मंगलवार, 26 अगस्त 2025

काटते कुत्तों से कराहते लोग: सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला और NCR की सच्चाई!

आवारा कुत्ता (STRAY DOG)

प्रस्तावना 

भारत आवारा कुत्तों की एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है | आज देश भर में सड़कों और गलियों में आम आदमी को चोर उच्चक्कों और बदमासो से इतना डर नहीं है जितना डर आवारा कुत्तों के हमलों का है | आये दिन अखबारों और न्यूज़ चैनलों में खबरे आती है -बच्चो पर आवारा कुत्तों का हमला, कुत्तों ने सुबह की सैर करते बुजुर्ग को नौचा, कुत्तो के काटने से अस्पताल में भर्ती, अस्पातल में रैबीज के टीके की किल्लत |

आवारा कुत्तों के हमलों का भारत पर दबाब

सरकारी आकड़ों के अनुसार भारत में डॉग बाईट (कुत्ता काटने) की घटनाएं साल दर साल बड रही हैं | वर्ष 2022  में  डॉग बाईट की 21,89,909  घटनाएं हुई | वर्ष 2023 में ये घटनाएं बढ़कर 30,52,521 हो गई  तथा वर्ष 2024 में इन घटनाओं में अप्रत्याशित बृद्धि हुई और 37,15,713  घटनाओं तक पहुच गई | सिर्फ जनवरी 2025 के आकड़े  4,29,664 घटनाओं तक पहुंच गए | ये आकड़े सरकारी है यद्यपि वास्तविकता में ये आकड़े और भी अधिक हो सकते हैं | यानी हर साल लाखों लोग आवारा कुत्तों के काटने से पीड़ित हो रहे है और खौफजदा हैं |

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसलाआम आदमी को इंसाफ की उम्मीद ?

आवारा कुत्तो के हमलों को लेकर लम्बे समय से देश के विभिन्न हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई चल रही है | न्याय भूमि बनाम गवर्नमेंट ऑफ़ एन सी टी ऑफ़ दिल्ली एंड अदर्स के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने स्थापित किया कि, "दिव्यांगजनों को आवारा पशुओं के हमले के खतरे के बिना चलने का मौलिक अधिकार है।" भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला एक कानून बना, जिसे दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के रूप मे जाना जाता है | 

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबरसिटी हाउंडेड बाय स्ट्रेज, किड्स पे प्राइसके आधार पर मामले का स्वतः संज्ञान लिया था इस खबर में रैबीज से छह साल की बच्ची की मौत के बारे में बताया गया था|

कोर्ट ने 11 अगस्त 2025 को आदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में सड़कों से पकडे गए आवारा कुत्तों को उनके स्थानांतरण के बाद फिर से सड़कों पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इस संबंध में, संबंधित अधिकारियों द्वारा नियमित रूप से उचित रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए।आवारा कुत्तों को पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 के अनुसार पकड़ा जाएगा, उनकी नसबंदी की जाएगी और उनका टीकाकरण किया जाएगा | जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है,उन्हें वापस नहीं छोड़ा जाएगा। कुत्ता आश्रयों/पाउंडों में आवारा कुत्तों की नसबंदी और उनका टीकाकरण करने के लिए और हिरासत में लिए जाने वाले आवारा कुत्तों की देखभाल के लिए पर्याप्त कर्मचारी होने चाहिए।

दिल्ली सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि साल 2024 में भारत में 37 लाख से ज्यादा कुत्ता काटने के मामले दर्ज हुए। उन्होंने दलील दी कि सिर्फ नसबंदी से हमलों को रोका नहीं जा सकता और बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए तुरंत कदम उठाना जरूरी है।

सभी पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस एन.वी. अंजरिया की तीन जजों की पीठ ने 22 अगस्त 2025 को संशोधित दिशानिर्देश जारी किए, जो इस प्रकार हैं:

1.आवारा कुत्तों को पकड़ कर नगर निगम और प्राधिकरण द्वारा नसबंदी और टीकाकरण किया जाय।

2.रेबीज से संक्रमित या आक्रामक कुत्तों को छोड़ कर अन्य सभी आवारा कुत्तों को नसबंदी और टीकाकरण के बाद वापस उनके इलाकों में छोड़ा जाए|

3.हर वार्ड में फीडिंग जोन बनाए जाएं, और सड़कों पर खाना खिलाना प्रतिबंधित होगा।

4.कोर्ट के आदेश के पालन में बाधा डालने वाले व्यक्ति या संगठन पर कार्रवाई होगी।

5.जो नागरिक आवारा कुत्तों को गोद लेने के इच्छुक हैं वे नागरिक नगर निगम से संपर्क कर विधिवत प्रक्रिया के तहत कुत्ते को गोद ले सकते हैं, लेकिन उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि वह कुत्ता दोबारा सड़क पर न आए।

6.कोर्ट के आदेश में यह मामला अब सिर्फ दिल्ली एनसीआर का नहीं रहा बल्कि इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत के लिए कर दिया गया है | अब सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को ABC नियम, 2023  का पालन करना होगा | 

कोर्ट के इस फैसले ने एनिमल लवर्स को निश्चित रूप से खुश होने का अवसर दिया है, लेकिन काटते कुत्तों से कराहते लोगों को शायद वह राहत नहीं मिली है जिसकी उन्हें उम्मीद थी | ज़मीनी स्तर पर कुत्तों के हमले से आमजन को राहत कैसे मिलेगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा |

आम आदमी की हालत

बच्चे खेल के मैदान में जाने से डरते हैं। माता-पिता बच्चों को अकेले स्कूल भेजने से कतराते हैं। बुज़ुर्ग सुबह-सुबह वॉक पर निकलने से डरते हैं। दिहाड़ी मज़दूर और ग़रीब तबका सबसे ज्यादा पीड़ित है, क्योंकि उनके पास कुत्तों के हमलों से बचने के लिए आवागमन के लिए चार पहिया वाहन नहीं हैं, महंगे रेबीज इंजेक्शन या सुरक्षित गेट बन्द कॉलोनी का विकल्प ही नहीं है। सवाल यह हैजब इंसान ही सुरक्षित नहीं रहेगा तोमानव अधिकारकिस काम के?

दैनिक भास्कर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार एक कुत्ते ने मात्र घंटे में करीब 25 मासूम बच्चों पर हमले किये | भारत के अन्य शहरों से भी खबरे है जिनमे मासूम बच्चों को कुत्तों के झुण्ड ने बुरी तरह से नौचा और बाद में उनकी मृत्यु हो गई |  सोशल मीडिया पर तैरते इन घटनाओं के वीडियो अत्यधिक ह्रदय बिदारक है| जिन्हे एक सामान्य आदमी देख भी नहीं सकता है |

यद्यिप सरकार के आकड़े के अनुसार कुत्ते के काटने से होने वाली रैबीज की बीमारी से मौतों का आकड़ा एक सैकड़ा से भी नीचे है लेकिन काटने के मामले लाखों में होने से इनके इलाज से गरीब आम आदमी की कमर टूट रही है| जबकि अधिकाँश गरीब इसके इलाज के लिए सरकारी अस्पताल पर ही निर्भर रहते है | जहाँ कभी उन्हें विभिन्न वजहों से एंटी रैबीज टीके नसीब नहीं हो पाते और उन्हें अनावश्य्क और अकाल मृत्यु को गले लगाना पड़ता है |

मासूम की तड़प -तड़प कर मृत्यु

आगरा में एक बच्ची को कुत्ते ने काट लिया | उसका पिता उसे सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर ले गया| जब उसने स्वास्थ्य कर्मियों को बच्ची को टीका लगवाने के लिए कहा तो उन्होंने बच्ची का आधार कार्ड मांगा जो उस समय पर उसके पास नहीं था | दुबारा उसके कभी एंटी रेबीज का टीका नहीं लग पाया | आखिरकार  कुछ समय बाद उस मासूम बच्ची की तड़प -तड़प कर मृत्यु हो गई | उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अधिकारियों से घटना की विस्तृत जांच रिपोर्ट मांगी |यह मामला है वर्ष 2019 का तथा इस सम्बन्ध में 28 अगस्त के  "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के दिल्ली/आगरा अंक में खबर छपी |

आवारा कुत्तों के हमले में बदनसीब बाप ने अपनी मासूम बच्ची को खो दिया| उसकी मदद के लिए सरकार आई कुत्तों के लिए आँसू बहाने वाले एनिमल लवर्स और गैर सरकारी संगठन | मासूम बच्ची को बचपन में ही खोने की अथाह पीड़ा उसका परिवार ही समझ सकता है अन्य कोई नहीं

बच्ची के पिता ने आगरा के मानव अधिकार न्यायालय में मुआवजे के लिए एक याचिका डाली थी | वह याचिका भी मूल क्षेत्राधिकार के अभाव में खारिज हो गई

उसे किसी प्रकार का न्याय मिला क्या ? शायद नहीं ? उसकी गरीबी के चलते वह अपना केस उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में असमर्थ रहा | गरीबी हमेशा मानव अधिकारों का अतिक्रमण करती है |

डॉग लवर्स बनाम पीड़ित लोग

इस पूरे मुद्दे पर समाज स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बंट गया है,एक तरफ एनिमल लवर्स की दलीलें है और दूसी और आवारा कुत्तों के हमलों से पीड़ित लोग, भयभीत या कराहते लोगों की दलीलें | डॉग लवर्स कहते हैं – “कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से हटाना अमानवीय है। उन्हें भी जीने का अधिकार हासिल हैं।”  पीड़ित कहते हैं – “इंसान की जान सबसे ऊपर है।"  

आराम करते आवारा कुत्ते  (STRAY DOGS)

इस बात को टी एम इरशद बनाम केरला राज्य, 2024 में केरला उच्च न्यायालय ने भी स्थापित किया है कि, "आवारा कुत्ते हमारे समाज में एक ख़तरा पैदा कर रहे हैं। स्कूली बच्चे अकेले स्कूल जाने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं आवारा कुत्ते उन पर हमला न कर दें। कई नागरिकों की सुबह की सैर पर जाना आदत बन गई है। आवारा कुत्तों के हमले की आशंका के कारण आजकल कुछ इलाकों में सुबह की सैर भी संभव नहीं है। अगर आवारा कुत्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है, तो कुत्ते प्रेमी उनके लिए लड़ेंगे। लेकिन हमारा मानना ​​है कि इंसानों को आवारा कुत्तों से ज़्यादा तरजीह दी जानी चाहिए। बेशक, इंसानों द्वारा आवारा कुत्तों पर बर्बर हमले की भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।"

हाँ,आम आदमी और गरीब की एक चिंता जरूर है कि अगर कुत्तों से हमारी जान जाएगी या उनके काटने से शारीरिक ,मानसिक और आर्थिक पीड़ा होगी, तो हमारे अधिकारों का क्या होगा?”

समाधान

भारत मे आवारा कुत्तो के हमलो की गम्भीर समस्या का समाधान निम्नवत संभव है |

1.तेज़ नसबंदी अभियान – वर्ल्ड आर्गेनाइजेशन ऑन एनिमल हेल्थ के अनुसरण में सरकार द्वारा आवारा कुत्तों के 70 %  का तेजी के साथ टीकाकरण और नसबंदी का लक्ष्य ईमानदारी से प्राप्त किया जाना चाहिए | 

2.डॉग शेल्टर होम्स का निर्मानहर शहर में व्यवस्थित तौर पर डॉग शेल्टर्स /सेंटर बनाए जाएं।

3.रैबीज़ वैक्सीन की मुफ़्त् व्यवस्थाखासकर गरीब तबके के लिए वेक्सीन की व्यवस्था निशुल्क करने का प्रावधान हो |  

4.जवाबदेही तय होनगर निगम और प्रशासन पर कुत्तों की नसबंदी और उनके वेक्सीनेशन के सम्बन्ध में उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए | लापरवाही की स्तिथि में जुर्माना लगाया जाना चाहिए |

5.सख्त कानूनइंसान की जान को खतरे में डालने वाले मामलों में सख्त दंड का प्रावधान किया जाए | कुत्ते के काटने से घायल या मृत्यु की स्तिथि में तत्काल आर्थिक मुआवजे का प्रावधान किया जाए |

निष्कर्ष

भारत में यह बहस सिर्फ कुत्तों के अधिकार बनाम इंसानों के अधिकार की नहीं है।असल सवाल यह है किक्या हम अपनी सड़कों और गलियों को बच्चों ,बुजुर्गों और आमजन के लिए सुरक्षित बना पाएंगे या नहीं? डॉग लवर्स की भावनाएं अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन इंसान का जीवन सबसे पहले आता है ,जिसका समर्थन माननीय केरला हाई कोर्ट ने भी अपने एक निर्णय में किया है | सुप्रीम कोर्ट ने दिशा तो दिखा दी हैलेकिन असली इंसाफ तभी मिलेगा जब कानून, सरकार और समाज मिलकर एक ठोस कदम उठाकर समस्या का सम्पूर्ण समाधान करने में सफल होंगे | क्योंकि सवाल अब भी वही है – “काटते कुत्तों से कराहते लोग आखिर कहाँ और कब पाएंगे इंसाफ?”

FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न ):-

प्रश्न :भारत में Stray Dogs इतने क्यों हैं?

उत्तर : भारत में Stray Dogs की संख्या ज़्यादा है क्योंकि नसबंदी (spaying/neutering) कम होती है, कूड़े-कचरे और समाज से उन्हें आसानी से खाना मिल जाता है।

प्रश्न : क्या Stray Dogs इंसानों के लिए खतरनाक हैं?

