँश गरीब इसके इलाज के लिए सरकारी अस्पताल पर ही निर्भर रहते है | जहाँ कभी उन्हें विभिन्न वजहों से एंटी रैबीज टीके नसीब नहीं हो पाते और उन्हें अनावश्य्क और अकाल मृत्यु को गले लगाना पड़ता है |

मासूम की तड़प -तड़प कर मृत्यु

आगरा में एक बच्ची को कुत्ते ने काट लिया | उसका पिता उसे सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर ले गया| जब उसने स्वास्थ्य कर्मियों को बच्ची को टीका लगवाने के लिए कहा तो उन्होंने बच्ची का आधार कार्ड मांगा जो उस समय पर उसके पास नहीं था | दुबारा उसके कभी एंटी रेबीज का टीका नहीं लग पाया | आखिरकार  कुछ समय बाद उस मासूम बच्ची की तड़प -तड़प कर मृत्यु हो गई | उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अधिकारियों से घटना की विस्तृत जांच रिपोर्ट मांगी |यह मामला है वर्ष 2019 का तथा इस सम्बन्ध में 28 अगस्त के  "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के दिल्ली/आगरा अंक में खबर छपी |

आवारा कुत्तों के हमले में बदनसीब बाप ने अपनी मासूम बच्ची को खो दिया| उसकी मदद के लिए सरकार आई कुत्तों के लिए आँसू बहाने वाले एनिमल लवर्स और गैर सरकारी संगठन | मासूम बच्ची को बचपन में ही खोने की अथाह पीड़ा उसका परिवार ही समझ सकता है अन्य कोई नहीं

बच्ची के पिता ने आगरा के मानव अधिकार न्यायालय में मुआवजे के लिए एक याचिका डाली थी | वह याचिका भी मूल क्षेत्राधिकार के अभाव में खारिज हो गई

उसे किसी प्रकार का न्याय मिला क्या ? शायद नहीं ? उसकी गरीबी के चलते वह अपना केस उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में असमर्थ रहा | गरीबी हमेशा मानव अधिकारों का अतिक्रमण करती है |

डॉग लवर्स बनाम पीड़ित लोग

इस पूरे मुद्दे पर समाज स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बंट गया है,एक तरफ एनिमल लवर्स की दलीलें है और दूसी और आवारा कुत्तों के हमलों से पीड़ित लोग, भयभीत या कराहते लोगों की दलीलें | डॉग लवर्स कहते हैं – “कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से हटाना अमानवीय है। उन्हें भी जीने का अधिकार हासिल हैं।”  पीड़ित कहते हैं – “इंसान की जान सबसे ऊपर है।"  

आराम करते आवारा कुत्ते  (STRAY DOGS)

इस बात को टी एम इरशद बनाम केरला राज्य, 2024 में केरला उच्च न्यायालय ने भी स्थापित किया है कि, "आवारा कुत्ते हमारे समाज में एक ख़तरा पैदा कर रहे हैं। स्कूली बच्चे अकेले स्कूल जाने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं आवारा कुत्ते उन पर हमला न कर दें। कई नागरिकों की सुबह की सैर पर जाना आदत बन गई है। आवारा कुत्तों के हमले की आशंका के कारण आजकल कुछ इलाकों में सुबह की सैर भी संभव नहीं है। अगर आवारा कुत्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है, तो कुत्ते प्रेमी उनके लिए लड़ेंगे। लेकिन हमारा मानना ​​है कि इंसानों को आवारा कुत्तों से ज़्यादा तरजीह दी जानी चाहिए। बेशक, इंसानों द्वारा आवारा कुत्तों पर बर्बर हमले की भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।"

हाँ,आम आदमी और गरीब की एक चिंता जरूर है कि अगर कुत्तों से हमारी जान जाएगी या उनके काटने से शारीरिक ,मानसिक और आर्थिक पीड़ा होगी, तो हमारे अधिकारों का क्या होगा?”

समाधान

भारत मे आवारा कुत्तो के हमलो की गम्भीर समस्या का समाधान निम्नवत संभव है |

1.तेज़ नसबंदी अभियान – वर्ल्ड आर्गेनाइजेशन ऑन एनिमल हेल्थ के अनुसरण में सरकार द्वारा आवारा कुत्तों के 70 %  का तेजी के साथ टीकाकरण और नसबंदी का लक्ष्य ईमानदारी से प्राप्त किया जाना चाहिए | 

2.डॉग शेल्टर होम्स का निर्मानहर शहर में व्यवस्थित तौर पर डॉग शेल्टर्स /सेंटर बनाए जाएं।

3.रैबीज़ वैक्सीन की मुफ़्त् व्यवस्थाखासकर गरीब तबके के लिए वेक्सीन की व्यवस्था निशुल्क करने का प्रावधान हो |  

4.जवाबदेही तय होनगर निगम और प्रशासन पर कुत्तों की नसबंदी और उनके वेक्सीनेशन के सम्बन्ध में उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए | लापरवाही की स्तिथि में जुर्माना लगाया जाना चाहिए |

5.सख्त कानूनइंसान की जान को खतरे में डालने वाले मामलों में सख्त दंड का प्रावधान किया जाए | कुत्ते के काटने से घायल या मृत्यु की स्तिथि में तत्काल आर्थिक मुआवजे का प्रावधान किया जाए |

