शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

मानव अधिकारों की नए भारत के निर्माण में भूमिका :मुद्दे ,चुनौतियाँ और समाधान

Contribution of Human Rights in Building a Naya Bharat
प्रस्तावना 

नए भारत की संकल्पना को सिद्धि में बदलने के लिए मानव अधिकारों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है | वर्तमान में मानव अधिकार किसी भी देश की प्रगति और विकास के लिए आवश्यक हैं | जिन देशों में मानव अधिकार का स्तर अच्छा है उनमे निवास करने वाले वियक्तियों का जीवन स्तर भी उच्च स्तरीय है | 

मानव अधिकारों की अवधारणा 

मानव अधिकारों की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता का विकास | मानव अधिकारों की अवधारणा की ऐतिहासिक जड़ें प्राकृतिक अधिकारों में दृटिगोचर होती हैं. | इस प्रकार मानव अधिकार वे अधिकार है जो किसी वियक्ति को उसके मानव होने के नाते स्वतः ही  प्राप्त होते हैं |मानव अधिकार वियक्ति को चहुमुखी विकास का अवसर उपलब्ध कराते है |  मानव अधिकार सार्वभौमिक ,अविभाज्य और एक दूसरे पर निर्भर होते है | सरल भाषा में मानव अधिकार वे हैं जो वियक्ति को मानवीय रूप और गरिमा प्रदान करते हैं | किसी एक मानव अधिकार का उल्लघन वियक्ति और समूह के दूसरे अन्य मानव अधिकारों का प्रत्यछ और अप्रत्यछ रूप से प्रभावित कर सकता है | उसी प्रकार किसी एक अधिकार के संवर्धन और संरक्षण से अन्य अधिकारों का स्वतः ही संवर्धन और संरक्षण संभव है |उदाहरण के रूप में वियक्ति को शिक्षा का लाभ मिलने पर अन्य अधिकारों का स्वतः  ही संवर्धन और संरक्षण हो जाता है  अर्थात मानव अधिकार एक दूसरे पर अंतर्निर्भर हैं | 

मानव अधिकार की भारतीय परिभाषा 

भारत में मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए बने  मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम ,१९९३ की धरा -२(द ) के अनुसार , " मानव अधिकारों से प्राण ,स्वतंत्रता ,समानता और वियक्ति की गरिमा से सम्बंधित ऐसे अधिकार अभिप्रेत हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गए हैं या अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में शामिल हैं और भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं |" 

मानव अधिकारों की प्रकृति 

१७१ देशो और सैकड़ो गैर सरकारी संस्थाओं के सम्मलेन के बाद जारी की गयी विएना घोषणा में स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि , "सभी मानव अधिकार सार्वजनीन ,अविभाज्य, अंतर्सम्बन्ध और अंतर्निर्भर हैं | " साथ ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा गया है कि नागरिक ,राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक  सभी प्रकार के व्यक्तिगत  अधिकारों तथा राज्यों और राज्यों के समूहों  के अंतर्गत सामूहिक अधिकारों का एक मात्र जामिन लोकतंत्र है | विश्व भर में मानव अधिकारों के विकास और क्रियान्वयन  के साथ ही भातीय प्रजातंत्र ने २१ वी सदी में प्रवेश किया है | भारत में भारतीयों के जीवन में आये तमाम सकारात्मक बदलावों को दृष्टिगोचर कर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि  वर्तमान में मानवाधिकारों  के बिना नए भारत की परिकल्पना और वास्तविकता में उसका रूपांतरण बेमानी होगा | 

भारत में मानवाधिकारों का उपयोग तथा क्रियान्वन 

नए भारत एवम समग्र विकास की भारतीय अवधारणाओं को मूर्त रूप में बदलने के लिए सयुक्त राष्ट्र सदस्य  के रूप में भारत के पास मानव अधिकार सिद्धांतों के रूप में सशक्त औजार लम्बे समय से उपलब्ध रहा है | सयुंक्त राष्ट्र अधिकार पत्र की स्वीकृति के बाद से अब तक करीब ७० वर्ष  गुजरने के बाबजूद भारत में मानव अधिकारों पर अमल का इतिहास निराशाजनक रहा है | मानव अधिकारों के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए उनका ज्ञान और सरोकार पैदा करने की जितनी आवस्यकता आज है उतनी कभी नहीं थी | इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत में मानव अधिकारों के संवर्धन की दिशा में कोई कदम ही नहीं उठाये गए है | 
विश्वभर में मानवाधिकारों के संरक्षण अवं संवर्धन के क्षेत्र में प्राप्त प्रमुख उपलब्धि सयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकृत की गयी मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा है जिसे १० दिसम्बर ,१९४८ को स्वीकृत व् अंगीकृत किया गया था | इस घोषणा पत्र  द्वारा स्पष्ट किया गया है कि , "सभी वियक्ति जन्म से स्वतन्त्र  हैं और अपनी गरिमा और अधिकारों के मामले में बराबर है |" इसमें किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा | विश्वभर में इस घोषणा के महत्त्व को इस आधार पर समझा जा सकता है कि अब तक इस दस्तावेज का ५०० से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है | भारत भी उक्त घोषणा पत्र का सदस्य देश है | 
नए भारत के निर्माण से जुड़े अनेक मुद्दे और और चिंताए विद्द्मान रहे है | बाबजूद इसके करीब ७० वर्षों तक भारतीय संसद द्वारा अपने नागरिकों के हितों में अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों का उतना उपयोग नहीं किया गया है जितना किया जाना चाहिए था | 

नए भारत की संकल्पना 

चौहदवीं लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भारत के प्रधान मंत्री बने नरेंद्र मोदी के नए भारत के निर्माण की संकल्पना दरअसल कुछ और नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के मूल संगठन जनसंघ के नेता और उसकी विचार धारा को दार्शनिक आधार देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सपनो को आगे बढ़ाने की यात्रा है | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वर्ष २०१५ में सयुंक्त राष्ट्र संघ सतत विकास समिति के समक्ष सतत विकास विषय पर सम्बोधन किया | हम सबका साझा संकल्प है कि विश्व शांति पूर्ण हो ,व्यवस्था न्याय पूर्ण हो, विकास सस्टेनेबल हो , तो गरीबी के रहते यह कभी भी संभव नहीं होगा | इस लिए गरीबी को मिटाना हम सभी का पवित्र दायित्व है |  