उत्तर : हाँ। भारत में हर वर्ष करीब 47 लाख लोग Dog Bites का शिकार होते हैं और इनमें से सैकड़ों मौतें Rabies Infection से होती हैं।

प्रश्न : क्या Stray Dogs को मारना कानूनन सही है?

उत्तर : नहीं। भारत में Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 और ABC Rules, 2023 के अनुसार Stray Dogs को मारना गैर-कानूनी है।

प्रश्न : अगर Stray Dog काट ले तो क्या करें?

उत्तर : काटने के घाव को तुरंत साबुन और पानी से धोएं, तत्काल डॉक्टर से संपर्क कर  Anti-Rabies Vaccine (ARV) और Tetanus Injection लगवाएं | 

प्रश्न : क्या Stray Dogs को खाना खिलाना गैर-कानूनी है?

उत्तर : नहीं। Supreme Court और High Court के फैसलों के अनुसार Stray Dogs को खाना खिलाना अपराध नहीं है। लेकिन नगर निगम या स्थानीय प्रशाशन द्वारा निर्धारित फीडिंग ज़ोन्स पर ही खाना खिलाने की अनुमति है |  

प्रश्न : Stray Dogs की नसबंदी और Vaccination की जिम्मेदारी किसकी है?

उत्तर : नगर निगम (Municipal Corporations) की कानूनी जिम्मेदारी है | यह जिम्मेदारी उन्हें  ABC (Animal Birth Control) Program,2023  के अनुसरण में निर्वहन करनी होती है | 

प्रश्न : Rabies से सबसे ज़्यादा खतरा किससे है?

उत्तर :विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल लगभग 20,000 मौतें Rabies से होती हैं और इनमें से 95% केस Dog Bites से जुड़े होते हैं।

प्रश्न: Stray Dogs इंसानों पर हमला क्यों करते हैं?

उत्तर : ज़्यादातर कुत्ते भूख, डर या अपने बच्चों की रक्षा करने के कारण इंसानों पर हमला करते हैं।

प्रश्न :सुप्रीम कोर्ट का Stray Dogs पर हालिया फैसला क्या कहता है?

उत्तर : सुप्रीम कोर्ट ने लोगों की सुरक्षा और कुत्तों के अधिकार दोनों  में संतुलन करने का प्रयास किया  | नगर निगम को नसबंदी और टीकाकरण तेज़ करने का आदेश दिया गया।नसबंदी और टीकाकरण के बाद आवारा कुत्तों को उसी स्थान पर छोड़ने के आदेश किये है जहाँ से उन्हें पकड़ा था | 

प्रश्न : Stray Dogs की समस्या हो तो क्या करें?

उत्तर : स्थानीय नगर निगम को शिकायत करें| Stray Dogs को मारना गैर-कानूनी है।

  

शनिवार, 23 अगस्त 2025

आवारा कुत्तों की घर वापसी – डॉग लवर्स की बड़ी जीत!

 

आवारा कुत्ते

प्रस्तावना

भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर के अनेक देशों में आवारा कुत्तों के हमलों का मुद्दा लम्बे समय से विवाद का केंद्र रहा है | भारत की सड़कों पर आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या,उनके ताबड़-तोड़ हमले और भय से आम लोग परेशान और त्रस्त रहे है | राज्यों के अलग अलग स्थानीय नगर निगम और ग्राम पंचायत कानूनों में प्रावधान है कि सड़कों को आवारा जानवरों से मुक्त कराना स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी है | इस जिम्मेदारी का कोई निर्वहन उचित रूप से कही भी दृष्टिगोचर नहीं होता है | अभी हाल ही में  कुत्तों के काटने से दिल्ली में हुई 6 वर्षीय बच्ची की मृत्यु का समाचार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ,अंगरेजी दैनिक में  छापा | जिसका माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया | जिसके बाद दिल्ली सरकार को सड़क से आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर होम्स में भेजनी का आदेश दिया गया | 

इस आदेश के आते ही डॉग लवर्स और जानवरों के लिए काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया | मेनका गाँधी ,राहुल गाँधी,भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश काटजू साहब तथा अनेक  बड़े- बड़े  फिल्म स्टार एनिमल लवर्स के समर्थन में खड़े दिखाई दिए | एनीमल लवर्स ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमानवीय बताया तथा याय भी दलील दी कि जानवरों के भी अधिकार होते हैं | 

आख़िरकार हाल ही में  दिनांक 22 /08 /2025 को सुप्रीम कोर्ट का संशोधित फैसला सामने आया | देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में बदलाव करते हुए आवारा कुत्तों की नसबंदी करने के बाद उन्हें उन्हीं इलाकों में छोड़े जाने के आदेश दिया है, जहाँ से उन्हें पकड़ा गया था।

अदालत और प्रशासन का फैसला

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने कई सुनवाइयों में कहा कि कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता है | इस सम्बन्ध में मौलिक विधि पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम, 2001 के तहत प्रावधान किये गए है, जिसके तहत भी भारत में किसी भी व्यक्ति, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन या एस्टेट प्रबंधन के द्वारा आवारा कुत्तों की उनके मूल निवास से बेदखली या स्थानांतरण गैरकानूनी है।उन्हें किसी भी स्तिथि में हटाया नहीं जा सकता है | 

हालिया फैसले में माननीय न्यायालय ने  दिल्ली सरकार को आदेशित किया है कि आवारा कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण (Vaccination) के बाद उन्हें उनके मूल स्थान पर ही छोड़ा जाए | यह फैसला डॉग लवर्स की बड़ी जीत है | 

डॉग लवर्स की जीत क्यों?

डॉग लवर्स का सबसे बड़ा तर्क यही था कि आवारा कुत्ते भी समाज का अभिन्न अंग हैं।प्राकृतिक संतुलन आवश्यक है | आवारा कुत्तों को उनके मूल निवास स्थान से उठा ले जाना और शेल्टर् होम्स में रखना उनके अधिकार का उलंघन है क्यों कि जानवरो के भी अधिकार होते हैं | यह कार्य अमानवीय भी है | 

किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया खाना खाता हुया आवारा कुत्ता

आवारा कुत्तों की घर वापसी के फैसले ने यह साबित कर दिया कि अदालत भी जानवरों के अधिकारों  को उतना ही महत्व देती है जितना इंसानों के अधिकारों को। माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला उन सभी गैरसरकारी संगठनों और पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ी तथा अविस्मरणीय जीत है, जिन्होंने  हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तत्काल बाद रात्रि को ही दिल्ली में स्थित इंडिया गेट पर फैसले के विरोध जोरदार विरोध प्रदर्शन किया और सभी एनिमल लवर्स को एक जुट होने का आह्यवान किया था | यह जीत एनिमल लवर्स को मात्र 11 दिन में मिल गई |  

आम जनता की चिंता

हालांकि यह फैसला डॉग लवर्स के लिए जीत है, लेकिन आम जनता  के लिए अभी भी विचारणीय मुद्दा है तथा राहत की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उग्र कुत्तों और बीमारी से ग्रस्त आवारा कुत्तों को नहीं छोड़ा जाएगा | आम जनता अर्थात कुत्तों के हमलो से पीड़ित लोगों के लिए सिर्फ यही राहत की बात है | देखना यह है कि बच्चों और बुज़ुर्गों पर आवारा कुत्तों के हमलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से क्या कमी आती है यह तो भविष्य ही बताएगा | 

आमजन का मानना है कि अगर कुत्तों की घर वापसी हो रही है तो सरकार को ईमानदारी और सख़्ती से नसबंदी और वैक्सीनेशन लागू करना होगा, ताकि आमजन को कुछ राहत मिल सके |  

आगे का रास्ता – संतुलन की ज़रूरत

यह फैसला साफ़ करता है कि सिर्फ़ कुत्तों को उनकी मूल निवास से हटाना या उनका मारा जाना समस्या का कोई मानवीय हल नहीं है| विश्व स्वास्थय संघटन के पैमाने के अनुसार नसबंदी (Sterilization) से उनकी संख्या नियंत्रित की जा सकती है, लेकिन यह कार्य ईमानदारी और प्रबल राजनैतिक इच्छा सक्ति के तहत होना चाहिए | इसके साथ ही आवारा कुत्तों के वैक्सीनेशन (Vaccination) से रेबीज़ जैसी बीमारियों से बचाव होगा।जो अनावश्यक और अकाल मृत्यु को रोकने के लिए महत्वपूर्ण कदम है | कुत्तों के लिए फीडिंग जोन बनाये जाने से भी आमजन और आवारा कुत्तों के बीच टकराव  कम होने की अच्छी सम्भावनाये है | साथ ही सभी को आवारा कुत्तों के साथ सहअस्तित्व की बेहतर संभावनाओं को तलाशने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है | 

निष्कर्ष

आवारा कुत्तों की घर वापसी सिर्फ़ एक न्यालयिक निर्णय नहीं, बल्कि यह मानवाधिकारों और पशु-अधिकारों के बीच संतुलन का प्रतीक है।

जहाँ डॉग लवर्स इसे अपनी बड़ी जीत मान रहे हैं, वहीं आम नागरिक उम्मीद लगाए बैठे हैं कि अब सरकार और नगर निगम उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में कोई हीला हवाली नहीं करेंगे।

बुधवार, 13 अगस्त 2025

आवारा कुत्तों के आगे बेबस इंसान – किसका हक पहले ?

STRAY DOGS

भूमिका 

अभी हाल ही में आवारा कुत्तों से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने टिपणी की कि  “कुत्ते इंसान के सबसे अच्छे दोस्त हैं उन्हें गरिमा के साथ जीने का हक है |” अर्थात जानवरों के जीवन के अधिकार को माननीय न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया है | लेकिन हाल ही के वर्षों में आवारा कुत्तों के बच्चों,बुजुर्गों और आमजन पर हो रहे जान लेवा और भीभत्स हमलों ने सम्पूर्ण भारत में त्राहिम - त्राहिम मचा रखी है | आमजन में अपने बच्चों और बुजुर्गों पर आवारा कुत्तों के हमलों को लेकर चिंत्ता बढ़ी है | यही नहीं लोग आवारा कुत्तों से जुड़े मामले लेकर कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुए है | 

A dog attacking children in Bhilwara district of Rajasthan

कुत्तों के हमले एक गंभीर समस्या 

दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के अनुसार 19 जुलाई 2025 को राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कुत्ते की काटने की एक घटना में  कुत्ते ने 2 घंटे में 45 लोगों पर हमला किया तथा उनके हाथ-पैर नोचे,  इनमे 25 बच्चे भी शामिल थे | 

सम्पूर्ण देश में हो रहीं इस तरह की घटनाओं ने इंसानी जान के प्रति खतरे को गंभीर कर दिया है इस कारण लोग इसे गंभीरता से ले रहे है | आज इंसान और जानवरों के बीच एक संघर्ष की स्तिथि पैदा हो गई है | 

न्यायालयिक पहुंच 

माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कुत्तों के काटने की घटनाओं से सम्बंधित 193 रिट याचिकाएं हुई | जिनका निस्तारण मानीय न्यायालय ने एक साथ किया | यही नहीं देश के कई अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी कुत्तों के काटे जाने की घटनाओं को लेकर मामले दायर किये गए हैं | 

अभी हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली में कुत्तों द्वारा काटे जाने से रेबीज होने के कारण एक 6 वर्षीय बची की मृत्यु को लेकर एक अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर का संज्ञान लेते हुए स्वप्रेरणा से एक जनहित याचिका को स्वीकार किया गया | याचिका पर प्राथमिक सुनवाई सुनवाई के बाद मानीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि 8 हफ़्तों के अंदर दिल्ली सरकार को दिल्ली एनसीआर की सड़को से सभी आवारा कुत्तो को एनिमल शेल्टर्स में शिफ्ट करे | कुत्तों के हमलों के खतरों से बचाव के सम्बन्ध में सर्वोच्च अदालत का यह एक ऐतिहासिक फैसला है | जो बच्चे कुत्तों के डर से स्कूल जाने से,पार्क में जाने से,बाजार जाने से डरते थे अब वे चैन  की सांस ले सकेंगे | ये फैसला विशेष कर बच्चों और वुजुगों के लिए जीवनदायी सिद्ध होगा |    

आमजन बनाम कुत्ता प्रेमी 

कई बार न सिर्फ आवारा बल्कि अनेक जगह पालतू कुत्तों के हमले भी जानलेवा साबित हुए हैं | ऐसी स्तिथि में इंसानी हुकूक और कुत्तों के हुकूक के बीच प्राथमिकता का एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता है | एक तरफ आमजन जो कुत्तों के हमलों से परेशान है, दुसरी तरफ कुत्ता प्रेमियों की फ़ौज जो हमेसा कुत्तों को जहाँ वह रहता है से दुसरे स्थान पर स्थानांतरित करने का विरोध करते है ,के बीच असमंजस और संघर्ष की स्थति उत्पन्न हो गई है | 

इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता ?