निष्कर्ष

भारत में यह बहस सिर्फ कुत्तों के अधिकार बनाम इंसानों के अधिकार की नहीं है।असल सवाल यह है किक्या हम अपनी सड़कों और गलियों को बच्चों ,बुजुर्गों और आमजन के लिए सुरक्षित बना पाएंगे या नहीं? डॉग लवर्स की भावनाएं अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन इंसान का जीवन सबसे पहले आता है ,जिसका समर्थन माननीय केरला हाई कोर्ट ने भी अपने एक निर्णय में किया है | सुप्रीम कोर्ट ने दिशा तो दिखा दी हैलेकिन असली इंसाफ तभी मिलेगा जब कानून, सरकार और समाज मिलकर एक ठोस कदम उठाकर समस्या का सम्पूर्ण समाधान करने में सफल होंगे | क्योंकि सवाल अब भी वही है – “काटते कुत्तों से कराहते लोग आखिर कहाँ और कब पाएंगे इंसाफ?”

FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न ):-

प्रश्न :भारत में Stray Dogs इतने क्यों हैं?

उत्तर : भारत में Stray Dogs की संख्या ज़्यादा है क्योंकि नसबंदी (spaying/neutering) कम होती है, कूड़े-कचरे और समाज से उन्हें आसानी से खाना मिल जाता है।

प्रश्न : क्या Stray Dogs इंसानों के लिए खतरनाक हैं?

उत्तर : हाँ। भारत में हर वर्ष करीब 47 लाख लोग Dog Bites का शिकार होते हैं और इनमें से सैकड़ों मौतें Rabies Infection से होती हैं।

प्रश्न : क्या Stray Dogs को मारना कानूनन सही है?

उत्तर : नहीं। भारत में Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 और ABC Rules, 2023 के अनुसार Stray Dogs को मारना गैर-कानूनी है।

प्रश्न : अगर Stray Dog काट ले तो क्या करें?

उत्तर : काटने के घाव को तुरंत साबुन और पानी से धोएं, तत्काल डॉक्टर से संपर्क कर  Anti-Rabies Vaccine (ARV) और Tetanus Injection लगवाएं | 

प्रश्न : क्या Stray Dogs को खाना खिलाना गैर-कानूनी है?

उत्तर : नहीं। Supreme Court और High Court के फैसलों के अनुसार Stray Dogs को खाना खिलाना अपराध नहीं है। लेकिन नगर निगम या स्थानीय प्रशाशन द्वारा निर्धारित फीडिंग ज़ोन्स पर ही खाना खिलाने की अनुमति है |  

प्रश्न : Stray Dogs की नसबंदी और Vaccination की जिम्मेदारी किसकी है?

उत्तर : नगर निगम (Municipal Corporations) की कानूनी जिम्मेदारी है | यह जिम्मेदारी उन्हें  ABC (Animal Birth Control) Program,2023  के अनुसरण में निर्वहन करनी होती है | 

प्रश्न : Rabies से सबसे ज़्यादा खतरा किससे है?

उत्तर :विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल लगभग 20,000 मौतें Rabies से होती हैं और इनमें से 95% केस Dog Bites से जुड़े होते हैं।

प्रश्न: Stray Dogs इंसानों पर हमला क्यों करते हैं?

उत्तर : ज़्यादातर कुत्ते भूख, डर या अपने बच्चों की रक्षा करने के कारण इंसानों पर हमला करते हैं।

प्रश्न :सुप्रीम कोर्ट का Stray Dogs पर हालिया फैसला क्या कहता है?

उत्तर : सुप्रीम कोर्ट ने लोगों की सुरक्षा और कुत्तों के अधिकार दोनों  में संतुलन करने का प्रयास किया  | नगर निगम को नसबंदी और टीकाकरण तेज़ करने का आदेश दिया गया।नसबंदी और टीकाकरण के बाद आवारा कुत्तों को उसी स्थान पर छोड़ने के आदेश किये है जहाँ से उन्हें पकड़ा था | 

प्रश्न : Stray Dogs की समस्या हो तो क्या करें?

उत्तर : स्थानीय नगर निगम को शिकायत करें| Stray Dogs को मारना गैर-कानूनी है।

  

शनिवार, 23 अगस्त 2025

आवारा कुत्तों की घर वापसी – डॉग लवर्स की बड़ी जीत!

 

आवारा कुत्ते

प्रस्तावना

भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर के अनेक देशों में आवारा कुत्तों के हमलों का मुद्दा लम्बे समय से विवाद का केंद्र रहा है | भारत की सड़कों पर आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या,उनके ताबड़-तोड़ हमले और भय से आम लोग परेशान और त्रस्त रहे है | राज्यों के अलग अलग स्थानीय नगर निगम और ग्राम पंचायत कानूनों में प्रावधान है कि सड़कों को आवारा जानवरों से मुक्त कराना स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है | इस जिम्मेदारी का कोई निर्वहन उचित रूप से कही भी दृष्टिगोचर नहीं होता है | अभी हाल ही में  कुत्तों के काटने से दिल्ली में हुई 6 वर्षीय बच्ची की मृत्यु का समाचार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अंगरेजी दैनिक में  छापा | जिसका माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया | जिसके बाद दिल्ली सरकार को सड़क से आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर होम्स में भेजनी का आदेश दिया गया | 