पंडित दीन दयाल उपाध्याय का दर्शन 

पंडित दीन दयाल उपाध्याय का विकास के सन्दर्भ में विचार है कि विकास में सरकार द्वारा अंतिम पायदान पर स्तिथ वियक्ति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए तथा जिससे उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की भी पूर्ती हो सके |परिणामस्वरूप एक समरसता वाला समाज तैयार हो सके| पंडित दीन दयाल उपाध्याय के दर्शन को एकात्म मानव दर्शन कहा जाता है और इस एकात्म मानव दर्शन में समग्रता के व्यापक दर्शन होते हैं |
पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने मानव की पहली कड़ी यानी व्यक्ति से लेकर सर्वोच्च स्तर यानी समाज तक गहरा चिंत्तन किया | पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने समाज के किसी वंचित वर्ग की चिंताएं करने की बजाय समाज के चिंतन पर सर्वाधिक बल दिया | वे कभी यह नहीं कहते थे कि पिछड़े वर्ग का विकास किया जाय बल्कि उनका जोर रहता था कि समस्त समाज का विकास किया जाय,अर्थात समस्त समाज के विकास की चिंत्ता करते हुए संतुलित विकास का प्रबल समर्थन करते थे| 
पंडित दीन दयाल उपाध्याय की परिकल्पना थी कि पिछड़ा वर्ग समाज का ही एक अंग है | इसलिए समाज का विकास होने पर पिछड़े वर्ग का विकास स्वतः हो जाएगा | इस लिए सम्पूर्ण समाज के विकास पर बल दिया जाना चाहिए | वे मशीन आधारित विकास के विरोधी थे | वे हर व्यक्ति के हाथ में काम चाहते थे तथा वे अर्थव्यवस्था के  विकेन्द्रीयकरण के प्रबल समर्थक थे | 
नए भारत की परिकल्पना अनायास पैदा हुया विचार न होकर लम्बे समय में विकसित एक जटिल परिकल्पना है और समय के साथ -साथ इसके आयामों में भी विस्तार होता रहा है | 
इस एकात्मवाद का सैद्धांतिक आधार पंडित दीन दयाल के नए भारत की परिकल्पना को मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए मूलभूत और ससक्त आधार उपलब्ध करता है | नए भारत की सैद्धांतिक  अवधारणा  का बीजारोपण  भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारम्भ के समय से ही हो चुका था | लेकिन समय गुजरने के साथ साथ नए भारत की अवधारणा के विभिन्न आयाम देश की आवाम के सामने आते रहे हैं | अलग-अलग कालखंडों में नए भारत के निर्माण की अवधारणा में निरंतर बदलाव होता रहा है |
भारत के पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव  परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के दिल्ली स्तिथि केंद्रीय कार्यालय में न्यू इंडिया पर नई बहस छेड़ कर भारतीयों को आश्चर्य में डाल  दिया | अनेक लोगों को न्यू  इंडिया का अर्थ ही समझ में नहीं आया | मोदी जी ने कहा कि, "न्यू इंडिया सरकार से नहीं बल्कि १२५ करोड़ भारतवासियों की छमताओं  और कुशलताओं  से उभरा है |"
जाती और धर्म आधारित राजनितिक समाज में विखंडन और वैमनस्य पैदा करती है और समाज में विखंडन और वैमनस्य सम्पूर्ण समाज के विकास में गंभीर बाधाएं पैदा करती हैं | जिससे समाज का समग्र विकास  कतई संभव नहीं है | पंडित दीन  दयाल  समाज को विखंडित करने वाली राजनीति के प्रबल विरोधी थे | उन्होंने महसूस किया कि हमें सभी राजनैतिक मतभेदों को दूर करके एक साथ मिलकर देश का समग्र विकास करना चाहिए |      
पंडित दीनदयाल की विशेषता रही है कि उनके द्वारा सदैव ही समग्र विकास की बात की जाती रही है न की खंडित विकास की | खंडित विकास का अर्थ अनेक सन्दर्भों में असंतुलित विकास से जोड़ा जाता है | 
हम आने वाली भविष्य  की  पीडीओं  को दुनिया में क्या सौप कर जाना चाहते  हैं ? यह वर्तमान पीड़ी पर ही निर्भर करेगा कि सिर्फ जीवन यापन करना चाहते है  या गरिमा के साथ जीवन जीना कहते है | यही भविष्य की पीडियों के बारे में सोचना पड़ेगा कि हम उन्हें  सिर्फ जीने के लिए छोड़ कर जाना चाहते है जिसमे गुलामी,संघर्ष, अत्याचार ,अमानवीय व्यवहार, भुकमरी,वर्ग संघर्ष,जातीय और धार्मिक संघर्ष का बोलवाला हो या गरिमामयी जीवन  जीने के लिए एक सुरक्षित व्  स्थायित्व  पूर्ण वातावरण देना कहते है | 
भारत अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था  बनने के कगार पर है बाबजूद इसके सार्वजनिक  स्वास्थय ,शिक्षा ,आवास ,भोजन और पानी जैसे मामले में देश दुनिया के अनेक  देशों से भी पीछे हैं |  इन मानकों पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए भी सामाजिक ,शैक्षिक  और आर्थिक विकास की गति और तेज करनी होगी | जिसके लिए सतत विकास की अवधारणा को विह्वहार में लाने पर जोर देना पडेगा |   

सतत विकास की अवधारणा 

सतत विकास की अवधारणा विकास का ही नया आयाम है | जो नई  पीड़ी की भलाई के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है | शाब्दिक अर्थ के रूप में देखने पर सतत विकास का अर्थ है  निरंतर और परिवर्तन | 
ब्रूटलैंड आयोग , १९८७ में इसे परिभाषित करते हुए कहा कि , " सतत विकास ऐसा विकास है जो भविष्य की पीढ़ी की समस्त आवश्यकताओं को संतुषट करने की आवश्यकता के साथ किसी भी प्रकार का समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी  की आवस्यकता को पूर्ण करता है |"   
मानव अधिकारों पर पहली कॉन्फ्रेंस २२ अप्रेल से १३ मई ,१९६८ तक तेहरान में(ईरान )में आयोजित हुई | इसमें सदस्य राज्यों से गुजारिश की गई  कि वे अपने यहाँ शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार बढ़ावा दे कि छात्रों में मानव अधिकार के प्रति सम्मान पैदा हो सके | पंडित  दीन दयाल का भी दर्शन था कि , "महिलाओं की शिक्षा के बिना एक सुसभ्य समाज का निर्माण असंभव है | 

नए भारत के निर्माण में चुनौतियाँ 

बर्तमान में भारत के समक्ष अनेक चुनौतियाँ है | जैसे की स्वछता की समस्या ,नदियों में प्रदुषण की समस्या ,आवास की समस्या, कुशल कामगारों की समस्या, शिक्षा और स्वास्थय की समस्या, सम्पूर्ण कम्प्यूटरीकरण का अभाव ,किसानो की समस्याएं मजदूरों की समस्याएं ,गरीबी और बेरोजगारी के समस्या आदि | उक्त चुनौतियों का सामना समाज में हर व्यक्ति द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन तथा मानव अधिकारों का सम्मान करते हुए किया जा सकता है | इसके लिए सरकार की प्रबल इच्छा शक्ति की अति आवश्यकता है | भारत में मानव अधिकारों का संरक्षण एवम संवर्धन लिए भारत के नागरिक और भारतीय संसद के पास मानव अधिकार सिद्धांतों और नियमो के रूप में औजारों की एक बृहत श्रंखला उपलब्ध है |  जिसका उचित और व्यवहारिक उपयोग कर न्यू इंडिया के परिकल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है | समय आ गया है जब हमें विचार करना होगा कि हम आने वाली पीढ़ीओं को विरासत में कैसी दुनिया सौपना चाहते हैं | 

उपसहार 

नए भारत के निर्माण में नरेंद्र मोदी संसद की उच्चत्तम क्षमताओं का सद्पयोग करना चाहते है लेकिन इसके लिए अनेक क्षेत्रों के अलावा मानव अधिकार शिक्षा के संवर्धन की दिशा में भी अनेक मुद्दे और चुनौतियाँ उपस्थित हैं जिनके निवारण के लिए  इस प्रकार के लेख की आवस्यकता को बल मिलता है | यह लेख पंडित दीन दयाल के नए भारत की परिकल्पना के भारतीय स्वरुप को मूर्तरूप प्रदान करने में मानव अधिकार सिद्धांतों का अधिकाधिक उपयोग का रास्ता प्रशस्त करने में सहायक होगा | इसके अतिरिक्त  पंडित दीन दयाल की परिकल्पना के भारतीय स्वरुप को वैश्विक आधार प्रदान करने तथा ज्ञान के यथार्थ योगदान में सहायक होगा | नए भारत की संकल्पना को सिद्धि में परिवर्तित करने के लिए भारत में मानव अधिकारों का संवर्धन अवं संरक्षण आवश्यक है | मानव अधिकारों के प्रति सम्मान की इच्छा शक्ति को बढ़ावा देकर विकसित भारत @२०४७ के लक्ष्य को प्राप्त कर आजादी के १०० वे वर्ष २०४७ तक एक विकसित भारत का सपना नए भारत के रूप  में साकार किया जा सकता है | 