क्या हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ इंसान की जान से ज्यादा कुत्तों की जान को प्राथमिकता दी जा रही है ? इंसानी जीवन को खतरों से बचाना उसका हक़ नहीं है ? कुत्तों के हमलों से इंसानी जीवन को होने वाले खतरे की जिम्मेदारी कौन लेगा ? अन्ततोगत्वा ये जिम्मेदारी जागरूक समाज और राज्य को ही उठानी पड़ेगी | इंसान बनाम कुत्ते– प्राथमिकता किसे दी जानी चाहिए ? पीड़ित हमेशा इंसान के पक्ष में होगा, लेकिन जानवर प्रेमी सदैव कुत्तों के पक्ष में खड़े दिखाई देते है | कुत्तों के हमलों में मासूम और इकलौतों बच्चों की मृत्यु पर भी पशु प्रेमियों की संवेदनाये  बहुत ही कम द्रष्तिगोचर होती है | भारत में सड़क पर घूमने वाले आवारा कुत्तों की संख्या लाखों में है। ऐसा नहीं है कि  सभी कुत्ते आक्रामक  या रेबीज के बाहक है लेकिन  फिर भी समस्या गंभीर है तथा आमजन में आक्रोश है |  इनमें से अनेक कुत्ते कोई नुकसान नहीं करते। लेकिन…कई बार ये झुंड में हमला कर देते हैं | छोटे बच्चों पर, बुजुर्गों पर, अकेले जा रहे लोगों पर।

भारत में कुत्ते काटने की घटनाओं का सरकारी आँकड़ा

भारतीय संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल करीब 37 लाख कुत्तों के काटने की घटनाये दर्ज हो रही हैं और कई मामलों में लोगों की जान भी जा रही है। कुत्तों के हमलों और उससे होने वाली रेबीज की बीमारी से बच्चे, बूढ़े और जवानों की अकाल और अनावश्यक मृत्यु की ख़बरें लगातार सामने आ रही हैं | लेकिन जब भी कोई आवाज़ उठाता है, जानवर प्रेमी विरोध के लिए सामने होते हैं | जानवरों के कोई हकूक नहीं है इसमे कोइ सचाई  नाही है  बल्कि  सच्चाइ यह है  कि जानवरों को कानूनी हकूक हासिल हैं | कोई उनके खिलाफ नहीं है | कोई नहीं चाहता कि कुत्ते समाज का एक अंग न हो लेकिन ये जिम्मेदारी से हो | कोई जिम्मेदारी तो ले | जिम्मेदारी के लिए कोई सामने नहीं आता | सब चाहते हैं – प्रशासन जिम्मेदारी ले। इस सम्बन्ध में स्थानीय निकाय कानूनों में आवारा जानवरों के प्रबंधन के प्रावधान किये गए है उनका अनुसरण होना चाहिए |

इंसानी जीवन को प्राथमिकता

ये झगड़ा इंसान और जानवरो के बीच का नहीं है, ये मुद्दा है सुरक्षा और संवेदनशीलता के बीच का।इंसानी सुरक्षा भी जरूरी है और जानवरों के प्रति संवेदनशीलता भी ज़रूरी हैं… लेकिन प्राथमिकता इंसानी जीवन को मिलनी ही चाहिए।यह कहना है केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी वी कुन्हीकृष्णन का | उन्होंने यह भी कहा कि,"आवारा कुत्तों के हमले के डर से अनेक बच्चे अकेले स्कूल जाने से डरते हैं। अनेक लोग सुबह की सैर करने से डरते है |अगर आवारा कुत्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है, तो कुत्ते प्रेमी उसके लिए लड़ने के लिए तैयार रहेंगे |"

भारत में न्यायालय का फैसला सर्वोपरि है | हम सब  बतौर एक अच्छे नागरिक उसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है | पशु प्रेमी भी अपनी जायज बात भारत के किसी भी न्यायालय में रखने के लिए स्वतंत्र है | ख़तरा मुक्त वातावरण संतुलित विकास के लिये आवश्यक है | 

FAQ :-

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों से कैसे छुटकारा पाएं?

उत्तर :नई दिल्ली स्थित भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वप्रेरित जनहित याचिका में फैसला सुनाया कि आठ हफ़्तों के भीतर सभी आवारा कुत्तों को पकड़कर स्थायी रूप से आश्रय गृहों में रखा  जाए ।

प्रश्न : दिल्ली में आवारा कुत्तों के साथ क्या हो रहा है?

उत्तर: सर्वोच्च न्यायलय ने दिल्ली सरकार को आदेशित किया है कि दिल्ली एनसीआर की सड़कों से सभी आवारा कुत्तों को आश्रय गृहों में भेजा जाए | 

प्रश्न : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का क्या आदेश है?

उत्तर : कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश  दिल्ली एनसीआर की सड़कों पर आवारा कुत्तों को पकड़ कर उन्हें आश्रय गृहों में स्थाई तौर पर भेजा जाए तथा इस कार्य में बाधा डालने वालों पर अदालत की अवमानना की कार्यवाही की चेतावनी भी दी है | 

  







 

सोमवार, 4 अगस्त 2025

इंसान वही, हक अलग क्यों? कब मिलेगा LGBTQ+ को विवाह का अधिकार!

भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है |
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भूमिका

“परिवार” – सामान्य रूप में एक ऐसा शब्द है, जो  संवेदनाओं से भरा हुया है तथा परिवार का सदस्य होने के नाते हर सदस्य को प्यार, अपनापन और सुरक्षा का एहसास कराता है। 

लेकिन क्या हर इंसान इतना खुसनसीब है कि उसे यह अधिकार मिल पाए ? क्या नैतिक और कानूनी तौर पर हर इंसान को बिना किसी विभेद के अपनी इच्छा से विवाह करने तथा परिवार बनाने की आज़ादी है? दुर्भाग्यवश, भारत में LGBTQ+ समुदाय  के सदस्य आज भी इन मूलभूत मानव अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करने के लिए विवश हैं | वे आज भी विवाह के मूलभूत महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित है।इस संबन्ध मे उन्हे न्यायालय से भी कोइ उपचार नही मिला है | 

दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (2022 आईएनएससी 834) में, यह माना गया कि पारिवारिक संबंध घरेलू, अविवाहित भागीदारी या विचित्र संबंधों का रूप ले सकते हैं और जो परिवार पारंपरिक परिवारों से अलग हैं, उन्हें नुकसानदेह स्थिति में नहीं रखा जा सकता। कहना न होगा "परिवार" शब्द को विस्तृत अर्थ में समझा जाना चाहिए।

इस लेख के माध्यम से आज हम बात करेंगे एक ऐसे मुद्दे की, जो केवल नैतिकता, कानून या संविधान से जुड़ा नहीं है, बल्कि प्यार ,संवेदनाओं और समानता के मूलभूत  मूल्यों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है – LGBTQ+ समुदाय का  विवाह करने तथा परिवार बनाने का मानव अधिकार।

LGBTQ+ समुदाय का संघर्ष: पहचान से अधिकार तक

LGBTQ+ समुदाय – यानी लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर व्यक्तियों का समूह  सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि भारत में भी पिछले कई दशकों से अपनी अलग पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष करता आया है। इनकी अलग पहचान के मुद्दे का भी एक इतिहास रहा है | 

भारत में ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए क़ानून बना कर उनकी अलग पहचान को भी सम्मान दिया गया तथा अन्य अधिकारों को भी तवज्जो दी गई | ये कानून है - ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019| इसका उद्देश्य ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मान्वाधिकारो की रक्षा करना है लेकिन यहकानून भी उनके विवाह पर शान्त है| 

LGBTQ+ समुदाय के पक्ष में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक फैसले द्वारा आई पी सी की धारा 377 को रद्द कर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यह एक बड़ी जीत थी – लेकिन यह सिर्फ एक क़ानूनी कदम था | 

क्योकि आज भी भारत में जब एक समलैंगिक जोड़ा विवाह की बात करता है या परिवार बनाने की बात करता है या एक अन्य व्यक्ति के साथ जीवन बिताने की बात करता है, या बच्चा गोद लेने की बात करता है, तो उन्हें कानूनी और नैतिक दोनों ही स्तर पर समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समाज और सिस्टम आज भी इस समुदाय के विवाह और परिवार बनाने के अधिकार के विरोध में खड़ा हुया है | 

प्रश्न उठता है कि क्या दो परुष अपना विवाह नहीं कर सकते और क्या एक महिला दूसरी महिला से मिलकर विवाह नहीं कर सकती हैं तथा वे माता -पिता नहीं बन सकतीं ? क्या इस समुदाय के दो व्यक्ति, जो एक-दूसरे से आपस में गहरा प्रेम करते हैं, एक बच्चे को उतना ही स्नेह और सुरक्षा नहीं दे सकते जितना एक विषमलैंगिक जोड़ा देता है ? 

यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और विधिक रूप से अत्यधिक जटिल विषय है लेकिन समाधान तो समय की आवश्यकता है | किसी भी व्यक्ति को प्रद्दत उसके मानव अधिकारों से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जा सकता है | सभी व्यक्तियों को, चाहे उनकी यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान कुछ भी हो, मानवाधिकारों के सार्वभौमिक आनंद का अधिकार है  

परिवार बनाने का अधिकार: केवल विषमलैंगिकों का विशेषाधिकार?

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसके साथ साथ अन्तराष्ट्रिय मानव अधिकारों के तहत भी दो प्रोढ़ लोगो को उनकी इच्छा के अनुसार विवाह तथा परिवार बनाने का अधिकार मिला हुया है लेकिन जब LGBTQ+ व्यक्तियों की बात आती है, तो विवाह और 'परिवार' जैसी संस्थाएं केवल  विषमलिंगी संबंधों (पुरुष और महिला के रिश्ते) तक ही सीमित रह जाती हैं। यह गंभीर बिडम्बना का विषय है | 

क़ानूनी सवाल उठते हैं:

क्या LGBTQ+ जोड़ों को विवाह का अधिकार होना चाहिए?

क्या उन्हें परिवार बनाने का अधिकार होना चाहिए   ?

क्या वे संतान गोद ले सकते हैं ?

क्या उन्हें परिवार का दर्जा मिल सकता है? 

सही मायने में इन सवालों का उत्तर स्पष्ट है – हाँ, क्योंकि यह अधिकार "इंसान" होने के नाते मिलना चाहिए, न कि केवल किसी विशेष लैंगिक या यौन पहचान के आधार पर।यौन पहचान के आधार पर आज भी गंभीर भेदभाव का अस्तित्व मानव अधिकारों का गंभीर उलंघन है | 

केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका

2023 में सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था सुप्रियो @ सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत संघ (2023 INSC 920) में माननीय न्यायालय ने भले ही समलैंगिक जोड़ों के बीच विवाह को वैध नहीं बनाया हो, लेकिन  यह स्पष्ट किया कि वे बहुत अच्छी तरह से एक परिवार बना सकते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि यह संसद का विषय है। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि LGBTQ+ व्यक्तियों को एक साथ रहने और जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, और उन्हें भेदभाव से बचाया जाना चाहिए।

मद्रास उच्च न्यायालय की पीठ ने दिनांक: 22.05.2025 को एम.ए. बनाम पुलिस अधीक्षक, वेल्लोर एवम अन्य में महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया | जिसमे LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार दिया गया है जो कि बहुत ही प्रगतिशील नर्णय है | 

माननीय न्यायमूर्ति जी.आर.स्वामीनाथन और माननीय न्यायमूर्ति वी.लक्ष्मीनारायणन की  पीठ ने ये फैसला सुनाया |  

इस मामले के किरदार समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली दो लड़कियां है |इस मामले में याचिकाकर्ता लड़की से समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाली लड़की को उसकी परिवार ने उसकी इच्छा के विरुद्ध अवैध हिरासत में रखा हुया था|

यह बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी जिसमे याचिकाकर्ता द्वारा पिता की अवैध हिरासत से उसकी 25 वर्षीय बेटी को स्वतंत्र करने की मांग की गई थी | क्यों कि उसका कहना था कि बंदी के पिता ने उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे हिरासत में रखा हुया था | 

इसके बाद पुलिस द्वारा न्यायालय के समक्ष बंदी और उसकी माँ को पेश किया गया | न्यायालय ने उन दोनों से विस्तृत बातचीत की। बंदी की माँ न्यायालय में ही रो पड़ी तथा उसने अनुरोध किया कि उसे अपनी बेटी को वापस घर ले जाने की अनुमति दी जाए। 

उसके अनुसार, रिट याचिकाकर्ता ने उसकी बेटी को गुमराह किया है। उसने यह भी आरोप लगाया कि उसकी बेटी नशे की आदी है और उसने उसकी इस हालत के लिए याचिकाकर्ता को पूरी तरह से दोषी ठहराया। माँ ने कहा कि उसकी बेटी को काउंसलिंग और पुनर्वास की आवश्यकता है|  

पीठ ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि बंदी से बातचीत करने से पहले, उनके द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देवू जी नायर बनाम केरल राज्य (2024 लाइवलॉ (एससी) 249 में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं या पुलिस सुरक्षा के लिए याचिकाओं से निपटने में अदालतों के लिए जारी दिशा-निर्देशों का ध्यान रखा गया है |   

माननीय न्यायालय द्वारा उपरोक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बंदी से बातचीत की। न्यायालय ने कहा की हमारा एकमात्र प्रयास उसकी वास्तविक इच्छाओं और उसके द्वारा चुने गए विकल्प का पता लगाना था। बंदी की आयु लगभग 25 वर्ष है इसलिए वह बालिग़ है तथा वह शिक्षित है। वह बिल्कुल सामान्य दिखने वाली युवती लग रही थी। उस पर किसी भी तरह की लत का आरोप लगाना अनुचित होगा।

न्यायालय द्वारा पूछे गए एक विशिष्ट प्रश्न पर, बंदी ने उत्तर दिया कि वह समलैंगिक है और रिट याचिकाकर्ता के साथ संबंध में है। उसने कहा कि वह अपनी समलैंगिक सहपाठी  के साथ जाना चाहती है। उसने इस बात की पुष्टि की कि उसे उसके पैतृक परिवार द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है। 

न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हिरासत में लिए गए या लापता व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा का पता लगाने में कानून का पालन किया जाए|  यदि हिरासत में लिया गया या लापता व्यक्ति कथित बंदी या पैतृक परिवार के पास वापस न जाने की इच्छा व्यक्त करता है, तो उस व्यक्ति को बिना किसी और देरी के तुरंत रिहा किया जाना चाहिए| 