इस आदेश के आते ही डॉग लवर्स और जानवरों के लिए काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया | मेनका गाँधी ,राहुल गाँधी,भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश काटजू साहब तथा अनेक  बड़े- बड़े  फिल्म स्टार एनिमल लवर्स के समर्थन में खड़े दिखाई दिए | एनीमल लवर्स ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमानवीय बताया तथा याय भी दलील दी कि जानवरों के भी अधिकार होते हैं | 

आख़िरकार हाल ही में  दिनांक 22 /08 /2025 को सुप्रीम कोर्ट का संशोधित फैसला सामने आया | देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में बदलाव करते हुए आवारा कुत्तों की नसबंदी करने के बाद उन्हें उन्हीं इलाकों में छोड़े जाने के आदेश दिया है, जहाँ से उन्हें पकड़ा गया था।

अदालत और प्रशासन का फैसला

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने कई सुनवाइयों में कहा कि कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता है | इस सम्बन्ध में मौलिक विधि पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम, 2001 के तहत प्रावधान किये गए है, जिसके तहत भी भारत में किसी भी व्यक्ति, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन या एस्टेट प्रबंधन के द्वारा आवारा कुत्तों की उनके मूल निवास से बेदखली या स्थानांतरण गैरकानूनी है।उन्हें किसी भी स्तिथि में हटाया नहीं जा सकता है | 

हालिया फैसले में माननीय न्यायालय ने  दिल्ली सरकार को आदेशित किया है कि आवारा कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण (Vaccination) के बाद उन्हें उनके मूल स्थान पर ही छोड़ा जाए | यह फैसला डॉग लवर्स की बड़ी जीत है | 

डॉग लवर्स की जीत क्यों?

डॉग लवर्स का सबसे बड़ा तर्क यही था कि आवारा कुत्ते भी समाज का अभिन्न अंग हैं।प्राकृतिक संतुलन आवश्यक है | आवारा कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से उठा ले जाना और शेल्टर् होम्स में रखना उनके अधिकार का उलंघन है क्यों कि जानवरो के भी अधिकार होते हैं | यह कार्य अमानवीय भी है | 

किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया खाना खाता हुया आवारा कुत्ता

आवारा कुत्तों की घर वापसी के फैसले ने यह साबित कर दिया कि अदालत भी जानवरों के अधिकारों  को उतना ही महत्व देती है जितना इंसानों के अधिकारों को। माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला उन सभी गैरसरकारी संगठनों और पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ी तथा अविस्मरणीय जीत है, जिन्होंने  हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तत्काल बाद रात्रि को ही दिल्ली में स्थित इंडिया गेट पर फैसले के विरोध जोरदार विरोध प्रदर्शन किया और सभी एनिमल लवर्स को एक जुट होने का आह्यवान किया था | यह जीत एनिमल लवर्स को मात्र 11 दिन में मिल गई |  

आम जनता की चिंता

हालांकि यह फैसला डॉग लवर्स के लिए जीत है, लेकिन आम जनता  के लिए अभी भी विचारणीय मुद्दा है तथा राहत की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उग्र कुत्तों और बीमारी से ग्रस्त आवारा कुत्तों को नहीं छोड़ा जाएगा | आम जनता अर्थात कुत्तों के हमलो से पीड़ित लोगों के लिए सिर्फ यही राहत की बात है | देखना यह है कि बच्चों और बुज़ुर्गों पर आवारा कुत्तों के हमलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से क्या कमी आती है यह तो भविष्य ही बताएगा | 

आमजन का मानना है कि अगर कुत्तों की घर वापसी हो रही है तो सरकार को ईमानदारी और सख़्ती से नसबंदी और वैक्सीनेशन लागू करना होगा, ताकि आमजन को कुछ राहत मिल सके |  

आगे का रास्ता – संतुलन की ज़रूरत

यह फैसला साफ़ करता है कि सिर्फ़ कुत्तों को उनकी मूल निवास से हटाना या उनका मारा जाना समस्या का कोई मानवीय हल नहीं है| विश्व स्वास्थय संघटन के पैमाने के अनुसार नसबंदी (Sterilization) से उनकी संख्या नियंत्रित की जा सकती है, लेकिन यह कार्य ईमानदारी और प्रबल राजनैतिक इच्छा सक्ति के तहत होना चाहिए | इसके साथ ही आवारा कुत्तों के वैक्सीनेशन (Vaccination) से रेबीज़ जैसी बीमारियों से बचाव होगा।जो अनावश्यक और अकाल मृत्यु को रोकने के लिए महत्वपूर्ण कदम है | कुत्तों के लिए फीडिंग जोन बनाये जाने से भी आमजन और आवारा कुत्तों के बीच टकराव  कम होने की अच्छी सम्भावनाये है | साथ ही सभी को आवारा कुत्तों के साथ सहअस्तित्व की बेहतर संभावनाओं को तलाशने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है | 

निष्कर्ष

आवारा कुत्तों की घर वापसी सिर्फ़ एक न्यालयिक निर्णय नहीं, बल्कि यह मानवाधिकारों और पशु-अधिकारों के बीच संतुलन का प्रतीक है।

जहाँ डॉग लवर्स इसे अपनी बड़ी जीत मान रहे हैं, वहीं आम नागरिक उम्मीद लगाए बैठे हैं कि अब सरकार और नगर निगम उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में कोई हीला हवाली नहीं करेंगे।

बुधवार, 13 अगस्त 2025

आवारा कुत्तों के आगे बेबस इंसान – किसका हक पहले ?