सन्दर्भ श्रोत 

१. पी ऍम मोदी स्पीच एंड दी यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल समिट ,सितम्बर २५ ,२०१५ | 
२. डॉ  ऍम सी  त्रिपाठी ,आणविरोन्मेंटल लॉ ,सेंट्रल लॉ पब्लिकेशन इलाहाबाद ,उत्तर प्रदेश | 
३. ह्यूमन राइट्स एजुकेशन ,असोसिएशन ऑफ़ इंडियन यूनिवर्सिटीज ,ए आई यू  हाउस ,कोटला मार्ग नई दिल्ली |
४. ब्रजेश बाबू ,ह्यूमन राइट्स एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट ,ग्लोबल पब्लिकेशन नई दिल्ली | 
५. यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल डेवलपमेंट एजेंडा २१ ,यूनाइटेड नेशंस ऑन एनवायरनमेंट ,रिओ दे जेनेरिओ ,ब्राजील ३-१४ जून १९९२ | 
६. द  प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट ,१९९३ | 
७. विएना डेक्लरेशन एंड प्रोग्रमम ऑफ़ एक्शन ,वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस  ऑन  ह्यूमन राइट्स ,विएना ,१४-१५ जून,१९९३|  
८. मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा १९४८ | 
९.डॉ कमल कौशिक ,एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीन दयाल उपाधियाह,प्रकाशक पंडित दीन दयाल स्मृति महोत्सव समिति दीन दयाल धाम फराह, मथुरा | 
१०. डॉ कमल कौशिक ,भारत के महान दार्शनिक, पंडित दीन दयाल उपाधियाह,प्रकाशक पंडित दीन दयाल स्मृति महोत्सव समिति दीन दयाल धाम फराह, मथुरा | 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच अन्तर्सम्बन्ध -Interlinkage between Forensic Science & Human Rights(In Hindi)

Forensic Science and Human Rights

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच रिस्ते 

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार के बीच अन्तर्सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण और जटिल विषय है | फॉरेंसिक साइंस का मुख्य उद्देश्य गंभीर अपराधों की जांच कर उसकी तह तक पहुंचना है तथा आपराधिक न्याय प्रणाली के समक्ष उच्च कोटि के साक्ष्य उपलब्ध कराकर सत्य की स्थापना में न्यायालय की सहायता करना है |
दूसरी ओर मानव अधिकार वे अधिकार है जो मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति को उसके जन्म से प्राप्त है | इन अधिकारों में गरिमा,समानता,स्वतंत्रता, जीवन, सुरक्षा और सक्षम न्यायालय से न्याय की मांग करने का अधिकार    हर व्यक्ति के चहुमुखी विकास के लिए आवश्यक है | ये सभी मनुष्यों को बिना किसी मूल,वंश ,घर्म,जाति,नस्ल,रंग,भाषा,क्षेत्र, लिंग,आदि के भेदभाव के प्राप्त होते हैं। यही नहीं गरिमा का अधिकार व्यक्ति की मृत्यु या ह्त्या के उपरांत उनके शवों को भी  प्राप्त होता  है |
किसी भी देश में मानव अधिकारों का संरक्षण एक सुदृढ़ लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है | अक्सर फॉरेंसिक साइंस का उपयोग मानव अधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं से सम्बंधित जटिल तथ्यों को उजागर करने के लिए  किया जाता है | जब नियम विरुद्ध किसी व्यक्ति को किसी झूठे अपराध में फंसाया जाता है और उसे यातनाये दी जाती है या हिरासत में ही उसकी ह्त्या कर दी जाती है | ऐसी स्थति में अपराधियों के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति गवाही देने वाला सामने नहीं आता है  जिसके कारण सरकार पोषित या संरक्षण पाए व्यक्तियों के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही पहले तो प्रारम्भ नहीं होती है और यदि प्रारम्भ हो भी जाए तो साक्ष्य के अभाव में न्यायलय से दोषमुक्त हो जाते है | ऐसी स्थति में पीड़ितों के लिए फॉरेंसिक साइंस ही न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के द्वार खोलती है |
विश्व के अलग-अलग देशों में नरसंहार की कई घटनाएं इतनी भीभत्स और भयानक हुयी है कि उन घटनाओं का कोई चश्मदीद जीवित नहीं बचा, जो घटना के सम्बन्ध में परिथितिजन्य विवरण उपलब्ध करा सके | जो  जीवित बचे वे आताताईयों के भयवस अपना मुँह खोलने के लिए तैयार नहीं  थे | 
जो जीवित बचे उनके द्वारा दिए गए घटना सम्बन्धी विवरण की सत्यता की पुष्टि के बिना घटना की सच्चाई को उजागर करना अपने आप में अत्यधिक दुरूह कार्य था| इस जटिल कार्य को आसान बनाया फॉरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों द्वारा फॉरेंसिक साइंस का उपयोग करके | 
आज फॉरेंसिक साइंस में बहुत उन्नति हो चुकी है| यही कारण है कि फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से विश्व के कई देशों में मानवाधिकार उलंघन की भीभत्स आपराधिक घटनाओं का खुलासा संभव हो सका है | 
विश्वभर में फॉरेंसिक साइंस का मानव अधिकार उल्लंघन के वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के सशक्त माध्यम के रूप में उपयोग होता रहा है | कई देशों के फॉरेंसिक साइंस के वैज्ञानिकों ने मानवता के विरुद्ध अपराध के रूप में नरसंहार की घटनाओं से सम्बंधित विशेष तथ्यों को उजागर करने का काम किया है| यही नहीं आज यह विज्ञान प्रयोगशालाओं से बाहर निकलकर दूर दराज स्थित आपराधिक घटना स्थलों तक पहुंच रहा है। वर्तमान में इसके अनेक उदाहरण उपलब्ध है |  जिनमे से कुछ यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं | 
उदाहरण स्वरुप, वर्ष १९९५ में स्रेवेनिका के बोसनियन गांव में सर्वों द्वारा मारे गए बोसनियन लोगों के शवों को बरामद किया गया | उनका सावधानी पूर्वक उत्खनन और विश्लेषण के परिणाम स्वरुप सामने आये वैज्ञानिक सबूतों को साक्षियों के ब्यानो के साथ मिलाया गया |  इस घटना में  ८००० लोगों की सामूहिक हत्या हुई थी |  
उसी प्रकार वर्ष १९९० में ग्वाटेमाला कमीशन फॉर हिस्टोरिकल क्लेरिफिकेशन ने अनेकों सामूहिक कब्रों की खुदाई के आदेश दिए | अनेकों वर्ष बीतने के बावजूद पीड़ित और स्थानीय लोग जोर से यह नहीं कह सकते थे कि उनके पास ही उनके परिजनों या रिश्तेदारों के शवों को दफनाया गया था | उक्त सामूहिक कब्रों को तहसनहस  और हेरफेर करने के प्रयास किये गए | परन्तु सामूहिक कब्रों के उत्खनन के उपरान्त निकले परिणामों ने स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध कराये कि ग्वाटेमाला आर्मी ने वर्ष १९८० में अत्याचार किये थे | 
73 वर्षीय ओकलाहोमा निवासी क्लाइड स्नो दुनिया के जाने-माने फोरेंसिक मानवविज्ञानी माने जाते है | वे  आपदाओं, दुर्घटनाओं और हिंसक अपराधों में मारे गए लोगों का वैज्ञानिक विधि से परीक्षण कर घटना के पीछे छिपे रहस्यों को उजागर करते है | वर्ष १९७९ में अमेरिकन एयर लाइन्स की १९१ दुर्घटनाग्रस्त हुई जिसमे २७३ लोग मारे गए | क्लाइड स्नो ने जांच करने के लिए एक टीम बनाई जिसमे चिकित्स्कीय जांचकर्ता ,दन्त चिकित्सक तथा एक्स -रे तकनीसियन शामिल थे | दुर्घटनाग्रस्त लोगों के अवशेषों की जांच  पूरी करने के परिणामस्वरूप  २७३ लोगों में से २४४ लोगों की पहचान कर ली गयी थी सिर्फ २९ लोग ही अज्ञात बचे थे | 
यह फॉरेंसिक साइंस ही है जिसकी बदौलत मानवता के विरुद्ध गंभीरऔर भीभत्स अपराधों का खुलासा संभव हो सका है  |  
सयुंक्त राष्ट्र  संघ की सुरक्षा परिषद् ने सशस्त्र संघर्ष के दौरान लापता हुए लोगों पर ११ जून २०१९ को पहली बार प्रस्ताव पारित किया जिसमे इस बात पर चिंता जाहिर की गयी गयी कि लापता होने वाले लोगों की संख्या में कमी आने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं | 
परिषद् ने सर्व सम्मिति से संकल्प २४७४ (२०१९ ) को अपनाते हुए कहा कि संघर्ष के दोनों पक्षों को वह सभी उचित उपाय करने चाहिए जिनसे लापता लोगों की अनवरत खोज चलती रहे तथा उनके अवशेषों  की वापसी सुनिश्चित हो| दोनों पक्ष बिना किसी दुराग्रह के लापता लोगों का हिसाब दें और लापता लोगों की शीघ्र ,गहन और प्रभावी जांच सुनिश्चित हो | 
सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव में कहा गया कि  हम महान वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति से परिचित है जिससे अन्य बातों के साथ -साथ लापता लोगों की खोज और पहचान की प्रभावी विधियों में उल्लेख्नीय बृद्धि हुई है जिसमे फॉरेंसिक साइंस ,डीएनए  विश्लेषण ,उपग्रह मानचित्र और इमेजनरी ,तथा जमीन भेदने वाला रडार शामिल है | 
सुरक्षा परिषद् के उक्त प्रस्ताव में शास्त्र संघर्ष से जुड़े पक्षों से सशस्त्र संगर्ष के बाद मृतकों की तलाश करने ,उन्हें बरामद करने,उनकी पहचान करने ,दफ़न स्थलों का मानचित्र बनाने ,मृतकों के शवों का सम्मान करने करने और उचित रूप में रख रखाव का आग्रह किया गया है |  
सुरक्षा परिषद् के उक्त प्रस्ताव के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्ताव में शवों और उसके परिजनों या रिश्तेदारों के मानव अधिकारों के प्रति संघर्ष के दोनों पक्षों को सम्मान दिए जाने का आग्रह किया है साथ ही लापता, लोगों की खोज में वैज्ञानिक विधियों के रूप में फॉरेंसिक साइंस ,डीएनए  विश्लेषण ,उपग्रह मानचित्र और इमेजनरी तथा जमीन भेदने वाला रडार के उपयोग की वकालत की है |
फॉरेंसिक साइंस की बदौलत अपराधी को सजा दिलाकर पीड़ित के मानव अधिकारों को संरक्षित किया जाता है उसी तरह अभियुक्त के निर्दोष साबित होने पर अभियुक्त की स्वतंत्रता और न्याय प्राप्ति के अधिकार का संरक्षण होता है | 
अनेक मामलों में जानबूज कर की गयी आगजनी और हत्याओं को दुर्घटना का रूप दे दिया जाता है लेकिन फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से की जाने वाली जांच पड़ताल से दूद का दूध और पानी का पानी हो जाता है | आगजनी या ह्त्या करने वालों का पता चल जाता है तथा पीड़ितों को फॉरेंसिक साइंस की बदौलत छतिपूर्ति संभव हो पाती है | 