न्यायालय ने कहा कि चूँकि हमने खुद को संतुष्ट कर लिया है कि बंदी याचिकाकर्ता के साथ रहना चाहती है और उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में रखा गया है, इसलिए हम इस बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को अनुमति देते हैं और उसे स्वतंत्र करते हैं। हम बंदी के पैतृक परिवार के सदस्यों को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से भी रोकते हैं। न्यायालय ने यह निर्णय योग्यकर्ता सिद्धांत, 2006 को दृष्टिगत रख ते हुए सुनाया | 

इस निर्णय ने समुदाय में निराशा का भाव ज़रूर पैदा किया, लेकिन इसने बातचीत के नए रास्ते भी खोले है। 

विधि व्यवस्था शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ, (2018) 7 एससीसी 192 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि पसंद का दावा स्वतंत्रता और गरिमा का एक अविभाज्य पहलू है। एक अन्य महत्वपूर्ण विधि व्यवस्था शफीन जहान बनाम अशोकन केएम (2018) 16 एससीसी 368 में यह स्थापित किया गया कि जीवनसाथी का चुनाव, चाहे विवाह के भीतर हो या बाहर, प्रत्येक व्यक्ति के विशेष अधिकार क्षेत्र में होता है।

सरकार,न्यायालय और समाज सभी को यह समझने की ज़रूरत है कि परिवार केवल सामाजिक संस्थान या खून के रिश्ते  पर आधारित नहीं  है – बल्कि प्यार, आपसी विश्वास और देखभाल पर आधारित है।

परिवार का असली मतलब: प्यार और देखभाल

भारत में आज भी “परिवार” शब्द का अर्थ पति पत्नी, बच्चे और वुजूर्ग माता-पिता के रूप में देखा जाता है। लेकिन आज समय तेजी से बदल रहा है।

कई देशों में आज LGBTQ+ लोग भी बच्चों का पालना पोषण बड़ी गंभीरता और सिद्दत से कर रहे हैं | भारत में भी अनेक समलैंगिक जोड़े एक सुरक्षित और स्थिर घरेलू जीवन जीना चाहते हैं और बच्चों को गोद लेकर उनका अन्य लोगों की तरह पालन पोषण करना चाहते हैं । ये सभी सामान्य मानवीय इच्छाएं हैं – जो किसी भी इंसान को हो सकती हैं। एक समलैंगिक दंपति जब किसी बच्चे को गोद लेता है, तो वह बच्चा भी उतनी ही खुशियाँ और परवरिश पाता है जितना किसी अन्य परिवार में। अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे  कई देशों में समलैंगिक विवाह और परिवार बनाने के अधिकार को विधिक मान्यता प्राप्त है और वहां LGBTQ+ परिवार विवाह कर या  परिवार बनाकर पूरी गरिमा से जीवन जी रहे हैं।

भारत में समाज की मानसिकता: बदलाव की ज़रूरत

भारत में LGBTQ+ समुदाय आज भी तिरस्कार, उपहास और हिंसा का सामना करने को विवश है। अगर कोई लड़का लड़के से प्रेम करता है, या कोई लड़की लड़की से, तो समाज में उसे “अप्राकृतिक कृत्य", “मानसिक बीमारी” या “पश्चिमी सोच” का नतीजा बताया जाता है | 

क्या यह सोच ग़लत है  ?

बिलकुल यह सोच पूरी तरह से गलत है क्यों कि प्रेम, सम्मान और परिवार की भावना किसी जाती, धर्म,पंथ या लैंगिक पहचान की मोहताज नहीं होती है | 

हमारे समाज में एक तरफ वसुदैव कुटुंबकम के अत्यधिक पुराने और विशुद्ध भारतीय सिद्धांत की दुहाई दी जाती है और दूसरी तरफ LGBTQ+ समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित करने में भी कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं | यह स्तिथि गंभीर रूप से विचारणीय है | 

समाज में बदलाव की भावना तभी विकसित होगी जब हम सभी मिलकर आने वाली पीढ़ी को सिखाएँगे कि LGBTQ+ भी उतने ही सामान्य हैं, जितने कि हम। जब हम स्कूलों, फिल्मों, सीरियल्स और न्यूज़  आदि हर जगह  पर उन्हें सही प्रतिनिधित्व देंगे तो उनकी साथ लैंगिक पहचान के कारण होने वाले अपराध बोध को आवश्यक रूप से समाप्त किया जा सकेगा |  अब जरूरत है “परिवार” शब्द को लैंगिक सीमाओं से मुक्त करने की | 

मीडिया, फिल्म और साहित्य की भूमिका

पिछले एक दशक में सिनेमा और वेब सीरीज़ जैसे “मेड इन हैवेन,” “सुभ मंगल ज्यादा सावधान,” “अलीगढ़,” और “रॉकेटमन” ने LGBTQ+ समुदाय के मुद्दों को खुलकर दिखाया है।समाज में यह एक सकारात्मक बदलाव का संकेत है।

सर्व विदित है कि मीडिया समाज का आईना होता है तथा लोकतंत्र का चौथा स्थम्ब भी समझा जाता है। जब मीडिया की कहानीयां LGBTQ+ समुदाय के लोगों की सच्चाई दिखाएगी, जब दर्शक इन पात्रों को सिर्फ “गे या “ट्रांसजेंडर” के रूप में नहीं, बल्कि मानव अधिकार और इंसान के रूप में देखेंगे – तभी  सच्चे बदलाव की उम्मीद की जा सकती है |

आगे का रास्ता: बदलाव की ओर एक कदम

अब समय आ गया है कि भारत LGBTQ+ समुदाय को केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि समान अधिकार उपलब्ध कराए।

आवश्यक कदम:

सरकार द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी जाए|

LGBTQ+ जोड़ों को बच्चा गोद लेने और परिवार बनाने का अधिकार मिले।

स्कूलों और कॉलेजों में LGBTQ+  समुदाय  और समाज में जागरूकता बढ़ाई जाए।

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधत्व दिया जाए| 

समाज में संवेदनशीलता लाने के लिए मीडिया और सरकारी प्रचार अभियान चलाए जाएं।

यह एक कठिन यात्रा ज़रूर है, लेकिन असंभव नहीं। जब समाज प्रेम को सम्मान देना सीख जाएगा, तथा  लैंगिक भेदभाव को तिलांजलि दे देगा , तो हर इंसान को अपना "विवाह" तथा “परिवार” बनाने की आज़ादी होगी–चाहे वह किसी भी लैंगिक पहचान से सम्बन्ध क्यों न रखता हो| 

निष्कर्ष: समानता की ओर एक कदम

LGBTQ+ समुदाय को परिवार बनाने का अधिकार केवल एक क़ानूनी विषय नहीं है – यह मानवता, प्रेम और सामाजिक न्याय तथा मानव अधिकार का विषय है।

हर किसी को यह हक़ मिलना चाहिए कि वह अपने जीवनसाथी के साथ घर बसा सके, बच्चे पाल सके, और समाज में सम्मान से जी सके।

हमें यह समझना होगा कि प्रेम प्राकृतिक है तथा भेदभाव  के लिए कोई स्थान नहीं।

अब समय आ गया है कि हम अपने सोच के दायरे को बड़ा करें और एक समावेशी, दयालु और  मानवाधिकार केंद्रित समाज की नींव रखें।

FAQ :

प्रश्न :LGBTQ+ समुदाय के कानूनी अधिकार क्या हैं ?

उत्तर : सामान्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय को भी सभी अधिकार प्राप्त हैं कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर | 

प्रश्न :क्या अन्य लोगों की तरह LGBTQ+ समुदाय के  लोगों को भी सामान मानव अधिकार प्राप्त हैं ?

उत्तर :हाँ , कुछ विवादित विषयों को छोड़ कर |  

प्रश्न :मैं अपनी या परिवार के अधिकारों के बारे में जानकारी कहा से लू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए कार्यरत गैर सरकारी संघठनो(NGO ) से संपर्क साध कर | 

प्रश्न :मैं अपने लिए एक अच्छा वकील कैसे ढूँढू ?

उत्तर : LGBTQ+ समुदाय के लिए काम करने वाले वकील से संपर्क साधें | 

प्रश्न :भारत में समलैंगिक जोड़ों का विवाह करना कानूनी है?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समान लिंग वाले जोड़े सामान्य कानून के तहत विवाह कर सकते हैं?

उत्तर :नहीं | 

प्रश्न : क्या समलैंगिक जोड़ा लाइव इन रिलेशन में रह सकता है ?

उत्तर : रह सकता है | 

प्रश्न :मैं और मेरा पार्टनर सचमुच शादी करना चाहते हैं! हम क्या कर सकते हैं?

उत्तर : लाइव इन रिलेशन में रह सकते हैं | 

प्रश्न  :मैं एक अच्छे समलैंगिक रिश्ते में हूँ, लेकिन मैं शादी नहीं करना चाहता। आपके पास मेरे लिए क्या है?

उत्तर : आप लाइव इन रिलेशन में रह सकते है | 

रविवार, 27 जुलाई 2025

पशु हमले में मृत्यु पर मुआवजा : भारत में क्या है अधिकार ?

आवारा पशु हमले में मृत्यु पर मुआवजा के सम्बन्ध में भारत में क्या है कानूनी अधिकार और मुआवज़ा नीति? यह लेख इस सम्बन्ध में संक्षिप्त में स्पस्ट करता है | जानने  के लिए पूरा पढ़ें |

प्रस्तावना

भारत में कुत्तों द्वारा काटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही और ये कई बार इन घटनाओं की गंभीरता के कारण घायल लोगों की मृत्यु तक हो जाती है |  ऐसी घटनाओं के बाद सवाल उठता है कि  है कि — क्या पीड़ित के परिवार को मुआवजा मिल सकता है? और यदि हाँ, तो किससे और कैसे?

इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में कुत्ता काटने से हुई मृत्यु पर मुआवज़े को लेकर कानून क्या कहता है, किसे उत्तरदायी माना जाता है, और न्याय पाने की प्रक्रिया क्या है।

आज का विषय बेहद संवेदनशील और विवादास्पद है| क्यों कि एक तरफ पशु प्रेमी हैं और दूसरी तरफ आवारा पशुओं  के हमले में गंभीर रूप से घायल हो रहे या मृत्यु के कारण पीड़ित परिवारीजन है | इस लेख के माध्यम से कोशिश की गई है कि आम और खासजन को आवारा पशु जैसे कुत्तों के हमले से घायल या मृत्यु की दिशा में मुआवजा देने के क्या प्रावधान है तथा क्या नीतियां हैं ? अर्थात कुत्ता काटने से हुई मृत्यु पर क्या कहता है क़ानून ? इस लेख के माध्यम से इन्ही प्रश्नो के उत्तर तलासने का प्रयास किया गया है | 

क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल लाखों लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते है जिसमे अनेक लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते है तथा इनमे से कई की मौत हो जाती है | खासकर रैवीज की बीमारी होने पर | कुत्तों के हमलों की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि यह एक वैश्विक समस्या है |  

आज कल भारत के कई राज्यों में कुत्तों को खाना खिलाने से लेकर कुत्तों के हमलों से होने वाली मृत्यु पर मुआवजा तथा कुत्तों के हमलो से परेशान जनता की कठिनाइयों को लेकर अनेक याचिकाएं  भारत के विभिन्न उच्च न्यायालययो से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुकी है | भारत के कई उच्च न्यायालयों ने कुत्तों के काटने पर हुई मृत्यु पर मृतक के उत्तराधिकारिओं को मुआवजा दिया है  जो कि 10  लाख  तक रहा है | 

कुत्तों के काटने से समस्या की गंभीरता

भारत में दिसंबर,2024 के दौरान देश में कुत्तों के काटने के लगभग 22 लाख मामले सामने आए और 37 मौते हुईं। यह बताया गया केंद्रीय पशुपालन और डेयरी मंत्री राजीव रंजन सिंह  द्वारा लोकसभा सत्र के दौरान | इसके अलावा यह  भी बताया गया कि  को बताया पिछले साल बंदर के काटने के मामलों सहित अन्य जानवरों के काटने के  5  लाख 4  हजार 728  मामले  सामने आये | जबकि सच्चाई कुछ अलग हो सकती है क्यों की बहुत से कुत्तो के काटने की घटनाये रिपोर्ट ही नहीं होती है, इसलिए असली संस्ख्या  इस आकड़े से कही अधिक हो सकती है | 

हाल ही में कुत्तों के काटने से मृत्यु पर मीडिया की सुर्खियां

अभी हाल ही में कुत्तों के काटने से रेबीज की बीमारी से हुई मौतों की मुख्य धारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर अत्यधिक चर्चा है | ये चर्चा है  गोल्डमेडलिस्ट कबड्डी खिलाड़ी बृजेश सोलंकी  के सम्बन्ध में तथा.उत्तराखंड राज्य में तैनात एक सबइंस्पेक्टर की कुत्ते के काटने से हुई मृत्यु के बारे मे | कुत्ते के हमले की एक खबर सुनकर आप चौंक जायेगे और ये खबर है राजस्थान राज्य के भीलवाड़ा जिले में एक कुत्ते द्वारा आम लोगों पर किये गए एक हमले के बारे में | इस हमले में 20 जुलाई 2025 को भीलवाड़ा जिले में कुत्ते ने 2 घंटे में 45 लोगों पर हमला किया जिसमे 25 बच्चे घायल बच्चे भी घायल हुए | अब सवाल है – क्या प्यार की कीमत इंसानों की जान होनी चाहिए?