STRAY DOGS

भूमिका 

अभी हाल ही में आवारा कुत्तों से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने टिपणी की कि  “कुत्ते इंसान के सबसे अच्छे दोस्त हैं उन्हें गरिमा के साथ जीने का हक है |” अर्थात जानवरों के जीवन के अधिकार को माननीय न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया है | लेकिन हाल ही के वर्षों में आवारा कुत्तों के बच्चों,बुजुर्गों और आमजन पर हो रहे जान लेवा और भीभत्स हमलों ने सम्पूर्ण भारत में त्राहिम - त्राहिम मचा रखी है | आमजन में अपने बच्चों और बुजुर्गों पर आवारा कुत्तों के हमलों को लेकर चिंत्ता बढ़ी है | यही नहीं लोग आवारा कुत्तों से जुड़े मामले लेकर कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुए है | 

A dog attacking children in Bhilwara district of Rajasthan

कुत्तों के हमले एक गंभीर समस्या 

दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के अनुसार 19 जुलाई 2025 को राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कुत्ते की काटने की एक घटना में  कुत्ते ने 2 घंटे में 45 लोगों पर हमला किया तथा उनके हाथ-पैर नोचे,  इनमे 25 बच्चे भी शामिल थे | 

सम्पूर्ण देश में हो रहीं इस तरह की घटनाओं ने इंसानी जान के प्रति खतरे को गंभीर कर दिया है इस कारण लोग इसे गंभीरता से ले रहे है | आज इंसान और जानवरों के बीच एक संघर्ष की स्तिथि पैदा हो गई है | 

न्यायालयिक पहुंच 

माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कुत्तों के काटने की घटनाओं से सम्बंधित 193 रिट याचिकाएं हुई | जिनका निस्तारण मानीय न्यायालय ने एक साथ किया | यही नहीं देश के कई अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी कुत्तों के काटे जाने की घटनाओं को लेकर मामले दायर किये गए हैं | 

अभी हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली में कुत्तों द्वारा काटे जाने से रेबीज होने के कारण एक 6 वर्षीय बची की मृत्यु को लेकर एक अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर का संज्ञान लेते हुए स्वप्रेरणा से एक जनहित याचिका को स्वीकार किया गया | याचिका पर प्राथमिक सुनवाई सुनवाई के बाद मानीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि 8 हफ़्तों के अंदर दिल्ली सरकार को दिल्ली एनसीआर की सड़को से सभी आवारा कुत्तो को एनिमल शेल्टर्स में शिफ्ट करे | कुत्तों के हमलों के खतरों से बचाव के सम्बन्ध में सर्वोच्च अदालत का यह एक ऐतिहासिक फैसला है | जो बच्चे कुत्तों के डर से स्कूल जाने से,पार्क में जाने से,बाजार जाने से डरते थे अब वे चैन  की सांस ले सकेंगे | ये फैसला विशेष कर बच्चों और वुजुगों के लिए जीवनदायी सिद्ध होगा |    

आमजन बनाम कुत्ता प्रेमी 

कई बार न सिर्फ आवारा बल्कि अनेक जगह पालतू कुत्तों के हमले भी जानलेवा साबित हुए हैं | ऐसी स्तिथि में इंसानी हुकूक और कुत्तों के हुकूक के बीच प्राथमिकता का एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता है | एक तरफ आमजन जो कुत्तों के हमलों से परेशान है, दुसरी तरफ कुत्ता प्रेमियों की फ़ौज जो हमेसा कुत्तों को जहाँ वह रहता है से दुसरे स्थान पर स्थानांतरित करने का विरोध करते है ,के बीच असमंजस और संघर्ष की स्थति उत्पन्न हो गई है | 

इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता ?

क्या हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता दी जा रही है ? इंसानी जीवन को खतरों से बचाना उसका हक़ नहीं है ? कुत्तों के हमलों से इंसानी जीवन को होने वाले खतरे की जिम्मेदारी कौन लेगा ? अन्ततोगत्वा ये जिम्मेदारी जागरूक समाज और राज्य को ही उठानी पड़ेगी | इंसान बनाम कुत्ते– प्राथमिकता किसे दी जानी चाहिए ? पीड़ित हमेशा इंसान के पक्ष में होगा, लेकिन जानवर प्रेमी सदैव कुत्तों के पक्ष में खड़े दिखाई देते है | कुत्तों के हमलों में मासूम और इकलौतों बच्चों की मृत्यु पर भी पशु प्रेमियों की संवेदनाये  बहुत ही कम द्रष्तिगोचर होती है | भारत में सड़क पर घूमने वाले आवारा कुत्तों की संख्या लाखों में है। ऐसा नहीं है कि  सभी कुत्ते आक्रामक  या रेबीज के बाहक है लेकिन  फिर भी समस्या गंभीर है तथा आमजन में आक्रोश है |  इनमें से अनेक कुत्ते कोई नुकसान नहीं करते। लेकिन…कई बार ये झुंड में हमला कर देते हैं | छोटे बच्चों पर, बुजुर्गों पर, अकेले जा रहे लोगों पर।