शवों /मृतकों का सम्मान और उचित व्यवहार का मानव अधिकार  

विश्वभर में अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमे कब्रों में दफ़न लोगों को उत्खनन द्वारा निकाला गया और उनकी फॉरेंसिक साइंस के तहत जांच की गयी और उसके बाद उन शवों की पहचान होने पर वे उनके परिजनों और रिश्तेदारों को सौंपे गए जिससे वे अपनी रीती रिवाज के साथ उनका अंतिम संस्कार कर सके | मृत्यु या ह्त्या के बाद भी उनके शवों को सम्मान दिया जाना पीड़ितों के परिवारीजनों और रिश्तेदारों को दर्द भरा सकून देता है जिससे उन्हें भी गरिमा के अधिकार का अहसास होता है |
सर्वोच्च न्यालय की विधि व्यवस्था आश्रय अधिकार अभियान  बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, ए आई आर २००२ एस सी ५५४  में सड़क पर मरने वाले आश्रयहीन व्यक्तियों के अदावाकृत  शवों को उनके धर्म के अनुसार रीति रिवाज  से अंतिम संस्कार के अधिकार को स्थापित किया गया है | 
फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों के बीच अंतर्रसम्बन्धों के बारे में जानकर आप आश्चर्यचकित होंगे कि स्पेन में हिंसा के इतिहास को चुनौती देने के लिए एक बहुत व्यापक फॉरेंसिक साइंस -आधारित मानवाधिकार आंदोलन खड़ा हो गया | इस आंदोलन के उद्देश्यों में परिवार के मारे गए या लापता परिजनों को खोजने,उन्हें वापस लाने और उनको पुनः दफनाने में सहायता करना और राज्य के अत्याचारों और नरसंहार के समय घटित घटनायों को वैज्ञानिक तथ्यों से पुष्ट करना शामिल था | 
सही मायने में यह एक अधिकार आधारित वैज्ञानिक आंदोलन था जो कि अतीत की हिंसक और भीभत्स कहानियों को उजागर करने पर आधारित था | इस आंदोलन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए अवशेषों को प्राप्त करना और विज्ञान के सुस्थापित सिद्धांतों का उपयोग सुनिश्चित कर उनकी पहचान कराना था | यह अत्यधिक दुरूह कार्य था | शव परीक्षण भी फॉरेंसिक साइंस का एक विषय है | 
इस आंदोलन की खास  बात यह थी कि इस आंदोलन में फॉरेंसिक साइंस अर्थात विज्ञान को परिवारों के मानव अधिकारों की प्राप्ति का एक सशक्त माध्यम बनाया गया | जिसकी की बदौलत अर्जेंटीना में डीएनए परीक्षण से कम से कम 130 लापता बच्चों की पहचान संभव हो सकी
जिन परिवारों से उनके परिजन लापता होते हैं उनके पता न लगने तक परिवारीजन हमेशा शोक में डूबे रहते हैं  और उनके मिलने का इंतज़ार ख़त्म नहीं होता है | इस दौरान परिवारीजन अपने प्रियजनों का अपनी आस्था और परम्पराओं के अनुसार अंतिम संस्कार के अधिकार से वंचित रहते हैं और उनके इस इन्तजार को अनेकों मामलों में समाप्त किया है फॉरेंसिक साइंस के उपयोग ने | 
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विधि व्यवस्था पंडित परमानंद कतरा बनाम भारत संघ ,१९९५ (३)एस सी सी २४८ में स्थापित किया है कि,"भारत के संविधान के अनुछेद २१ के तहत सम्मान और उचित व्यवहार का अधिकार न सिर्फ जीवित व्यक्ति को है बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर को भी उपलब्ध है |"
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था रामजी सिंह मुजीब भाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य ,(२००९)५ एआईआईऐलजे ३७६  में  माना गया कि भारत के संविधान के अनुछेद २१ में "व्यक्ति" शब्द में एक मृत व्यक्ति भी समाहित है और सम्मान के साथ जीवन के अधिकार का विस्तार इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसमे उसके मृत शरीर को भी उसकी परंपरा,संस्कृति और धर्म के अनुसार सम्मान दिया जाए, जिसका वह हकदार होता है तथा समाज को मृतक के प्रति किसी प्रकार का अपमान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है | 
भारत के राष्ट्रीय विधायन और विधि व्यवस्थायों  में ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ,संकल्प २००५ /२६ ,१९ अप्रैल २००५ , में मानव अधिकार और फॉरेंसिक विज्ञानं पर एक प्रस्ताव में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने "मानव अवशेषों के सम्मानजनक तरीके से निपटाने के महत्व, जिसमे उनका उचित प्रबन्धन और निपटारा शामिल है, तथा साथ ही परिवारों की आवश्यकताओं के प्रति सम्मान" को रेखांकित किया गया है |  
उपरोक्त से स्पष्ट है कि न सिर्फ जीवित व्यक्ति को गरिमा का अधिकार प्राप्त है बल्कि मृत शरीर को भी जीवित व्यक्ति के सामान गरिमा का अधिकार प्राप्त है |    