अगर देखा जाय तो उस चर्चा में कुछ गायब है तो वह है पीड़ितों या उनके परिवार वालों के लिए मिलने वाली आर्थिक राहत | भारत में मानवीय आवादी के साथ साथ आवारा कुत्तों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है | ये कुत्ते बड़ी तादात में लोगों को काट रहे है | यह सही है कि हर कुत्ते के काटने से रेबीज की बीमारी नहीं हो सकती लेकिन सावधानी के उद्देश्य से कुत्ते के काटने पर एंटी रेबीज का टीका लगवाना आवश्यक है | भारत में अभी भी लोग आर्थिक टंगी या लापरवाही के कारण २४ घंटे के भीतर टीका नहीं लगवाते है या फिर लेट - लतीफ़ लगवाते हैं | ऐसी स्तिथि में बीमारी के लक्षण दिकने के बाद उनके जीवन को बचाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव हो जाता है |  रैबीज की बीमारी से  बचाव और सावधानी ही सबसे अच्छा उपाय है | व्यक्ति के एक बार रेबीज की बीमारी की चपेट में आ जाने के बाद उसका इलाज आज भी करीब -करीब असंभव है | 

मुआवजा नीति सम्बन्धी कानूनी प्रावधान

भारत में आवारा पशुओं जैसे आवारा कुत्तों के काटने से होने वाली मौतों के लिए मुआवजा दिये जाने का कोई भी विधिक या नीतिगत प्रावधान नहीं है | लेकिन कुत्तों के काटने से हुई मौतों के कई मामलों में मृतक के परिवारीजनों ने न्यायालय का रास्ता अपनाकर मुआवजे की कानूनी लड़ाई जीतने में सफल रहे | इसलिए कहा जा सकता है कि न्यायालय द्वारा निर्मित क़ानून उपलब्ध है जो पीड़ितों या उनके उत्तराधिकारियों की मदद कर उन्हें सहारा दे रहा है|  कई अदालतों द्वारा कुत्तों के काटने पर हुई मौतों के सम्बन्ध में मुआवजा देने का आदेश किया जा चुका है हैं | उदाहरण के लिए उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय विभूती चंद मोहंती बनाम उड़ीसा राज्य ,2023 में कुत्ते के काटने से एकलौते बच्चे के मृत्यु पर एक वकील द्वारा दायर जनहित याचिका की सुनवाई के बाद परिवार को 10 लाख रूपये मुआवजे के रूप में दिलाये जाने के आदेश दिए थे | आजकल क़ानूनी जागरूकता के चलते क़ानून का सहारा लेकर पीड़ित मुआवजे के अधिकार को न्यायालय के माध्यम से प्राप्त कर रहे हैं | 

मुआवजा नीति बनाने के लिए कोर्ट का निर्देश       

समाज में कुत्तों से काटने की समस्या ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया कि हरयाणा तथा चंडीगढ़ हाई कोर्ट में 193  रिट याचिकाओं  पर एक साथ सुनवाई में शामिल कर निर्णय सुनाया गया | जिसमे सरकारों को निर्देशित किया गया कि कुत्ते के काटने पर लोगों आई चोटों और मृत्यु की स्तिथि में मुआवजा नीति बनाई जाए | कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि

* एक दाँत के निशाँ की स्तिथि में पीड़ित को न्यूनतम १० हजार रूपये का मुआवजा दिया जाए |

*और 0.2 सेमी घाव की स्तिथि में पीड़ित को न्यूनतम मुआवजा २० हजार रूपये दिए जाए | 

मुआवजा लेने के लिए शुआती औपचारिकताएं  क्या होती हैं ?

*कुत्ते के काटने के बाद सबसे पहले नजदीकी थाने में घटना की सूचना दें |  

*घायल होने की स्तिथि में मेडिकल रिपोर्ट बनवाये तथी मृत्यु होने की स्तिथि में पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तथा डेथ सर्टिफिकेट भी बनवाएं | 

* एक अच्छा वकील करके मुआवजे के लिए न्यायालय की शरण में जाए | 

मनुष्य और जानवर दोनों ही प्रकृति का अभिन्न अंग है | यह सही है कि प्राकृतिक संरक्षण में जानवरों का संरक्षण भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है | लेकिन मनुष्य का संरक्षण जानवरों के संरक्षण से ऊपर के पायदान पर रखे जाने के न्यायिक निर्णय हमारे सामने उपलब्ध हैं | मनुष्य और जानवरों के बीच के टकराव को संतुलित सन्दर्भों में देके जाने की आवश्यकता है | कुत्तों के साथ भी प्यार किया जाना चाहिए लेकिन साबधानी और जिम्मेदारी के साथ | सरकार भी दायित्व के अधीन है कि वह मनुष्य के संरक्षण के साथ साथ जानवरों का भी संरक्षण करे |  

FAQ :-

1 . कुत्ते के काटने पर कितना मुआवजा मिलता है?

2 अगर कुत्ता 10 दिन बाद जिंदा है तो क्या मुझे रेबीज हो सकता है?

3 .कुत्ते के दांत लगने पर क्या करें?

4. कुत्ता काटने पर क्या होता है ?

5. पालतू कुत्ते के काटने पर कौन सी धारा लगती है?



















गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

कैंसर और मानव अधिकार: प्रत्येक मरीज का हक—न्याय और समान अवसर

ब्रेन कैंसर बना नेपाली इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर सृजना सुवेदी के पति बिबेक पंगेनी की मृत्यु का कारण | अपने पति की इलाज के दौरान निःस्वार्थ सेवा के लिए दोनो की कहानी विश्व भर में प्रसिद्ध हुई | 

कैंसर में कमी लाने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया जाना आवश्य्क है जिसमे बीमारी की रोकथाम, जांच, निदान और उपचार एक साथ शामिल हों तथा कैंसर की देखभाल में इलाज के लिए सहयोग आवश्यक है | यह कहना है कैंसर के सम्बन्ध में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का |






















4 फरवरी, 2025 को सम्पूर्ण विश्व में कैंसर की रोकथाम, पहचान और उपचार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विश्व कैंसर दिवस मनाया गया, वहीं 7 अप्रैल 2025 को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया गया है | 
विज्ञान के क्षेत्र में तमाम तरक्की ने कैंसर के इलाज को सस्ता, सुगम और आसान बनाया है बाबजूद इसके सच्चाई यह है कि कैंसर के इलाज तक आज भी हर व्यक्ति की आसान पहुंच नहीं है |
विश्व स्तर पर कैंसर की बीमारी मृत्यु का दूसरा सबसे प्रमुख कारण है | पुरुषों में कैंसर के आम प्रकार मुख्य रूप से फेफड़े, प्रॉस्टेट, कोलोरेक्टल, पेट या यकृत कैंसर पाए जाते हैं, जबकि महिलाओं में स्तन, कोलोरेक्टल और थायरॉयड कैंसर बहुतायत में पाए जाते हैं | 
कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो न सिर्फ मरीज को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक रूप से प्रभावित करती है बल्कि उसके परिवारीजनों कों भी समान रूप से प्रभावित करती है | इसमें कोई शक नहीं है कि दुनियाभर में स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर बहुत प्रयास और कार्य किया गया है लेकिन इस सब के बाबजूद कैंसर के इलाज में समानता और न्याय के अवसर की स्पष्ट रूप से कमी दिखाई देती है | 
कैंसर के मरीजों को इलाज, देखभाल और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं तक बिना किसी विभेद के समान पहुंच प्रदान किया जाना उनके मानवाधिकारो का अहम् हिस्सा है | कैंसर और मानव अधिकारों, जिसमे स्वास्थ्य का मानव अधिकार भी शामिल है, के मध्य गहरा सम्बन्ध है | इस लेख के माध्यम से कैंसर और मानव अधिकारों के बीच अन्तर्सम्बन्धों का अन्वेषण करने का प्रयास किया गया है | 

वैश्विक कैंसर परिदृश्य 

वैश्विक स्तर पर कैंसर की बीमारी का बोझ लगातार बढ़ रहा है | जिसके चलते रोगियों, परिवारों, समाज और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर भी जबरदस्त दबाब बढ़ रहा है | यह दबाब शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या वित्तीय किसी भी रूप में हो सकता है | 
आज भी निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले देश कैंसर की बीमारी के बोझ को आर्थिक रूप में झेलने की स्थति में नहीं हैं | जिसके कारण अधिकांश कैंसर रोगियों की गुणवत्ता पूर्ण इलाज और देखभाल तक पहुंच नहीं है | 
वहीं दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जिन देशों में स्वास्थ्य व्यवस्था सुदृढ़ हैं, वहां शीघ्र पता लगाने, गुणवत्तापूर्ण उपचार और उत्तर जीविता देखभाल की बेहतर सुविधाओं के कारण कई प्रकार के कैंसर पीड़ितों के जीवित रहने के समय में सुधार हो रहा है अर्थात वे अधिक समय तक जीवित रह पा रहे हैं | 
2022 में, लगभग 20 मिलियन नए कैंसर के मामले सामने आए, और वैश्विक स्तर पर 9.7 मिलियन लोग इस बीमारी से मर गए। 
महिला लिंग स्तन कैंसर का सबसे मजबूत जोखिम कारण है | लगभग 99 प्रतशत स्तन कैंसर महिलाओं में होते हैं और 0.5 -1 प्रतिशत पुरुषों में होते हैं | 
विश्व स्वास्थय संगठन के अनुसार 2022 में वैश्विक स्तर पर 2 मिलियन महिलाओं में स्तन कैंसर का पता चला तथा 6,70,000 महिलाओं की कैंसर से मृत्यु हुई | 
सर्वाइकल कैंसर भी महिलाओं को बहुतायत में प्रभावित करता है | संगठन के अनुसार 2022 में लगभग 6,60 ,000 सर्वाइकल कैंसर के नए मामले आये और 3,50,000 मौतों के साथ वैश्विक स्तर पर यह महिलाओं में चौथा सबसे आम कैंसर है | 
संघटन के ग्लोबल ब्रेस्ट कैंसर इनिसिएटिव का उद्देश्य वैश्विक स्तन कैंसर मृत्यु दर को प्रतिवर्ष 2.5 % करना है जिससे 2020 -2040  के बीच वैश्विक स्तर पर 2.5 मिलियन स्तन कैंसर से होने वाली मौतों को रोका जा सके | इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संगठन ने तीन आधार बताये हैं | पहला आधार कैंसर की बीमारी का शीघ्र पता लगाना, दूसरा समय पर मरीज का निदान करना तथा तीसरा स्तन कैंसर का व्यापक प्रबंधन |       

कैंसर का भारत पर बोझ

कैंसर विश्व भर में मानवीय मौत के प्रमुख कारणों में से एक है तथा भारत में भी यह बीमारी  एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती बनी हुई  है | कैंसर के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि होने की संभावना है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से कैंसर मुक्त भारत की ओर- रोकथाम, उपचार और नवाचार के प्रति प्रतिबद्धता नामक शीर्षक के तहत प्रेस ब्यूरो ऑफ़ इनफार्मेशन ,दिल्ली द्वारा 13 फरवरी 2025 को जारी की गई एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार भारत में, हर 1 लाख लोगों में से लगभग 100 लोगों को कैंसर का पता चलता है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के अनुसार, भारत में 2023 में कैंसर के मामलों की अनुमानित संख्या 14 लाख से अधिक थी।

स्वास्थ्य और मानव अधिकार का सम्बन्ध 

किसी भी देश के विकास और प्रगति के लिए वहां के लोगों का अच्छा स्वास्थ्य पहली शर्त है | बच्चे हर देश के मुस्तकबिल का निर्माण करते है इसीलिये बच्चों का स्वास्थ्य भी बेहतर होना आवश्यक है | 
अन्तराष्ट्रिय मानवाधिकार लिखितों में स्वास्थ्य के अधिकार को हर व्यक्ति का बिना किसी भेदभाव के बुनियादी मानव अधिकार बनाया है | यद्यपि सैद्धांतिक तौर पर यह अधिकार सभी को बिना उसकी सामाजिक तथा आर्थिक स्थति के उपलब्ध है लेकिन व्यवहारिक तौर पर कई देशों में लोगों को इसकी उपलब्धता पर अनेक बाधाएं हैं | स्वास्थ्य सम्बन्धी मानव अधिकार प्रावधानों के तहत अधिकांश देश अपनी- अपनी आर्थिक सीमाओं में रहते हुए स्वास्थ्य के मानव अधिकार को वास्तविकता में बदलने का प्रयास कर रहे हैं | 
सयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषणा- पत्र, 1948 में स्थापित किया गया है कि सभी व्यक्तियों को अपने स्वास्थ्य की उच्च स्तरीय देखभाल, उचित उपचार और विशेष स्थतियों में जीवन यापन के लिए आवश्यक सुविधाओं को प्राप्त करने का अधिकार है | 
उक्त मानवाधिकार प्रावधानों के तहत सदस्य राज्य दायित्वाधीन है कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के मानव अधिकारों का सम्मान करे ,उनका संरक्षण करे और साथ ही अपनी आर्थिक सीमाओं के अधीन आवश्यक सुविधाएं और संसाधन जुटा कर उनकी पूर्ती करे | 
इस सन्दर्भ में कैंसर जैसी भयंकर व् विनाशकारी बीमारी को झेल रहे रोगियों के लिए राज्य द्वारा न्याय सम्मत  इलाज तथा देखभाल  के सामान अवसर उपलब्ध करना मानवाधिकार का एक महत्त्व पूर्ण मुद्दा है |
गरीबी और कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था के चलते निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले देशों में ज्यादातर कैंसर रोगी आज भी स्वास्थ्य के मानवाधिकार से वंचित होने को विवस हैं | आज भी गरीबी मानव अधिकारों का सबसे बड़ा अतिक्रमणकारी  कारक है | 