भारत में कुत्ते काटने की घटनाओं का सरकारी आँकड़ा

भारतीय संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल करीब 37 लाख कुत्तों के काटने की घटनाये दर्ज हो रही हैं और कई मामलों में लोगों की जान भी जा रही है। कुत्तों के हमलों और उससे होने वाली रेबीज की बीमारी से बच्चे, बूढ़े और जवानों की अकाल और अनावश्यक मृत्यु की ख़बरें लगातार सामने आ रही हैं | लेकिन जब भी कोई आवाज़ उठाता है, जानवर प्रेमी विरोध के लिए सामने होते हैं | जानवरों के कोई हकूक नहीं है इसमे कोइ सचाई  नाही है  बल्कि  सच्चाइ यह है  कि जानवरों को कानूनी हकूक हासिल हैं | कोई उनके खिलाफ नहीं है | कोई नहीं चाहता कि कुत्ते समाज का एक अंग न हो लेकिन ये जिम्मेदारी से हो | कोई जिम्मेदारी तो ले | जिम्मेदारी के लिए कोई सामने नहीं आता | सब चाहते हैं – प्रशासन जिम्मेदारी ले। इस सम्बन्ध में स्थानीय निकाय कानूनों में आवारा जानवरों के प्रबंधन के प्रावधान किये गए है उनका अनुसरण होना चाहिए |

इंसानी जीवन को प्राथमिकता

ये झगड़ा इंसान और जानवरो के बीच का नहीं है, ये मुद्दा है सुरक्षा और संवेदनशीलता के बीच का।इंसानी सुरक्षा भी जरूरी है और जानवरों के प्रति संवेदनशीलता भी ज़रूरी हैं… लेकिन प्राथमिकता इंसानी जीवन को मिलनी ही चाहिए।यह कहना है केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी वी कुन्हीकृष्णन का | उन्होंने यह भी कहा कि,"आवारा कुत्तों के हमले के डर से अनेक बच्चे अकेले स्कूल जाने से डरते हैं। अनेक लोग सुबह की सैर करने से डरते है |अगर आवारा कुत्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है, तो कुत्ते प्रेमी उसके लिए लड़ने के लिए तैयार रहेंगे |"

भारत में न्यायालय का फैसला सर्वोपरि है | हम सब  बतौर एक अच्छे नागरिक उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है | पशु प्रेमी भी अपनी जायज बात भारत के किसी भी न्यायालय में रखने के लिए स्वतंत्र है | ख़तरा मुक्त वातावरण संतुलित विकास के लिये आवश्यक है | 

FAQ :-

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों से कैसे छुटकारा पाएं?

उत्तर :नई दिल्ली स्थित भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वप्रेरित जनहित याचिका में फैसला सुनाया कि आठ हफ़्तों के भीतर सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर स्थायी रूप से आश्रय गृहों में रखा  जाए ।

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों के साथ क्या हो रहा है?

उत्तर: सर्वोच्च न्यायलय ने दिल्ली सरकार को आदेशित किया है कि दिल्ली एनसीआर की सड़कों से सभी आवारा कुत्तों को आश्रय गृहों में भेजा जाए | 

प्रश्न : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का क्या आदेश है?

उत्तर : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश  दिल्ली एनसीआर की सड़कों पर आवारा कुत्तों को पकड़ कर उन्हें आश्रय गृहों में स्थाई तौर पर भेजा जाए तथा इस कार्य में बाधा डालने वालों पर अदालत की अवमानना की कार्यवाही की चेतावनी भी दी है | 

  







 

सोमवार, 4 अगस्त 2025

इंसान वही, हक अलग क्यों? कब मिलेगा LGBTQ+ को विवाह का अधिकार!

भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है |
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भूमिका

“परिवार” – सामान्य रूप में एक ऐसा शब्द है, जो  संवेदनाओं से भरा हुया है तथा परिवार का सदस्य होने के नाते हर सदस्य को प्यार, अपनापन और सुरक्षा का एहसास कराता है। 

लेकिन क्या हर इंसान इतना खुसनसीब है कि उसे यह अधिकार मिल पाए ? क्या नैतिक और कानूनी तौर पर हर इंसान को बिना किसी विभेद के अपनी इच्छा से विवाह करने तथा परिवार बनाने की आज़ादी है? दुर्भाग्यवश, भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी इन मूलभूत मानव अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करने के लिए विवश हैं | वे आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है | 

दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (2022 आईएनएससी 834) में, यह माना गया कि पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित भागीदारी या विचित्र संबंधों का रूप ले सकते हैं और जो परिवार पारंपरिक परिवारों से अलग हैं, उन्हें नुकसानदेह स्थिति में नहीं रखा जा सकता। कहना न होगा "परिवार" शब्द को विस्तृत अर्थ में समझा जाना चाहिए।

इस लेख के माध्यम से आज हम बात करेंगे एक ऐसे मुद्दे की, जो केवल नैतिकता, कानून या संविधान से जुड़ा नहीं है, बल्कि प्यार ,संवेदनाओं और समानता के मूलभूत  मूल्यों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है – LGBTQ+ समुदाय का  विवाह करने तथा परिवार बनाने का मानव अधिकार।

LGBTQ+ समुदाय का संघर्ष: पहचान से अधिकार तक

LGBTQ+ समुदाय – यानी लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर व्यक्तियों का समूह  सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि भारत में भी पिछले कई दशकों से अपनी अलग पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करता आया है। इनकी अलग पहचान के मुद्दे का भी एक इतिहास रहा है | 