फोरेंसिक साइंस  का तात्पर्य एवम क्षेत्र 

फोरेंसिक साइंस की आधुनिक और उत्कृष्ट परिभाषा के अनुसार कानूनी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उपयोग में लाए जाने वाला कोई भी विज्ञान फोरेंसिक विज्ञान है। फॉरेंसिक साइंस या न्यायालयीय विज्ञान मुख्य रूप से किसी आपराधिक घटना या अपराध की जांच तथा उसका विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक सिद्धांतों औरअत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग से संबंधित है। फॉरेंसिक वैज्ञानिक अपराध स्थल से एकत्र किए गए सबूतों/सुरागों को अदालत में प्रस्तुत करने के वास्ते ग्राहीय साक्ष्य के तौर पर इन्हें परिवर्तित करने का प्रयास करता है।
अर्थात यह विज्ञान आपराधिक घटनाओं की जांच में वैज्ञानिक  विधियों का उपयोग करता है | जिससे आपराधिक घटना से सम्बंधित तथ्यों की पुष्टि सटीकता के साथ हो सके | एक फॉरेंसिक साइंटिस्ट किसी प्रकरण से सम्बंधित जटिल तथ्यों की उपस्थिति के बाबजूद एक निश्चित सटीकता के साथ उसके समक्ष आने वाले  प्रश्नो का उत्तर दे सकता हैं | यह विज्ञान आपराधिक न्याय व्यवस्था में समाज और मानवता के विरुद्ध होने वाले जघन्य अपराधों में अत्यधिक सटीक और ग्राहीय  साक्ष्य उपलब्ध करती है | इस विज्ञान का मूलमंत्र है सत्य की खोज करना | 
समाज में अनेक आपराधिक घटनाएं ऐसी होती है जो किसी की उपस्थिति में नहीं होते हैं अर्थात जिसके कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं होते है | ऐसी स्तिथि में अपराधी को पहचान कर घटना से सटीकता से जोड़ना तथा अपराधी को सजा दिलवाना सम्पूर्ण आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए कोई आसान कार्य नहीं होता है | बस यही वह स्थति होती है जहाँ आपराधिक न्याय व्यवस्था का ध्यान फॉरेंसिक साइंस की ओर जाता है |
फॉरेंसिक विज्ञान के तहत घटना स्थल पर मौजूद सुबूतों ,जैसे कि मृतक का शव,खून के धब्बे,वीर्य,नाखून,बाल,अन्य वस्तुएं,अँगुलियों के निशान,हतियार तथा शरीर पर लगे गोलियों के निशान तथा उन पर लगा गन पाउडर आदि,  के अतिरिक्त अन्य शारीरिक, रासायनिक और जैविक तथ्यों का संकलन किया जाता है और आवश्यकता अनुसार प्रयोगशाला में उन नमूनों का उपयोग किया जाता है | जिसके परिणाम स्वरुप विश्लेषण के आधार पर सटीक जानकारी, तथ्यों औरअपराधियों की पहचान की जाती है | 
न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के लिए किसी आपराधिक घटना या दुर्घटना के तथ्यों के सम्बन्ध में सटीकता, पारदर्शिता और निष्पक्षतापूर्ण जानकारी का होना आवश्यक है और यह जानकारी एकत्रित होती है फोरेंसिक साइंस में उपलब्ध उन्नत तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग से |
इस विज्ञान का मुख्य उद्देश्य न केवल दोषियों को सजा दिलाना है बल्कि बल्कि निर्दोष व्यक्तियों को उनके विरुद्ध हो रहे अन्याय से बचाना भी है | न्यायालय में इन साक्ष्यों के स्वीकार किये जाने योग्य होने पर अपराध के दोषी को सजा मुकर्रर होती है या निर्दोष होने की स्तिथि में बाइज्जत मुक्त कर दिया जाता है | 
साक्ष्य विहीन मुकद्द्मों में न्यायालय का निर्णय मुख्य्तया फॉरेंसिक साइंस द्वारा इकट्ठे किये गए सबूत के सम्बन्ध में निकाले गए निष्कर्षों पर ही निर्भर करता है | इस विज्ञान द्वारा न्यायालय को किसी अपराध के सम्बन्ध में सटीक जानकारी मिलती है जो आपराधिक न्याय व्यवस्था को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाती है खासकर जब न्यायालय के समक्ष अँधा मामला होता है| अर्थात मामले में निर्णय लेने के लिए किसी प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते है लेकिन सबूत के रूप में वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध होने की सम्भावनाये होती हैं |इससे वर्तमान न्याय प्रणाली में फॉरेंसिक साइंस की भूमिका का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है | 
फोरेंसिक साइंस का विस्तार आज बहुत व्यापक तथा एक बहु-विषयक क्षेत्र के रूप में हो चुका है। वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों के चलते आये दिन इस क्षेत्र में व्यापक विस्तार हो रहा है | फोरेंसिक विज्ञान में फिंगरप्रिंट से लेकर फोरेंसिक मनोविज्ञान, फोरेंसिक नृविज्ञान, फोरेंसिक ओडोन्टोलॉजी, फोरेंसिक पैथोलॉजी, फोरेंसिक जीवविज्ञान और सीरोलॉजी,फोरेंसिक रसायन विज्ञान, फोरेंसिक भौतिकी, फोरेंसिक कीट विज्ञान, विष विज्ञान, डीएनए विश्लेषण, डीएनए फिंगरप्रिंटिंग, डिजिटल फोरेंसिक, फोरेंसिक इंजीनियरिंग, फोरेंसिक बैलिस्टिक, फोरेंसिक अकाउंटिंग, प्रश्नगत दस्तावेज, फोरेंसिक पोडियाट्री, फोरेंसिक भाषाविज्ञान और वन्यजीव फोरेंसिक तक कई तरह के विषय शामिल हैं जो उसके बहु-विषयक होने की स्पष्ट गवाही देते हैं | 