स्वास्थ्य के मानवाधिकार उल्लंघन की स्तिथियाँ 

असमानताओं पर आधारित कई प्रकार की बाधाओं के चलते कैंसर रोगियों को उचित इलाज, निदान और देखभाल न मिलने के कारण उनके जीवन पर कई तरह से सीधा प्रभाव पड़ता है| कैंसर की जांच में देरी, इलाज में देरी, उचित और आसानी से सुलभ उपचार की कमी और महँगे इलाज के कारण अनेक कैंसर रोगियों की स्थति और अधिक बिगड़ जाती है | यह सीधे-सीधे कैंसर रोगियों के मानवाधिकार का उलंघन होता है क्यों कि अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार विधि के अनुसार हर व्यक्ति को समय से उचित चिकित्सा व्यवस्था और देखभाल का मानव अधिकार प्राप्त है जिसका सम्मान, संरक्षण और पूर्ती राज्य के दायित्वाधीन है |  

 निष्कर्ष 

कैंसर और मानव अधिकारों के मध्य गहरा अंतर्सम्बन्ध है | मानव अधिकार के तहत कैंसर रोगियों को भी  का मानव अधिकार प्राप्त है जो यह सुनिश्चित करता है कि हर कैंसर रोगी को बिना किसी विभेद और असमानता के उसे सामान इलाज, देखभाल और जीने का अधिकार मिलना चाहिए अर्थात कैंसर रोगियों को मानव अधिकार के तहत उचित इलाज, देखभाल और जीवन के अधिकार की राज्य द्वारा गारंटी मिलनी चाहिए | इस लिए यह महत्वपूर्ण है कि समाज के सभी वर्गों के लिए बिना विभेद के सामान रूप से उपचार और देखभाल के लिए सामान अवसर और न्याय सुनिश्चित किया जाए | ताकि कैंसर जैसी बीमारी के इलाज, निदान और देखभाल तक हर किसी व्यक्ति की पहुंच संभव हो सके |   

बुधवार, 6 नवंबर 2024

डिजिटल अरेस्ट मानव अधिकारों पर हमला सम्पूर्ण जानकारी


डिजिटल अरेस्ट एक साइबर अपराध न सिर्फ भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में व्यक्तियों और संवेदनशील समुदाय के लिए एक गंभीर ख़तरा बन गया है |










   
 साइबर अपराध के क्षेत्र में नया वेरिएंट डिजिटल अरेस्ट 

परिचय 

आज कल एक तरफ डिजिटल तकनीकी ने हमारे जीवन को सुगम बनाया है वहीं दुसरी तरफ नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए विवश कर दिया है | इन चुनौतियों में से एक है डिजिटल अरेस्ट | यह विषय आज के वैश्विक परिदृश्य के साथ-साथ देश के स्तर पर भी अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है | साइबर अपराध की दुनिया में डिजिटल अरेस्ट नामक शब्द मानव अधिकारों के उल्लंघन का प्रतीक बन गया है तथा मानवअधिकारों के लिए भी गंभीर चुनौती है|   
भारतीय समाज में डिजिटल अरेस्ट का अपराध इतनी तेजी से फैला है जैसे अतीत में किसी समय स्माल पॉक्स की बीमारी फैला करती थी | भारत में डिजिटल अरेस्ट के अपराध की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को मन की बात के 115 वे एपीसोड में डिजिटल अरेस्ट के बारे में जनता को जागरूक करने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा है | 
समाज में लोगों के साथ ठगी करना सभ्यताओं के विकास की शुरुआत से ही चला आ रहा है | हालांकि समय के साथ -साथ ठगने के तरीकों में आमूलचूक परिवर्तन आता रहा है | वर्तमान के डिजिटल युग में तो ठगी और जालसाजी के तरीके पूरी तरह से बदल गए हैं तथा वे समय के साथ -साथ अत्यधिक आधुनिक और नए रूप में  समाज के सामने आ रहे हैं, और यह नया तरीका है डिजिटल अरेस्ट | 
अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक(ADGP), उत्तर प्रदेश तथा फाउंडर डायरेक्टर ,उत्तर प्रदेश स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉरेंसिक साइंस ,लखनऊ ,प्रोफेसर (डॉ) जी.के. गोस्वामी, IPS के अनुसार डिजिटल अरेस्ट साइबर क्राइम का एक नया वेरिएंट है | वर्तमान परिदृश्य में उनका यह भी कहना है कि ऐसे मामले प्रति दिन बड़ी संख्या में हो रहे हैं कुछ लोग बता भी नहीं पाते | 
डिजिटल तकनीकी का विकास समाज की भलाई और जीवन को सरल बनाने के लिए किया गया है लेकिन यह भी सत्य है कि अपराधी हमेशा से ही अच्छी और उच्चस्तरीय तकनीकी का दुरूपयोग व्यक्ति और समाज के विरुद्ध तथा अपने हितार्थ करते आये हैं | 
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में जहाँ डिजिटल तकनीकी की उन्नति तेजी से हो रही है | वहीं अपराधियों द्वारा तकनीकी खामियों का लाभ उठाकर अनेक लोगों के साथ ठगी और जालसाजी की जा रही है | यह साइबर अपराध एक भयाभय प्रबृति के रूप में डिजिटल तकनीकी की जानकारी रखने वाले नवयुवकों में तेजी से उभर कर सामने आया है |
इस प्रकार की जालसाजी और ठगी में ठग पीड़ितों को अवैध बित्तीय लेनदेन करने के लिए विवश करते हैं तथा धन की डिजिटल वसूली होने पर उन्हें उनके द्वारा किये गए आभासीय तथा मनगढंत अपराध से मुक्त करने का आश्वासन भी देते हैं | यही डिजिटल अरेस्ट का महत्वपूर्ण घटक है | 

डिजिटल अरेस्ट क्या है ?

सामान्य भाषा में डिजिटल अरेस्ट का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की ऑनलाइन गतिविधियों,उसके डाटा, और उसकी व्यक्तिगत जानकारी पर निगरानी और नियंत्रण कर उसे झांसे या भय में फँसा कर उससे ठगी या जालसाजी करना है | यद्धपि डिजिटल अरेस्ट की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा उपलब्ध नहीं है | इसका कारण विषय विशेषज्ञों द्वारा डिजिटल अरेस्ट के विषय का अन्तरविषयक(इंटरडिसिप्लिनरी) होना बताया है |  
डिजिटल अरेस्ट कोई वास्तविक गिरफ्तारी नहीं है, बल्कि इसमें व्यक्ति डिजिटल उपकरण जैसे कि मोबाइल, लेपटॉप या इलेक्ट्रॉनिक टेबलेट आदि के माध्यम से बातचीत करने के दौरान पीड़ित ठगों के आभासीय गिरफ्त में रहते है | इस दौरान ठग या जालसाज पीड़ितों को किसी संगीन अपराध में फसाने या उन्हें  गिरफ्तार करने या उनके किसी परिवारीजनों या प्रियजनों को किसी अपराध में फ़साने का झांसा दे कर उनसे मनमानी रकम डिजिटल माध्यम से वसूलने का प्रयास करते हैं या वसूल कर लेते हैं | 

डिजिटल अरेस्ट के मामलों में फंसाने के तरीके क्या हैं ?

डिजिटल अरेस्ट के माध्यम से ठगने या जालसाजी करने के तरीके यद्धपि निश्चित नहीं हैं फिर भी कई अलग -अलग तरीकों से ठगी या जालसाजी को अंजाम दिया जाता है | 
पहले तरीके में अच्छे पढ़े लिखे और कानून के जानकार लोगों को अधिकांशतः मनी लॉन्डरिंग का डर दिखाकर फंसाया जाता है |दूसरे तरीके में किसी व्यक्ति के कूरियर में ड्रग्स होने का भरोसा दिलाया जाता है | जिसकी वजह से उसे गंभीर अपराध में फंसने का डर दिखाया जाता है | तीसरे तरीके में व्यक्ति के बैंक के खाते से ट्रांजेक्शन्स में फाइनेंश्यिल फ्रॉड होने का डर दिखाया जाता है | 
चौथे तरीके में अधिकांशतः गरीब लोगों को, जिनके खाते में पैसे नहीं होते है, उन्हें लोन लेने वाला ऍप डाउनलोड करा दिया जाता है | बाद में उनको बसूली के लिए धमकाया जाता है और लोन के पैसे बापस करने को कहा जाता है, जो उन्होंने कभी उधार लिए ही नहीं | 
पाँचवा तरीका है जिसमे युवाओं से लेकर बुजुर्ग तक आते है | इस तरीके में व्यक्ति अपने अंतरंग क्षणों को ऑनलाइन प्रस्तुत करने का प्रस्ताव प्रस्तुत करता है, जिसे दूसरे व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है | धीरे धीरे प्रस्ताव देने वाला व्यक्ति दूसरे का विशवास जीत लेता है और दूसरे को अपने वस्त्र उतारने के लिए उकसाता है | पहला वाला व्यक्ति इन्ही अंतरंग क्षणों की ऑनलाइन तस्वीरें या वीडिओ बना लेता है और उसके बाद प्रारम्भ होता है दूसरे व्यक्ति का डिजिटल अरेस्ट | दूसरे व्यक्ति द्वारा पैसे न देने की सूरत में उसकी अश्लील तस्वीरें या वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल करने की धमकी दी जाती है |
समय के साथ -साथ साइबर खतरों का क्षेत्र दिन पर दिन व्यापक होता जा रहा है | इस क्षेत्र में डिजिटल अरेस्ट की अवधारणा समाज के लिए एक गंभीर खतरे के रूप में अत्यधिक तेजी से उभरी है | 
ठगी करने वाले स्वयं को क़ानून प्रवर्तन अधिकारी,जो पुलिस,सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन,आरबीआई, टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया आदि में से किसी के भी रूप में पेश कर सकते हैं, आवश्यकता अनुसार पीड़ितों को यह विस्वास दिलाते है कि उनके वैधानिक दस्तावेजों जैसे कि आधार कार्ड, बैंक खाते,आदि का अवैध रूप से उपयोग किया गया है | 
जिसके लिए उनके विरुद्ध तत्काल कानूनी कार्यवाही किये जाने का दबाब बनाया जाता है | जिन पीड़ितों ने कभी किसी कोर्ट-कचहरी के चक्कर नहीं लगाए तथा वे किसी कानूनी लफड़े में नहीं पड़ना चाहते है, अपने विरुद्ध या अपने किसी परिवारीजन या किसी अजीज के विरुद्ध डिजिटल रूप से कानूनी कार्यवाही की बात सुनकर घबरा जाते है | इसके बाद शुरू होता है ठगों का पीड़ितों को पैसा देने के लिए मजबूर करने का सिलसिला | 
डिजिटल अरेस्ट के माध्यम से ठगने या जालसाजी करने के तरीके यहाँ बताये गए तरीकों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि साइबर अपराधी आये दिन नए -नए तरीके गढ़ रहे हैं | 