भारत में ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए क़ानून बना कर उनकी अलग पहचान को भी सम्मान दिया गया तथा अन्य अधिकारों को भी तवज्जो दी गई | ये कानून है - ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019| इसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मान्वाधिकारो की रक्षा करना है लेकिन यहकानून भी उनके विवाह पर शान्त है| 

LGBTQ+ समुदाय के पक्ष में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले द्वारा आई पी सी की धारा 377 को रद्द कर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यह एक बड़ी जीत थी – लेकिन यह सिर्फ एक क़ानूनी कदम था | 

क्योकि आज भी भारत में जब एक समलैंगिक जोड़ा विवाह की बात करता है या परिवार बनाने की बात करता है या एक अन्य व्यक्ति के साथ जीवन बिताने की बात करता है, या बच्चा गोद लेने की बात करता है, तो उन्हें कानूनी और नैतिक दोनों ही स्तर पर समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समाज और सिस्टम आज भी इस समुदाय के विवाह और परिवार बनाने के अधिकार के विरोध में खड़ा हुया है | 

प्रश्न उठता है कि क्या दो परुष अपना विवाह नहीं कर सकते और क्या एक महिला दूसरी महिला से मिलकर विवाह नहीं कर सकती हैं तथा वे माता -पिता नहीं बन सकतीं ? क्या इस समुदाय के दो व्यक्ति, जो एक-दूसरे से आपस में गहरा प्रेम करते हैं, एक बच्चे को उतना ही स्नेह और सुरक्षा नहीं दे सकते जितना एक विषमलैंगिक जोड़ा देता है ? 

यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और विधिक रूप से अत्यधिक जटिल विषय है लेकिन समाधान तो समय की आवश्यकता है | किसी भी व्यक्ति को प्रद्दत उसके मानव अधिकारों से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जा सकता है | सभी व्यक्तियों को, चाहे उनकी यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान कुछ भी हो, मानवाधिकारों के सार्वभौमिक आनंद का अधिकार है  

परिवार बनाने का अधिकार: केवल विषमलैंगिकों का विशेषाधिकार?

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसके साथ साथ अन्तराष्ट्रिय मानव अधिकारों के तहत भी दो प्रोढ़ लोगो को उनकी इच्छा के अनुसार विवाह तथा परिवार बनाने का अधिकार मिला हुया है लेकिन जब LGBTQ+ व्यक्तियों की बात आती है, तो विवाह और 'परिवार' जैसी संस्थाएं केवल  विषमलिंगी संबंधों (पुरुष और महिला के रिश्ते) तक ही सीमित रह जाती हैं। यह गंभीर बिडम्बना का विषय है | 

क़ानूनी सवाल उठते हैं:

क्या LGBTQ+ जोड़ों को विवाह का अधिकार होना चाहिए?

क्या उन्हें परिवार बनाने का अधिकार होना चाहिए   ?

क्या वे संतान गोद ले सकते हैं ?

क्या उन्हें परिवार का दर्जा मिल सकता है? 

सही मायने में इन सवालों का उत्तर स्पष्ट है – हाँ, क्योंकि यह अधिकार "इंसान" होने के नाते मिलना चाहिए, न कि केवल किसी विशेष लैंगिक या यौन पहचान के आधार पर।यौन पहचान के आधार पर आज भी गंभीर भेदभाव का अस्तित्व मानव अधिकारों का गंभीर उलंघन है | 

केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका

2023 में सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था सुप्रियो @ सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत संघ (2023 INSC 920) में माननीय न्यायालय ने भले ही समलैंगिक जोड़ों के बीच विवाह को वैध नहीं बनाया हो, लेकिन  यह स्पष्ट किया कि वे बहुत अच्छी तरह से एक परिवार बना सकते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि यह संसद का विषय है। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि LGBTQ+ व्यक्तियों को एक साथ रहने और जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, और उन्हें भेदभाव से बचाया जाना चाहिए।

मद्रास उच्च न्यायालय की पीठ ने दिनांक: 22.05.2025 को एम.ए. बनाम पुलिस अधीक्षक, वेल्लोर एवम अन्य में महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया | जिसमे LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार दिया गया है जो कि बहुत ही प्रगतिशील नर्णय है | 

माननीय न्यायमूर्ति जी.आर.स्वामीनाथन और माननीय न्यायमूर्ति वी.लक्ष्मीनारायणन की  पीठ ने ये फैसला सुनाया |  

इस मामले के किरदार समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली दो लड़कियां है |इस मामले में याचिकाकर्ता लड़की से समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली लड़की को उसकी परिवार ने उसकी इच्छा के विरुद्ध अवैध हिरासत में रखा हुया था|

यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी जिसमे याचिकाकर्ता द्वारा पिता की अवैध हिरासत से उसकी 25 वर्षीय बेटी को स्वतंत्र करने की मांग की गई थी | क्यों कि उसका कहना था कि बंदी के पिता ने उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे हिरासत में रखा हुया था | 

इसके बाद पुलिस द्वारा न्यायालय के समक्ष बंदी और उसकी माँ को पेश किया गया | न्यायालय ने उन दोनों से विस्तृत बातचीत की। बंदी की माँ न्यायालय में ही रो पड़ी तथा उसने अनुरोध किया कि उसे अपनी बेटी को वापस घर ले जाने की अनुमति दी जाए। 