न्यायालय में फॉरेंसिक साक्ष्य का महत्त्व 

फॉरेंसिक साइंस के उपयोग से संकलित सबूतों के सम्बन्ध में यह आवश्यक नहीं कि न्यायालय हर मामले में उन्हें साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर ले | यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर होता है कि फॉरेंसिक साइंस के द्वारा किसी घटना के सम्बन्ध में जांच के नतीजों को स्वीकार करे या ना करे | 
यदि फॉरेंसिक साइंस के नतीजों को किसी न्यायालय द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह न्यायालय के समक्ष उपस्थित प्रकरण में साक्ष्य का रूप धारण कर लेता है तथा वह न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले निर्णय का आधार बनता है | 
यद्यपि १ जुलाई २०२४ से पहले फॉरेंसिक साइंस के तहत संग्रह किये गए सबूत भारतीय साक्ष्य अधिनियम,१८७२ की धरा ४५ के अधीन विशेषज्ञ की राय के तहत आते थे परन्तु उक्त अधिनियम के समाप्त किये जाने के बाद लाये गए नए भारतीय साक्ष्य अधिनियम,२०२३ की धरा ३९ में भी विशेषज्ञ की राय को सम्मिलित किया गया है | 
फॉरेंसिक साइंस के सबूत स्वतः ही साक्ष्य का रूप धारण नहीं करते हैं बल्कि उन सबूतों के सम्बन्ध में उस फॉरेंसिक साइंस विशेषज्ञ की जिसने सबूतों का संकलन या उनकी प्राप्ति के के बाद वैज्ञानिक विश्लेषण किया है उसकी मुख्य-परीक्षा और प्रति-परीक्षा के बाद ही वे सबूत साक्ष्य में बदलते है अन्यथा की स्थति में उस फॉरेंसिक साइंस के सबूत का भी कोई महत्त्व नहीं होता है |
ऐसी अपराधिक घटनाओं, जिनके सम्बन्ध में चच्छुदर्शी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते है, वहां अपराधियों को सजा दिलाने या निर्दोषों को दोषमुक्त करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अलावा एक मात्र विकल्प के रूप में फॉरेंसिक साइंस का महत्त्व अत्यधिक बढ़ जाता है | क्यों कि कानूनी प्रक्रिया में भौतिक साक्ष्य अत्यधिक महत्व के होते हैं  साक्षी की तुलना में भौतिक साक्ष्य में हेरफेर करना मुश्किल होता है तथा ये साक्ष्य अत्यधिक भरोसेमंद, प्रमाणिक तथा वैज्ञानिक समुदाय द्वारा स्वीकृति प्राप्त होते है |
न्याय और मानव अधिकार संरक्षण के लिए किसी आपराधिक घटना या दुर्घटना के तथ्यों के सम्बन्ध में सटीकता, पारदर्शिता और निष्पक्षतापूर्ण जानकारी का होना आवश्यक है और यह जानकारी एकत्रित होती है फोरेंसिक साइंस में उपलब्ध उन्नत तकनीकी और वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग से, जो किसी भी न्यायालय में किसी प्रकरण में निर्णय और आदेश देने के लिए आवश्यक है |  

फोरेंसिक साइंस का भारतीय परिदृश्य 

वर्तमान समय में न्याय प्रणाली में आये दिन अनेक आमूलचूक परिवर्तन हो रहे हैं | जिसके कारण भारत में अपराधों की जांच प्रक्रिया के दौरान साक्ष्य संकलन में फॉरेंसिक साइंस की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी है | फॉरेंसिक साइंस को हिंदी भाषा में न्यायिक या न्यायालयिक विज्ञान भी कहा जाता है | यह विज्ञानं किसी आपराधिक घटना की तह तक जाने का अवसर प्रदान करती है | 
भारतीय न्याय व्यवस्था में फोरेंसिक विज्ञान का उपयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872  के लागू होने के साथ ही  शुरू हो गया था। इस अधिनियम ने भारतीय न्यायालयों में वैज्ञानिक साक्ष्य की ग्राहीयता को मान्यता प्रदान की। आपराधिक जांचपड़ताल में वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग के बढ़ने के साथ ही भारत में फोरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या में इजाफा हुया है लेकिन न्यायालयों में लंबित मुकदद्मों की तुलना में अभी भी फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और  फॉरेंसिक विज्ञान में में कुशल मानव संसाधन की अत्यधिक कमी है | 
इस बात की तस्दीक होती है फॉरेंसिक साइंस पर नयी दिल्ली में आयोजित एक वेबिनार से | अगस्त, २०२० में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,इंडिया द्वारा भारत में फॉरेंसिक साइंस  की स्थापना और सम्बंधित मुद्दों पर आयोजित वेबिनार की समाप्ति इस निष्कर्ष के साथ हुई कि भारत में फॉरेंसिक लैब्स और उनके सञ्चालन के लिए पर्याप्त संख्या में मानव संसाधन की कमी है | 
केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने, वर्ष २०२३ में गुजरात के गाँधीनगर में राष्ट्रीय फॉरेंसिक विज्ञानं विश्वविद्यालय (NFSU) के ५ वे अंतर्राष्ट्रीय अपराध विज्ञान सम्मलेन को सम्बोधित करते हुए कहा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसी व्यवस्था की गयी है कि ५ वर्षों के बाद देश को हर वर्ष ९ हजार से अधिक वैज्ञानिक अधिकारी और फॉरेंसिक विज्ञान विशेषज्ञ मिलेंगे |  
लेखक उक्त वेबिनार में आये सुझावों में से एक महत्वपूर्ण सुझाव को पाठकों के साथ साझा कर रहा है और यह सुझाव था एकीकृत बीएससी (फॉरेंसिक) एलएलबी में एक अलग पाठ्यक्रम के रूप में फॉरेंसिक क़ानून की पढ़ाई शरू करना | इस सुझाव पर अमल करते हुए उत्तर प्रदेश स्टेट इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉरेंसिक साइंस (UPSIFS) के संस्थापक निदेशक डॉ जी के गोस्वामी, (IPS) ने इंस्टिट्यूट में एकीकृत बीएससी (फॉरेंसिक) एलएलबी (ऑनर्स) का पाठ्यक्रम भारत में संभवतः सर्वप्रथम प्रारम्भ कराकर न्याय और मानव अधिकार संरक्षरण की दिशा में मानव अधिकार आयोग की अनुसंसा का अनुसरण किया है |
फॉरेंसिक विज्ञान में डीएनए फिंगरप्रिंट के महत्त्व को समझते हुए एनडीए सरकार द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग और अनुप्रयोग)विनियम विधेयक,२०१९ को लाया गया लेकिन बाद में इसे वापस ले लिया गया है |  
कानून के क्षेत्र में आपराधिक न्याय प्रणाली की वर्तमानआवश्यकताओं को देकते हुए भारत में मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता, १८६० ,दंड प्रक्रिया संहिता ,१९७३ ,और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,१८७२ को समाप्त कर दिया है | इनके स्थान पर नए सिरे से क्रमशः तीन नए कानूनों भारतीय न्याय संहिता,२०२३,भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ,२०२३ तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम,२०२३ को भारतीय संसद द्वारा पास करा कर १ जुलाई, २०२४ से लागू कर दिया गया है | 
कहना न होगा कि आपराधिक न्याय व्यवस्था की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रकते हुए उसको अधिक गतिशील ,सुदृढ़ और पारदर्शी बनाने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ में आमूलचूक परिवर्तन किया गया है |इस परिवर्तन के तहत अधिनियम की धारा १७६(३) के तहत एक नया प्रावधान लाया गया है|  यह प्रावधान स्पष्ट करता है कि,
            "किसी ऐसे अपराध के जो सात वर्ष या अधिक के लिए दंडनीय बनाया गया है ,के होने से सम्बंधित पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी को कोई सूचना प्राप्त होती है तो अपराध में कारणों का पता लगाने के लिए न्याय सम्बन्धी दल को न्याय सम्बन्धी साक्ष्य संग्रह करने के लिए अपराध स्थल पर भेज सकेगा और कार्यवाही की वीडियो भी किसी इलेक्ट्रॉनिक साधन से बनाएगा जिसमे मोबाइल फोन भी शामिल है | " 
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ के उक्त प्रावधान के अवलोकन से प्रतीत होता है  कि सरकार द्वारा न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए उपचार के रूप में फॉरेंसिक विज्ञान पर बहुत बल दिया जा रहा  है | 
यद्धपि वर्तमान में फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं में पहले से ही अनेक मामले जांच की राह टोह रहे हैं | इन प्रयोगशालाओं में जांच के लिए भेजे गए नमूनों की समय से जांच न होने तथा उसके न्यायालय के समक्ष उपलब्ध न होने के कारण अनेक आपराधिक मुकदद्मे के निस्तारण में अत्यधिक विलम्ब होता है | जिसके कारण न्यायालयों पर भी अत्यधिक बोझ बढ़ता है | 