डिजिटल अरेस्ट की कुछ हालिया घटनाएँ 

विगत कुछ वर्षों में डिजिटल अरेस्ट की घटनाओं की बाड़ सी आ चुकी है | जिनमे से कुछ घटनाओं का जिक्र यहाँ किया जा रहा है | गृह मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 1 जनवरी 2023 से 31 दिसंबर 2023 की अवधि के दौरान भारत में वित्तीय साइबर धोखाधड़ी  के कुल 1128265 प्रकरण दर्ज किये गए जिनसे जुडी कुल धनराशि 748863.9 लाख रुपये रही है |  
उत्तर प्रदेश के जिला आगरा निवासी शिक्षिका मालती वर्मा 30 सितम्बर, 2024 को अपने स्कूल में थी | दोपहर 12 बजे उसके मोबाइल पर फोन आया | फोन करने वाले ने बताया कि वह इंस्पेक्टर विजय कुमार बोल रहा है | उनकी बेटी रैकेट में पकड़ी गयी है| उन्हें  लड़की की आवाज सुनाई गयी | लड़की को जेल जाने से बचाना है तो 15 मिनट में एक लाख रूपये खाते में ट्रांसफर कर दो |अपनी बेटी को परेशानी में देख विमला वर्मा सदमे से बेहोश हो गयीं | परिवारीजन अस्पताल ले गए जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी | यह सब हुया डिजिटल अरेस्ट के कारण | यह रोंगटे खड़े कर देने वाला वाकया है | 
बेंगलूरु स्थित एक ७० वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार को साइबर ठगों ने 15 से 23 दिसंबर तक 8 दिन डिजिटल अरेस्ट में रहने की धमकी दी | ठगों ने अपना परिचय मुंबई पुलिस और सीबीआई के अधिकारी के रूप में दिया | पत्रकार को धमकी दी कि उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा यदि वह घर से बाहर निकला और उसे बताया गया कि उसके नाम पर ड्रग्स की एक खेप भेजी गयी है तथा उसके बैंक खातों का उपयोग हवाला लेनदेन के लिए किया गया है | ठगों ने उनसे 1.2 करोड़ की अवैध वसूली कर ली | 
एक अन्य मामले में 13 जुलाई 2024 को नोएडा की रहने वाली एक डॉक्टर पूजा गोयल को साइबर ठगों ने 48 घंटे तक डिजिटल अरेस्ट करके रखा | उसे पोर्न वीडियो स्कैम में शामिल होने का भय दिखा कर उससे 59 लाख रूपये ठग लिए । डॉक्टर को कॉल कर साइबर ठगों ने खुद को टेलीफोन रेगुलेटरी ऑफ़ इंडिया का कर्मचारी बताते हुए कहा कि उसके फोन से पोर्न वीडियो भेजे जा रहे है और इसके उसके गिरफ्तारी वारंट जारी होने की बात कही |  वह लगातार पोर्न वीडियो स्कैम में शामिल होने से इंकार करती रही | लेकिंग ठगों ने कहा कि उनके पास सबूत है | इसके बाद डॉक्टर गोयल डर गयी और ठगों द्वारा बताये गए खातों में रुपये ट्रांसफर कर दिए | इस घटना में डिजिटल अरेस्ट के सम्बन्ध में सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि इस घटना की पीड़िता एक उच्च शिक्षित व्यक्ति है |
डॉ. रुचिका टंडन उत्तर प्रदेश के लखनऊ में स्थित मेडिकल कॉलेज के न्यूरोलॉजी बिभाग में कार्यरत हैं | साइबर ठगों ने उन्हें कृष्णानगर में डिजिटल अरेस्ट कर लिया तथा उनसे 2.81 करोड़ करोड़ रूपये ठग लिए |
डॉ टंडन द्वारा पुलिस को दी गयी अपनी शिकायत में बताया कि 1 अगस्त 2024 को उनके फ़ोन पर किसी अज्ञात मोबाइल नंबर से कॉल आई | कॉल करने वाले ने स्वयं को टेलीफोन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया का सदस्य बताया तथा सभी फोन्स की सेवाएं बंद करने की चेतावनी दी तथा बताया गया कि उनके मोबाइल सिम के बारे में उनके विरुद्ध कई शिकायते है | सीबीआई अफसर उनसे बात करेंगे | बातचीत के दौरान टंडन को बताया गया कि उनका नाम मनीलॉंड्रिंग के अपराध में सामने आया है तथा उनके खाते का उपयोग पैसा जमा करने के लिए किया गया जिसका उपयोग बच्चों और महिलाओं की तस्करी के लिए किया गया है | डिजिटल अरेस्ट के दौरान उसे आश्वासन दिया गया कि जांच में सहयोग पर  छोड़ दिया जाएगा | 
10 सितम्बर 2024 को हैदराबाद के एक सेवा निवृत सलाहकार ए वी मोहन राव को अज्ञात मोबाइल नंबर से कॉल आयी | जिसके बाद साइबर अपराधियों ने स्वयं को मुंबई पुलिस का अफसर बताते हुए डिजिटल अरेस्ट कर लिया | तथाकथित अफसर ने राव को बताया कि उसके आधार कार्ड की डिटेल और फोन नंबर मनीलॉन्ड्रिंग तथा पोर्नोग्राफी के वितरण से जुड़े हुए हैं | पीड़ित को फर्जी वारंट का भय दिखाकर उससे उसके बैंक खाते का नंबर साझा करने का दबाब बनाया गया और 2 करोड़ की ठगी कर ली |  

डिजिटल अरेस्ट के प्रति संवेदनशील व्यक्ति और समुदाय 

डिजिटल युग का सबसे बड़ा नुक्सान उन लोगो को उठाना पढ़ रहा जो डिजिटल तकनीकी के सामान्य ज्ञान या बेसिक शिक्षा से वंचित हैं या उम्र के ऐसे पड़ाव पर है कि प्रौढ़ शिक्षा के रूप में भी डिजिटल तकनीकी की बेसिक शिक्षा भी नहीं लेना चाहते है, जिससे स्वयं को डिजिटल अरेस्ट से बचा सकें | यद्यपि डिजिटल अरेस्ट की अखबारों या मीडिया के माद्यम से समाज के सामने आयी घटनाओं से पता चलता है कि डिजिटल अरेस्ट की चपेट में अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग भी आ चुके हैं |
तकनीकी निगरानी के माध्यम से न सिर्फ पड़े लिखे लोगों को बल्कि ऐसे लोगों को भी डिजिटल अरेस्ट किया जा  रहा है, जो गोपनीय रूप से प्रौढ़ वैब साइट्स पर कंटेंट को पड़ने या देकने का शौक रखते हैं या विवाह सम्बन्धी साइट्स पर योग्य वर या वधु की तलाश में रहते हैं या डेटिंग साइट्स पर अपना समय बिताते हैं |
बच्चे मन के सच्चे होते है, बच्चों को भगवान् का रूप भी माना जाता है लेकिन साइबर अपराधियों के लिए डिजिटल अरेस्ट के मकसद से बच्चे सर्वाधिक आसान शिकार होते हैं |   
डिजिटल अरेस्ट के प्रति बच्चों का समुदाय अत्यधिक संवेदनशील पाया गया है | अधिकाँश मामलों में डिजिटल अरेस्ट में फंस चुके बच्चे किसी को कुछ नहीं बताते जब तक उनके सामने जीने मरने की नौबत नहीं आ जाती है या उन्हें या उनके परिजनों को जान से मारने की धमकी नहीं मिल जाती है | 
डिजिटल अरेस्ट के सम्बन्ध में मोबाइल या इंटरनेट पर गुमनामी से अपराध करने की स्तिथियाँ बच्चों की मासूमियत और डिजिटल तकनीकी के शातिरों द्वारा अपराध के लिए उपयोग के चलते बच्चों के लिए जोखिम अत्यधिक बढ़ जाता है |
डिजिटल दुनिया से जुड़ने के बाद बच्चों के लिए अपने माता-पिता और शिक्षकों से अधिक प्रिय और सच्चे मददगार, उन्हें बहलाने और फुसलाने वाले लगने लगते है | इसी स्थति का लाभ उठाते हुए साइबर अपराधी मासूम बच्चों को डिजिटल अरेस्ट की चपेट में ले लेते हैं | उसके बाद स्तिथियाँ बच्चों के माँ-बाप या अन्य परिजनों के हाथ से निकल जाती हैं | 
बच्चों के साथ डिजिटल अरेस्ट के रूप में साइबर बदमासी कई रूपों में होती है तथा यह आम बात होती जा रही है | इसमें बच्चे जब ऑनलाइन होते है उस समय दूसरे लोगों द्वारा बच्चों को धमकाए जाने की बहुत सम्भावनाये रहती हैं | डिजिटल अरेस्ट के कारण बच्चों के मानसिक, शारीरिक और शिक्षा सम्बन्धी प्रयासों पर अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है | बच्चे बिना किसी कारण के बेचैन और असहज लगने लगते हैं |

डिजिटल अरेस्ट से मानव अधिकारों का उल्लंघन

डिजिटल अरेस्ट में साइबर अपराधियों का पहला कदम होता है शिकार बनाये जाने वाले व्यक्ति, उसके परिवार या इष्टमित्रों या रिश्तेदारों के बारे में जानकारी इक्क्ठा करना तथा दूसरा कदम होता हे डिजिटल तकनीकी जैसे व्हाट्स एप्प, स्काइपे या ऑडियो या वीडियो कॉल द्वारा पीड़ित से संपर्क करना | 
संपर्क करने के बाद तीसरा कदम होता है व्यक्ति पर गंभीर अपराधों के आरोप लगाकर उस पर मानसिक दबाब बनाना |अंतिम या चौथा कदम होता है  पीड़ित को उन अपराधों से बचाने के लिए झांसा देना और उसके बदले में उनके द्वारा दिए गए बैंक खातों में जल्द से जल्द डिजिटल रूप में पैसे ट्रांसफर करने की धमकी | जैसा कि ऊपर बताया गया है कि डिजिटल अरेस्ट के प्रथम चरण में साइबर अपराधी शिकार बनाये जाने वाले व्यक्ति या परिजनों या इष्टमित्रों की पृष्टिभूमि के बारे में सोशल मीडिया या अन्य गैर कानूनी तरीके से व्यक्तिगत तथा गोपनीय जानकारियां इकट्ठा करते हैं | 
गोपनीयता  का अधिकार हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है | यह अधिकार भारतीय संविधान द्वारा सभी नागरिकों को मिला हुया है | भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी इसका समर्थन किया गया है | डिजिटल अरेस्ट के कारण गोपनीयता के अधिकार का सीधा -सीधा उलंघन होता है | 
जब किसी व्यक्ति की ऑनलाइन गतिविधियों की बिना उसकी अनुमति के निगरानी की जाती है या उसे गैर कानूनी रूप से हासिल किया जाता है तो यह उसके व्यक्तिगत जीवन मे दखल होता है तथा उसके गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होता है | मानव अधिकार उल्लंघन की यह स्तिथि न सिर्फ व्यक्तिगत रूप में कष्ट और हानि पहुंचाने वाली है बल्कि समाज में भी भय का माहौल पैदा करती है | जनता पहले से ही अनेक प्रकार के आर्थिक अपराधों से जूझ रही है तथा डिजिटल अरेस्ट के रूप में नयी आफत सामने आ गई है |
मानव अधिकारों को सामान्यतः ऐसे अधिकारों के रूप में जाना जाता है जिनका उपयोग करने और जिनकी रक्षा करने की अपेक्षा करने का हकूक हर व्यक्ति को है | ये अधिकार हर व्यक्ति को उनके मानव होने के नाते प्राप्त हैं | विएना घोषणा के अनुसार सभी मानव अधिकार सार्वजनीन,अविभाज्य, अंतर्निर्भर और अन्तर्संबध  हैं |
अर्थात मानव अधिकार अंतर्निर्भर और अन्तर्संबध होने के कारण एक दूसरे को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं | गोपनीयता के मानव अधिकार का उल्लंघन व्यक्ति के अन्य कई अधिकारों पर सीधा असर डालता है | उदाहरण के लिए गोपनीयता के अधिकार के उल्लंघन से ही डिजिटल अरेस्ट के अधिकाँश मामलों में अनेक लोगों को जीवन भर की जमा पूंजी से वंचित होना पड़ता है जिससे पुनः जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन होता है | 
साइबर अपराधी डिजिटल अरेस्ट द्वारा व्यक्ति  को मनमाने ढंग से उसकी सम्पति से वंचित कर देते हैं जो कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुछेद 17(2) का सीधा उल्लंघन है जिसके अनुसार अनुसार किसी को भी मनमाने ढंग से उसकी सम्पति से वंचित नहीं किया जा सकता है | 
डिजिटल अरेस्ट के कारण पीड़ित को होने वाला आर्थिक नुक्सान उसके स्वास्थ्य को प्रत्यछ रूप से प्रभावित करता है | जिससे घोषणा के अनुछेद 25 में दिए गए स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन होता है |   
डिजिटल अरेस्ट के कारण ठगी होने के बाद अनेक लोग गरीबी के कुचक्र में फंसने के लिए विवश हो रहे हैं | गरीबी मानवाधिकारों का सर्वाधिक अतिक्रमण करती है |गरीबी के कारण भोजन के अधिकार,शिक्षा का अधिकार तथा आवास के अधिकार का भी उलंघन होता है | उपरोक्त से स्पष्ट है कि डिजिटल अरेस्ट व्यक्ति के कई मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार है | 
साइबर अपराधियों द्वारा डिजिटल अरेस्ट के रूप में कारित की गयी घटनाओं या अपराधों में पीड़ित या उसके परिजन या इष्टमित्रों के सम्बन्ध में कई रूपों में धमकियां दी जाती हैं | पीड़ित को कई- कई दिनों तक डिजिटल अरेस्ट में रखा जाता है अर्थात पीड़ित को संविधान प्रदत्त स्वतंत्र विचरण की स्वंत्रता और जीवन के अधिकार का सीधा -सीधा उलंघन होता है | 
इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था रामवीर उपाध्याय बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश ए आई आर 1996 इला० 131 में स्थापित किया गया है कि "भारत के संविधान के अनुछेद 19(1 )डी  तथा 21 के अधीन नागरिकों को प्राप्त स्वतंत्र विचरण की स्वंत्रता तथा जीवन का अधिकार में ,यह स्पष्ट है कि जीवन को भय तथा धमकी से मुक्त होना चाहिए क्यों कि मृत्यु के भय या धमकी के अधीन जीवन कोई जीवन नहीं होगा | स्वतंत्र विचरण और निजी स्वंत्रता के लिए दी गई धमकी के लिए न्यायालय शक्ति विहीन नहीं होता है तथा वह नागरिकों की सुरक्षा के लिए सम्बंधित प्राधिकारिओ को सुरक्षा के निर्देश दे सकता है| जीवन का मतलब पशुवत जीवन जीना नहीं है और इसमें मानव मर्यादा के साथ शांतिपूर्वक जीवन जीने का अधिकार सम्मिलित होगा |" 