उसके अनुसार, रिट याचिकाकर्ता ने उसकी बेटी को गुमराह किया है। उसने यह भी आरोप लगाया कि उसकी बेटी नशे की आदी है और उसने उसकी इस हालत के लिए याचिकाकर्ता को पूरी तरह से दोषी ठहराया। माँ ने कहा कि उसकी बेटी को काउंसलिंग और पुनर्वास की आवश्यकता है|  

पीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि बंदी से बातचीत करने से पहले, उनके द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देवू जी नायर बनाम केरल राज्य (2024 लाइवलॉ (एससी) 249 में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं या पुलिस सुरक्षा के लिए याचिकाओं से निपटने में अदालतों के लिए जारी दिशा-निर्देशों का ध्यान रखा गया है |   

माननीय न्यायालय द्वारा उपरोक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बंदी से बातचीत की। न्यायालय ने कहा की हमारा एकमात्र प्रयास उसकी वास्तविक इच्छाओं और उसके द्वारा चुने गए विकल्प का पता लगाना था। बंदी की आयु लगभग 25 वर्ष है इसलिए वह बालिग़ है तथा वह शिक्षित है। वह बिल्कुल सामान्य दिखने वाली युवती लग रही थी। उस पर किसी भी तरह की लत का आरोप लगाना अनुचित होगा।

न्यायालय द्वारा पूछे गए एक विशिष्ट प्रश्न पर, बंदी ने उत्तर दिया कि वह समलैंगिक है और रिट याचिकाकर्ता के साथ संबंध में है। उसने कहा कि वह अपनी समलैंगिक सहपाठी  के साथ जाना चाहती है। उसने इस बात की पुष्टि की कि उसे उसके पैतृक परिवार द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है। 

न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हिरासत में लिए गए या लापता व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का पता लगाने में कानून का पालन किया जाए|  यदि हिरासत में लिया गया या लापता व्यक्ति कथित बंदी या पैतृक परिवार के पास वापस न जाने की इच्छा व्यक्त करता है, तो उस व्यक्ति को बिना किसी और देरी के तुरंत रिहा किया जाना चाहिए| 

न्यायालय ने कहा कि चूँकि हमने खुद को संतुष्ट कर लिया है कि बंदी याचिकाकर्ता के साथ रहना चाहती है और उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है, इसलिए हम इस बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को अनुमति देते हैं और उसे स्वतंत्र करते हैं। हम बंदी के पैतृक परिवार के सदस्यों को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से भी रोकते हैं। न्यायालय ने यह निर्णय योग्यकर्ता सिद्धांत, 2006 को दृष्टिगत रख ते हुए सुनाया | 

इस निर्णय ने समुदाय में निराशा का भाव ज़रूर पैदा किया, लेकिन इसने बातचीत के नए रास्ते भी खोले है। 

विधि व्यवस्था शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ, (2018) 7 एससीसी 192 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि पसंद का दावा स्वतंत्रता और गरिमा का एक अविभाज्य पहलू है। एक अन्य महत्वपूर्ण विधि व्यवस्था शफीन जहान बनाम अशोकन केएम (2018) 16 एससीसी 368 में यह स्थापित किया गया कि जीवनसाथी का चुनाव, चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, प्रत्येक व्यक्ति के विशेष अधिकार क्षेत्र में होता है।

सरकार,न्यायालय और समाज सभी को यह समझने की ज़रूरत है कि परिवार केवल सामाजिक संस्थान या खून के रिश्ते  पर आधारित नहीं  है – बल्कि प्यार, आपसी विश्वास और देखभाल पर आधारित है।

परिवार का असली मतलब: प्यार और देखभाल

भारत में आज भी “परिवार” शब्द का अर्थ पति पत्नी, बच्चे और वुजूर्ग माता-पिता के रूप में देखा जाता है। लेकिन आज समय तेजी से बदल रहा है।

कई देशों में आज LGBTQ+ लोग भी बच्चों का पालना पोषण बड़ी गंभीरता और सिद्दत से कर रहे हैं | भारत में भी अनेक समलैंगिक जोड़े एक सुरक्षित और स्थिर घरेलू जीवन जीना चाहते हैं और बच्चों को गोद लेकर उनका अन्य लोगों की तरह पालन पोषण करना चाहते हैं । ये सभी सामान्य मानवीय इच्छाएं हैं – जो किसी भी इंसान को हो सकती हैं। एक समलैंगिक दंपति जब किसी बच्चे को गोद लेता है, तो वह बच्चा भी उतनी ही खुशियाँ और परवरिश पाता है जितना किसी अन्य परिवार में। अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे  कई देशों में समलैंगिक विवाह और परिवार बनाने के अधिकार को विधिक मान्यता प्राप्त है और वहां LGBTQ+ परिवार विवाह कर या  परिवार बनाकर पूरी गरिमा से जीवन जी रहे हैं।

भारत में समाज की मानसिकता: बदलाव की ज़रूरत

भारत में LGBTQ+ समुदाय आज भी तिरस्कार, उपहास और हिंसा का सामना करने को विवश है। अगर कोई लड़का लड़के से प्रेम करता है, या कोई लड़की लड़की से, तो समाज में उसे “अप्राकृतिक कृत्य", “मानसिक बीमारी” या “पश्चिमी सोच” का नतीजा बताया जाता है | 

क्या यह सोच ग़लत है  ?