फॉरेंसिक साइंस पर न्यायिक दृष्टिकोण 

भारत में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने फॉरेंसिक साइंस के अलग -अलग विषयों पर न्यायिक दृष्टिकोण के रूप में अनेक विधि व्यवस्थाएँ दी है | जिनमे से कुछ महत्वपूर्ण विधि व्यवस्थायों का इस लेख में वर्णन किया जा रहा है | 
सर्वोच्च न्यालय की विधि व्यवस्था उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम सुनील और अन्य ,एआईआर २०१७ एस सी २१५० में स्थापित किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को साक्ष्य के समर्थन के लिए फुटप्रिंट देने के लिए आदेशित किया जा सकता है किन्तु ये भारतीय संविधान के अनुछेद २०(३) के अधीन संरक्षण की गारंटी का उलंघन नहीं माना जाएगा |  
सर्वोच्च न्यायालय के केस लॉ एच पी एडमिनिस्ट्रेशन बनाम ओम प्रकाश, एआईआर १९७२ एस सी ९७५ में माननीय न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया है कि "फिंगरप्रिंट विज्ञान एकदम सही विज्ञान है |"  
सर्वोच्च न्यालय  द्वारा दिए गए एक निर्णय जसपाल सिंह बनाम राज्य ,एआईआर १९७९  एस सी १७०८  में माननीय न्यायालय द्वारा स्थापित किया गया है कि "फिंगरप्रिंग पहचान का विज्ञान किसी गलती एवम संदेह को नहीं स्वीकार करता है |" 
विधि व्यवस्था रामा सुब्रमण्यम बनाम केरला राज्य ,एआईआर २००६ एससी ६३९ में मृतक के बैडरूम में रखी अलमारी पर अभियुक्त की उँगलियों के चिन्ह पाए गए तथा उसके बाल मृतका की साड़ी और कच्छी पर पाए गए | इस प्रकरण में न्यायालय ने अभियुक्त को ह्त्या का दोषी पाया | 
सर्वोच्च न्यालय द्वारा निर्मित विधि फूल कुमार बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन, (१९७५ )१ एससीसी ७९७ में एक डकैती के दौरान छुए गए कैशबुक के कुंडे पर अभियक्त के अंगूठे के निशान पाए गए जिन्हे विशेषज्ञ की सहायता से न्यायालय में सिद्ध किया गया | इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वाराअभियुक्त की सजा को बरकरार रखा गया | इस विधि व्यवस्था से फॉरेंसिक साइंस के सम्बन्ध में अवर न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का न्यायिक दृष्टिकोण स्पष्ट होता है | 
आसाम राज्य बनाम यू एन रालखोवा ,१९७५ सी आर एल जे ३५४ के प्रकरण में अभियुक्त द्वारा अपनी पत्नी और तीन पुत्रियों की ह्त्या कर दी थी और उनके शवों को १० फरवरी १९७० रात्रि में जला दिया गया | अगले दिन पुलिस द्वारा उनके शवों को कब्जे में ले लिया गया | अभुक्त के विरुद्ध ह्त्या करने का आरोप लगा | अवशेषों के कंकाल का परीक्षण किया गया | जिमे उनकी खोपड़ी और फोटो का मिलान किया गया | जिसमे पाया गया कि ४ कंकाल उसकी पत्नी और पुत्रियों के थे| उक्त आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया गया | 
मुकेश एवम अन्य बनाम स्टेट एनसीटी ऑफ़ दिल्ली अवं अन्य ,ए आई आर २०१७ एस सी २१६१ , जिसे निर्भया केस के नाम से भी जाना जाता है | भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बलात्कार की घटना घटित हुई | पीड़िता के शरीर पर आए दाँतों से काटने के निशानों ने अपराधी को पहचानने के लिए महत्वपूर्ण सुराग दिए | इन सुरागों के तहत पीड़िता को दाँतों से आई चोटों के फोटो लिए गए साथ ही पांच अभियुक्तों के दाँतों के पैटर्न लिए गए |
उक्त दोनों के मिलान के विश्लेषण से आये परिणामो से स्पष्ट हुया कि पांच अभियुक्तों में से पीड़िता को दाँत से काटकर चोट पहुंचाने वाला अभियुक्त राम सिंह था | इस प्रकरण में भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,१९७२ की धरा ४५ के अधीन विशेषज्ञ की राय माननीय न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी | 
विश्वभर में फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों के उपयोग से संकलित किये गए सबूतों के आधार पर न्यायालयों द्वारा अनगिनत आपराधिक प्रकरणों में निर्णय दिए गए हैं | जनके आधार पर न सिर्फ पीड़ितों को न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण हुया है बल्कि अनेक  अभियुक्तों को झूठे प्रकरणों में दोषमुक्त घोषित किये जाने से उनको न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण संभव हो सका है |  

निष्कर्ष 

फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं। फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों का मेल एकीकृत और समग्र आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए आवश्यक है | फॉरेंसिक साइंस  का सही और सटीक तरीके से उपयोग किया जाए तो यह विधा परिस्थिति अनुसार अपराध के पीड़ितों और अभियुक्तों दोनों को न्याय दिलने और मानव अधिकारों की रक्षा में सहायता करती है। जब आपराधिक न्याय व्यवस्था फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों का पालन करते हुए संकलित किये गए सही सबूतों के आधार पर निर्णय लेती है, तो यह न्याय और मानव अधिकारों की सुरक्षा में अत्यधिक सहायक होती है।
फॉरेंसिक साइंस और मानव अधिकारों के एकीकृत आंदोलनों और मिशनों ने  विश्व के अनेक देशों में फॉरेंसिक साइंस के सिद्धांतों का उपयोग करके मानव अधिकार उलंघन से पीड़ित असंख्य  लोगों  के आँसू  पौछे है तथा उन्हें न्याय और उनके मानव अधिकारों का संरक्षण  कराया है  
फॉरेंसिक विज्ञान के माध्यम से संकलित सबूतों का साक्ष्य के रूप में सही समय तथा सही उपयोग करके न्यायालय की प्रक्रिया में तेजी लाकर समय से मुकदद्मों का निपटारा किया जा सकता है | जिससे न्याय जल्दी सुलभ हो सकता है  | क्योंकि न्याय में देरी न्याय से इंकार के सामान होता है | 
फॉरेंसिक साइंस का बिना किसी दुराग्रह के सही और निष्पक्ष उपयोग मानव अधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। इसलिए, एक स्वस्थ्य और मजबूत लोकतंत्र बनाये रखने के लिए आपराधिक न्याय व्यवस्था में मानव अधिकार पहुंच के सिद्धांत के तहत फॉरेंसिक साइंस का उपयोग करते समय मानव अधिकारों का सम्मान,संरक्षण और पूर्ति किया जाना आवश्यक और प्रथम शर्त है | 
विशेष रूप से भारतीय सन्दर्भ में उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,२०२३ की धारा १७६(३) के तहत फॉरेंसिक साइंस के लिए पर्याप्त मूलभूत ढांचा, जिसमे उसके उपयोग हेतु कुशल मानव संसाधन का निर्माण और पूर्ति शामिल है, की जल्द से जल्द पुख्ता व्यवस्था को कागजो से उतार कर अभ्यासिक रूप प्रदान किया जाएगा |  








 
 



शनिवार, 14 सितंबर 2024

गूगल की मानवाधिकार निति :एक डिजिटल दिग्गज की सामाजिक जिम्मेदारी- Google's Human Rights Policy: Social Responsibility of a Digital Giant(In Hindi)

क्या गूगल भी करता है मानव अधिकारों का सम्मान ?