डिजिटल साक्ष्य की अदालत तक पहुंचने की प्रक्रिया 

अदालत में प्रस्तुत करने के लिए डिजिटल साक्ष्य की एक प्रक्रिया होती है | इस प्रक्रिया के कई चरण है | जिसके तहत डिजिटल साक्ष्य को सर्व प्रथम पहचानना पड़ता है | उसके बाद उसका संकलन किया जाता है | फिर उसे संरक्षित किया जाता है | अंत में डिजिटल साक्ष्यों को मौजूदा आपराधिक प्रक्रियात्मक कानून और तकनीकी के अनुसार अदालत में प्रस्तुत किया जाता है | क़ानून का यह स्वरुप साक्ष्य और आपराधिक प्रक्रिया के नियमो को निर्धारित करता है तथा उसे प्रमाणिकता प्रदान करता है |
किसी अपराध का सुबूत प्रदान करने में सूचना अवं संचार प्रौद्योगिकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है | सूचना अवं संचार प्रौद्योगिकी से प्राप्त डेटा को न्यायलय में उपयोग में लाया जा सकता है |इसी को डिजिटल साक्ष्य या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य कहते हैं |इन सबूतों को पहचाने,संकलन करने,संरक्षण करने तथा विश्लेषण कर उन्हें क़ानून की अदालत में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को डिजिटल फॉरेंसिक के रूप में जाना जाता है | 
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाला व्यक्ति अक्सर अपने पीछे डिजिटल निशाँन छोड़ देता है | ये  डिजिटल निशान उपयोगकर्ता द्वारा छोड़े गए डेटा के रूप में होते हैं जो उसके बारे में अनेक प्रकार की जानकारी दे सकता है | जैसे कि आयु ,जाती,लिंग ,राष्ट्रीयता, रंग, नस्ल, मूलवंश, चिकत्सकीय इतहास आदि | 
सूचना अवं संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से डिजिटल चिन्ह के रूप में छोड़े गए डेटा सक्रिय और निष्क्रिय दो रूपों में मिलते है | निष्क्रिय डिजिटल चिन्ह के रूप में डिजिटल तकनीकी के उपयोगकर्ताओं द्वारा ब्रॉजिंग हिस्ट्री एक अच्छा उदाहरण है | जबकि सक्रीय डिजिटल चिन्ह उपयोगकर्ताओं द्वारा प्रदान किये गए डेटा के रूप में होते हैं, जिसमें चित्र, वीडियो, निजी जानकारी, एप्स, वेबसाइट पर अपलोड की गयी सामिग्री समाहित है | सक्रिय और निष्क्रिय डिजिटल चिन्ह  के रूप में डेटा का उपयोग साइबर अपराध के अलावा अन्य अपराध के साक्ष्य के रूप में भी किया जा सकता है | इस डेटा का उपयोग किसी अपराध के साबित करने या उसके खंडन करने की लिए भी किया जा सकता है | 

डिजिटल साक्ष्य की अदालत में स्वीकार्यता

डिजिटल साक्ष्यों को अदालत में प्रस्तुत किया जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण है उन्हें प्रमाणिकता के साथ अदालत में प्रस्तुत कर उन्हें स्वीकार करना |यद्धपि विधि अनुसार यह सही है कि डिजिटल साक्ष्य को स्वीकार या अस्वीकार करना न्यायिक विवेक पर निर्भर होता है |
भारत में 1 जुलाई 2024 से नया साक्ष्य अधिनियम अर्थात भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (बीएसए) लागू हो गया है| जिसमे डिजिटल साक्ष्य से सम्बंधित प्रावधान नए और व्यापक रूप में लाये गए हैं | बीएसए में दी गयी  "दस्तावेज" की परिभाषा में इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड को भी शामिल किया गया है | इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल दस्तावेज में इ-मेल, सर्वर लॉग,कंप्यूटर पर दस्तावेज,लेपटॉप या स्मार्ट फोन, मैसेज, वेबसाइट,अवस्थिति साक्ष्य में इलेक्ट्रॉनिकी अभिलेख और डिजिटल युक्तियों में भण्डार किये गए वॉयस मेल मैसेज समाहित हैं | 
बीएसए की धारा 61 के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल दस्तावेज साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होंगे तथा इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल दस्तावेज भी वही विधिक प्रभाव, विधिक मान्यताऔर प्रवर्तनशीलता रखेंगे जो कोई अन्य दस्तावेज रखता है| 
इसी एक्ट की धारा 63(4) इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की प्रमाणिकता पर बल देती है | जिसके लिए एक प्रमाण -पत्र की आवश्यकता होती है | इस प्रमाण -पत्र पर कंप्यूटर या संचार-युक्ति या सुसंगत क्रियाकलाप के प्रबंध, जो भी समुचित हो, के भारसाधक और विशेषज्ञ के हस्ताक्षर होने चाहिए तब डिजिटल साक्ष्य न्यायालय में स्वीकार्य योग्य माना जाएगा, अन्यथा की स्थति में नहीं | 
यद्धपि कानूनी रूप से किसी की आडियो -वीडियो रिकॉर्डिंग करना अपराध की श्रेणी में आता है लेकिन बीएसए के तहत कुछ विशेष परिस्थितियों में रिकॉर्डिंग करना भी अनिवार्य बनाया गया है | उदाहरण के तौर पर अपराध स्थलों पर या यौन अपराधों के पीड़ित प्रकरणों में | 
बीएसए में डिजिटल साक्ष्यों को दस्तावेजी साक्ष्यों के बराबर का दर्जा देने का उद्देश्य कानूनी प्रक्रिया को सरलता प्रदान करना है | यधपि ,डिजिटल साक्ष्यों को बिना पुख्ता डेटा प्रोटेक्शन क़ानून के लागू करना भी गोपनीयता के मानवाधिकार के लिए चिंता का सबब है |  

भारत में डिजिटल अरेस्ट की कानूनी वैधता

भारत में डिजिटल अरेस्ट के सम्बन्ध में कोई भी कानूनी प्रावधान अभी तक उपलब्ध नहीं है | यदि किसी व्यक्ति को डिजिटल अरेस्ट के सम्बन्ध में कोई वीडियो या ऑडियो कॉल आती है तो निश्चित तौर पर वह एक ठगी या जालसाजी करने के लिए  की गयी कॉल है | दरअसल 1 जुलाई 2024 से लागू नए आपराधिक कानून में कानून लागू करने के लिए डिजिटल गिरफ्तारी करने का कोई प्रावधान नहीं किया गया है | नए क़ानून में केवल सम्मन की सेवा का तथा इलेक्ट्रॉनिक मोड में कार्यवाही का प्रावधान किया गया है | 
डिजिटल अरेस्ट के सम्बन्ध में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने "मन की बात" के 155 वें एपीसोड में भारतीय जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि डिजिटल अरेस्ट जैसी कोई व्यवस्था क़ानून में नहीं है | यह सिर्फ फ्रॉड है, फरेब है, झूठ है, बदमाशों का समूह है | 

डिजिटल अरेस्ट की घटनाओं को रोकने के लिए सरकार के प्रयास

सरकार साइबर अपराध के नए रूप डिजिटल अरेस्ट से लड़ने के लिए सचेत और चिंतित  है | इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को  मन की बात के 115 वे एपिसोड में डिजिटल अरेस्ट विषय पर भारतीय जनता को सम्बोधित करना पड़ा तथा उससे बचने के उपाय के रूप में  जनता को रुको -सोचो -एक्शन लो नामक  मंत्र दिया गया | 
प्रधान मंत्री ने बताया कि राष्ट्रीय साइबर हेल्पलाइन का एक नंबर 1930 जारी किया गया है जिस पर कोई भी पीड़ित या उसकी ओर से किसी भी प्रकार के साइबर अपराध के सम्बन्ध अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है | इसके अलावा एक राष्ट्रीय साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल https://cybercrime.gov.in भी प्रारम्भ किया गया है, जिस पर डिजिटल अरेस्ट से पीड़ित व्यक्ति अपनी ऑनलाइन शिकायत दर्ज करा सकता है | साइबर अपराधों पर प्रभावी नियंत्रण पाने के लिए केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों और केंद्र साशित प्रदेशों से मिलकर काम कर रही है | जिसके लिए सरकार ने नेशनल साइबर को आर्डिनेशन सेंटर की स्थापना भी की है | 
साइबर अपराध जिसमें डिजिटल अरेस्ट भी शामिल है, के बारे में एसएमएस,सोशल मीडिया अक्स (पूर्व में ट्विटर)@ साइबरदोस्त, फेसबुक, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम आदि के माध्यम से जन-जागरूकता फैलाने के लिए केंद्र सरकार गंभीरता से प्रयासरत है | 
गृह मंत्रालय द्वारा साइबर धोखाधड़ी के मामलों पर 6 फ़ेरबरी 2024 को जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार भारत सरकार द्वारा 3.2 लाख से अधिक सिम कार्ड और 49,000 IMEI ब्लॉक किए गए हैं।

डिजिटल अरेस्ट से बचाव के कुछ सरल उपाय 

साइबर अपराध के क्षेत्र में ठगी और जालसाजी के लिए "डिजिटल अरेस्ट" को हतियार के रूप में उपयोग की समाज में एक बाढ़ सी आ गयी है, जो तत्काल मानव अधिकार संरक्षण हेतु निवारण उपायों और सार्वजनिक जागरूकता की मांग करता है | सार्वजनिक जागरूकता में आपराधिक न्याय व्यवस्था और पुलिस प्रशाशन से लेकर  डिजिटल शिक्षा से वंचित हर आम नागरिक शामिल है |   
कोई भी व्यक्ति व्हाट्स- ऍप कॉल की अपनी डीपी पर पुलिस की वर्दी में किसी व्यक्ति का फोटो लगाकर या साधारण काल के जरिये किसी अनजान नंबर से काल करके फ़साने का प्रयास करे और किसी को न बताने की बात कहे तो तत्काल काल कट करके बिना घबराये पुलिस या परिवारीजन या परिचित को  सूचित करें | प्रोफेसर (डॉ) जी.के. गोस्वामी, IPS का कहना है कि जब आपने कोई अपराध किया ही नहीं है तो डर किस बात का है |  
साइबर अपराधी साधारण कॉल या व्हाट्स- ऐप या वेबसाइट या किसी एप्लीकेशन आदि के माध्यम से धमकाकर, झांसा देकर या आपके किसी परिजन के संकट में होने की सूचना देकर या जालसाज कहते है कि मनी लॉन्ड्रिंग या ड्रग तस्करी में आपकी संलिप्तता पाई गई है और आपको डिजिटल अरेस्ट  करने का प्रयास कर सकते हैं |ऐसी स्थती में तत्काल पुलिस को सूचना या संपर्क करना चाहिए| 
यदि कोई अपरिचित काल करने वाला आपके पुत्र या पुत्री के किसी रैकेट या यौन अपराध में फसने और उसे अरेस्ट करने की बात कहता है तथा तुरंत रूपये भेजने पर उन्हें छोड़ने का आश्वासन देता है तो तुरंत समझ जाना चाहिए कि कॉल साइबर ठगों या जालसाजों की है | डिजिटल तरीके से ठगी या जालसाजी करने वाले अपराधी पीड़ित व्यक्ति को किसी अपराध से बचाने के ऐवज में रूपये की मांग करते हैं | 
मोबाइल इंटरनेट पर अपनी निजी जानकारियों को साजा करने से तथा संदिग्ध  लिंक पर क्लिक करने और अज्ञात और अपुष्ट श्रोतों से उससे अटैच्ड फाइलें डाउनलोड करने से बचें | 
डिजिटल अरेस्ट करने वाले साइबर अपराधी पीड़ित को कॉल करके स्वयं को सीबीआई ,एनआईए या किसी अन्य विभाग में अधिकारी आदि बताकर ठगीका गैरकानूनी कारोबार करते हैं |
अक्सर देखा गया है कि 92 कोड वाले नंबर से डिजिटलअरेस्ट के लिए कॉल्स की जाती है इसलिए इस कोड वाली काल को नदरअंदाज करें |  
पुलिस विभाग में डिजिटल अरेस्ट जैसा कोई विधिक प्रावधान नहीं है | इसलिए पुलिस कभी भी लोगों को कॉल करके डिजिटल अरेस्ट नहीं करती है |
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने "मन की बात" में डिजिटल अरेस्ट से बचने के लिए सरल उपाय के रूप में डिजिटल सुरक्षा के तीन चरण बताये | ये चरण हैं -रुको- सोचो-एक्शन लो |  

निष्कर्ष 

वर्तमान समय में जरायम पेशे अर्थात आपराधिक कारोबार की दुनिया का सिरमौर शब्द  डिजिटल अरेस्ट का व्यक्ति, परिवार, समाज और सरकार पर गहरा और व्यापक असर दृष्टिगोचर हो रहा है | यह न सिर्फ आभासीय बल्कि वास्तविक रूप में भी व्यतिगत स्वंत्रता को सीमित कर रहा है बल्कि समाज के लोकतांत्रिक ढाँचे को भी कमजोर कर रहा है | इस लिए यह आवश्यक है कि इस मुद्दे के निराकरण के सम्बन्ध में बिना समय गवाए हर मोर्चे पर ध्यान दिया जाए और नागरिकों की डिजिटल अरेस्ट से रक्षा के लिए हर स्तर से और हर संभव कानूनी और नीतिगत पुख्ता कदम उठाये जायें | डिजिटल दुनिया में डिजिटल अरेस्ट से मानव अधिकारों की रक्षा के लिए एक समर्पित और मानवाधिकार केंद्रित समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है,ताकि सभी लोग स्वंत्रता और गोपनीयता के मानवअधिकार के साथ जी सकें |  

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

प्रश्न : डिजिटल अरेस्ट क्या है ?
उत्तर :डिजिटल अरेस्ट एक नए किस्म का साइबर अपराध है | इसमें पीड़ित पर डिजिटल उपकरणों का उपयोग करते हुए झूठे आपराधिक आरोप लगा दिए जाते है और उन्हें आपराधिक कानूनी कार्यवाही से बचने के बदले में उन्हें पैसे देने के लिए धमकाया या राजी किया जाता है | यह एक प्रकार की ठगी या जालसाजी के लिए किया जाता है |
प्रश्न : यदि कोई संदिग्ध कॉल आये तो क्या करें ?
उत्तर : यदि कोई संदिग्ध काल आये तो  पहले रुकें  फिर सोचें  उसके बाद एक्शन ले अर्थात परिजनों या पुलिस को सूचित करें 
प्रश्न : मुझे सबूत जुटाने के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर : संदिग्ध काल आने की बाद आप मोबाइल या लेपटॉप स्क्रीन का स्क्रीन शॉट ले सकते हैं तथा ऑडियो या वीडियो काल होने की स्तिथि में उसे रिकॉर्ड भी कर सकते हैं | 

 

 










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