बिलकुल यह सोच पूरी तरह से गलत है क्यों कि प्रेम, सम्मान और परिवार की भावना किसी जाती, धर्म,पंथ या लैंगिक पहचान की मोहताज नहीं होती है | 

हमारे समाज में एक तरफ वसुदैव कुटुंबकम के अत्यधिक पुराने और विशुद्ध भारतीय सिद्धांत की दुहाई दी जाती है और दूसरी तरफ LGBTQ+ समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित करने में भी कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं | यह स्तिथि गंभीर रूप से विचारणीय है | 

समाज में बदलाव की भावना तभी विकसित होगी जब हम सभी मिलकर आने वाली पीढ़ी को सिखाएँगे कि LGBTQ+ भी उतने ही सामान्य हैं, जितने कि हम। जब हम स्कूलों, फिल्मों, सीरियल्स और न्यूज़  आदि हर जगह  पर उन्हें सही प्रतिनिधित्व देंगे तो उनकी साथ लैंगिक पहचान के कारण होने वाले अपराध बोध को आवश्यक रूप से समाप्त किया जा सकेगा |  अब जरूरत है “परिवार” शब्द को लैंगिक सीमाओं से मुक्त करने की | 

मीडिया, फिल्म और साहित्य की भूमिका

पिछले एक दशक में सिनेमा और वेब सीरीज़ जैसे “मेड इन हैवेन,” “सुभ मंगल ज्यादा सावधान,” “अलीगढ़,” और “रॉकेटमन” ने LGBTQ+ समुदाय के मुद्दों को खुलकर दिखाया है।समाज में यह एक सकारात्मक बदलाव का संकेत है।

सर्व विदित है कि मीडिया समाज का आईना होता है तथा लोकतंत्र का चौथा स्थम्ब भी समझा जाता है। जब मीडिया की कहानीयां LGBTQ+ समुदाय के लोगों की सच्चाई दिखाएगी, जब दर्शक इन पात्रों को सिर्फ “गे या “ट्रांसजेंडर” के रूप में नहीं, बल्कि मानव अधिकार और इंसान के रूप में देखेंगे – तभी  सच्चे बदलाव की उम्मीद की जा सकती है |

आगे का रास्ता: बदलाव की ओर एक कदम

अब समय आ गया है कि भारत LGBTQ+ समुदाय को केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि समान अधिकार उपलब्ध कराए।

आवश्यक कदम:

सरकार द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी जाए|

LGBTQ+ जोड़ों को बच्चा गोद लेने और परिवार बनाने का अधिकार मिले।

स्कूलों और कॉलेजों में LGBTQ+  समुदाय  और समाज में जागरूकता बढ़ाई जाए।

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधत्व दिया जाए| 

समाज में संवेदनशीलता लाने के लिए मीडिया और सरकारी प्रचार अभियान चलाए जाएं।

यह एक कठिन यात्रा ज़रूर है, लेकिन असंभव नहीं। जब समाज प्रेम को सम्मान देना सीख जाएगा, तथा  लैंगिक भेदभाव को तिलांजलि दे देगा , तो हर इंसान को अपना "विवाह" तथा “परिवार” बनाने की आज़ादी होगी–चाहे वह किसी भी लैंगिक पहचान से सम्बन्ध क्यों न रखता हो| 

निष्कर्ष: समानता की ओर एक कदम

LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार केवल एक क़ानूनी विषय नहीं है – यह मानवता, प्रेम और सामाजिक न्याय तथा मानव अधिकार का विषय है।

हर किसी को यह हक़ मिलना चाहिए कि वह अपने जीवनसाथी के साथ घर बसा सके, बच्चे पाल सके, और समाज में सम्मान से जी सके।

हमें यह समझना होगा कि प्रेम प्राकृतिक है तथा भेदभाव  के लिए कोई स्थान नहीं।

अब समय आ गया है कि हम अपने सोच के दायरे को बड़ा करें और एक समावेशी, दयालु और  मानवाधिकार केंद्रित समाज की नींव रखें।

FAQ :

प्रश्न :LGBTQ+ समुदाय के कानूनी अधिकार क्या हैं ?

उत्तर : सामान्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय को भी सभी अधिकार प्राप्त हैं कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर | 

प्रश्न :क्या अन्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय के  लोगों को भी सामान मानव अधिकार प्राप्त हैं ?

उत्तर :हाँ , कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर |  

प्रश्न :मैं अपनी या परिवार के अधिकारों के बारे में जानकारी कहा से लू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए कार्यरत गैर सरकारी संघठनो(NGO ) से संपर्क साध कर | 

प्रश्न :मैं अपने लिए एक अच्छा वकील कैसे ढूँढू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए काम करने वाले वकील से संपर्क साधें | 

प्रश्न :भारत में समलैंगिक जोड़ों का विवाह करना कानूनी है?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समान लिंग वाले जोड़े सामान्य कानून के तहत विवाह कर सकते हैं?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समलैंगिक जोड़ा लाइव इन रिलेशन में रह सकता है ?

उत्तर : रह सकता है | 

प्रश्न :मैं और मेरा पार्टनर सचमुच शादी करना चाहते हैं! हम क्या कर सकते हैं?

उत्तर : लाइव इन रिलेशन में रह सकते हैं | 

प्रश्न  :मैं एक अच्छे समलैंगिक रिश्ते में हूँ, लेकिन मैं शादी नहीं करना चाहता। आपके पास मेरे लिए क्या है?

उत्तर : आप लाइव इन रिलेशन में रह सकते है | 

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