गूगल डिजिटल तकनीकी क्षेत्र में विश्व का एक दिग्गज माना जाता है | Ahrefs blog  के अनुसार  जुलाई २०२४ में विश्व में गूगल पर सर्वाधिक खोजे जाने वाली चीजों में यूट्यूब, एमाज़ॉन, फेसबुक, वोर्डले, जीमेल, के बाद गूगल का स्थान रहा है | यूट्यूब भी गूगल की ही एक उपकंपनी है |

कार्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी एक व्यवसायिक मॉडल है जिसके तहत कम्पनियां अपने व्यवसाय के दौरान सामजिक चिंताओं का ध्यान रखतीं है जिसके तहत अपनी आय का कुछ हिस्सा अपने हितधारकों और सामाजिक दायित्वों पर खर्च करती है | इस सामाजिक जिम्मेदरी के तहत गूगल भी दायित्वाधीन है | शायद इसी के तहत गूगल ने अपने कार्यक्रमों में मानव अधिकार नीतियों को समाहित किया है |

विश्वभर में गूगल डिजिटल रूप में ज्ञान और सूचनाओं  को उपलब्ध कराने वाला एक अत्यधिक व्यापक प्लेटफॉर्म  है | ज्ञान और सूचनाओं का सीधा सम्बन्ध मानवाधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के अलावा उनके उल्लंघन से भी है | सही और पुष्ट सूचनाएं व्यक्तियों,समूहों और समाज के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण में अत्यधिक सहायक होती हैं जबकि असत्य और अपुष्ट सूचनाएं मानवाधिकारों के उल्लंघन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं |

ऐसी स्थति में  विश्वभर में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण की दिशा में सर्वश्रेष्ट्र रणनीति पर काम  करने की आवश्यका को गूगल के संचालकों ने महसूस किया, जिसके परिणामस्वरुप विश्वभर में व्यक्तियों के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के लिए के लिए एक मानव अधिकार निति का निर्माण किया गया| 

गूगल की मानव अधिकार निति के कारण आज अनेकों लोगों के मानवाधिकारों का ससंरक्षण हो पा रहा है यद्धपि ऐसा नहीं है कि डिजिटल तकनीकी के दिग्गज के  रूप में पहचान रखने वाले गूगल ने डिजिटल तकनीकी के उपयोग द्वारा हो रहीं सभी तरह के मानवाधिकार की घटनाओं को रोकने में सफल रहा हो | हाँ ,यह अवश्य है कि उसके लिए गूगल के प्रयासों की सराहना करनी होगी | 

डिजिटल तकनीकी के क्षेत्र में करीब-करीब सम्पूर्ण विश्व को अपने उत्पादों और सेवाओं से पोषित करने वाली दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनी को कौन नहीं जानता है ? भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो इसे गूगल बाबा के नाम से जाना जाता है | ग्रामीणों के समक्ष जानकारी सम्बन्धी किसी समस्या के सामने आने पर तपाक से वे कहते है कि मोबाइल पर "गूगल बाबा" को खोलो अभी सब पता लग जाएगा | 

कम्पनी की स्थापना के समय से ही कंपनी का एक पवित्र एवम मौलिक विचार रहा है कि आधुनिक तकनीकी का सदुपयोग करते हुए ऐसी सेवाएं और उत्पाद विकसित किये जाए जो मानव के जीवन को सरल, सुगम और आरामदायक बनाते हों | कंपनी का यही विचार आज तक उसके तथा उसके हितधारकों लिए मूलमंत्र बना हुया है | 

सयुक्त राष्ट्रसंघ की सामान्य सभा द्वारा वर्ष, १९४८ में मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को संस्वीकृत किया गया जिसके बाद सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न देशों की सरकारों के लिए मानव अधिकारों के रूप में कुछ मौलिक सिद्धांत तय किये गए | 

इन सिद्धांतों का उपयोग वहां की सरकारें अपने यहाँ नीति निर्धारण के लिए  स्वेच्छा से कर सकती थी | इन मानव अधिकार सिद्धांतों का किसी भी देश की सरकारों द्वारा अपने यहाँ नीति निर्धारण के लिए आवश्यक रूप से से पालन किये जाने की कोई बाध्यता नहीं थी | लेकिन ये सिद्धांत लोगों की गरिमा और उनके चहुमुखी विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण थे | 

१९४८ के बाद मानव अधिकारों के विकास के अनुक्रम में सयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानव अधिकार प्रसंविदायों /संधियों को संस्वीकृति प्रदान की गई | जिसके तहत मानव अधिकार सिद्धांतों को एक प्रकार से कानूनी मान्यता प्रदान की गयी तथा सदस्य देशों के लिए प्रसंविदायों में वर्णित सिद्धांतों को अपने अपने देश की नीतियों में शामिल कर उनका क्रियान्वयन कुछ आवश्यक आरक्षण के साथ आवश्यक बना दिया गया | 

मानव अधिकारों के विकास के इस अनुक्रम में मानव अधिकारों का सम्मान ,संरक्षण और पूर्ती के दायित्व के अधीन न सिर्फ सरकार के अभिन्न अंग के रूप में कार्य करने वाली संस्थाए आयी बल्कि प्राइवेट कंपनियों को भी इसमें शामिल होना पड़ा | सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा अलग -अलग मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के लिए अलग -अलग मानव अधिकार घोषणाओं ,प्रसंविदायों को समय -समय पर आवश्यकतानुसार संस्वीकृत प्रदान की गयी | 

इसी अनुक्रम में अनेक बहु राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा आये दिन किये जाने वाले मानव अधिकारों के उल्लंघन को दृष्टिगत रकते हुए  कुछ विशेष सिद्धांतों का संकलन किया गया जिससे कंपनियों द्वारा किये जाने वाले मानव अधिकारों को रोका  जा सके |

इस समस्या के समाधान के लिए व्यापार और मानव अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र मार्गदर्शक सिद्धांतों (यूएनजीपी) को वैश्विक स्वीकृति सयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा प्रदान की गयी | 

गूगल की स्थापना के समय संस्थापकों के विचारों ने गूगल के निदेशको को मानव अधिकार निति निर्माण के लिए प्रेरित किया | यदि गूगल की मानव अधिकार निति पर नजर डाली जाय तो स्पष्ट होता है कि जब वह अपनी निति के तहत नया उत्पाद  या सेवायें लाती है या वैश्विक स्तर पर अपनी व्यवसायिक गतिविधियों और कार्यक्रमों का विस्तार करती है तो कंपनी की व्यवसायिक गतिविधियां और कार्यक्रम अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानव अधिकार सिद्धांत और मानदंडों द्वारा दिशा-निर्देश प्राप्त करते है अर्थात कंपनी व्यवसाय में मानव अधिकारों का अनुसरण करती है | 

गूगल कंपनी अपनी नीतियों में मानव अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा तथा अन्य मानव अधिकार प्रसंविदायों में निहित मानव अधिकार के मानदंडों का सम्मान करने के प्रति प्रतिबद्ध रहती है | इसके अतिरिक्त विशेष तौर पर गूगल कंपनी अपनी नीतियों में व्यापार और मानव अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र मार्गदर्शक सिद्धांतों (यूएनजीपी) और वैश्विक नेटवर्क पहल सिद्धांत (जीएनआई सिद्धांतों) का अनुसरण और अनुपालन करने के प्रति भी प्रतिबद्ध रहती  है | 

गूगल कंपनी का प्रबन्ध तंत्र आधुनिक तकनीकी का मानवीय कल्याण में सकारात्मक उपयोग और उसकी क्षमताओं  को भलीभांति पहचानता है तथा यह भी भलीभांति जानता है कि मानव अधिकारों का उल्लंघन किये बिना भी व्यवसायिक  कार्यक्रमों ,गतिविधियों और नए उत्त्पादों की श्रंखला को कैसे जारी रखा जा सकता है ? 

कंपनी मानव अधिकारों का सम्मान, संरक्षण और पूर्ति का पालन करते हुए विश्व भर के लोगों के लिए असंख्य नए अवसर उत्पन्न कर मानवता को नया आयाम प्रदान कर रही है | यद्यपि ऐसा नहीं है कि आधुनिक उन्नत तकनीकी मानव अधिकारों के उल्लंघन में सहायक नहीं है |

विशेष रूप से डिजिटल तकनीकी की उन्नति ने अपराधियों के लिये भी अपराध के लिए नए नए  प्लेटफॉर्म उपलब्ध करा दिए हैं | इसलिए आजकल  बहुत तेजी के साथ समाज में साइबर अपराधों की बाढ़ आ गयी है | आज अपराधी हर प्रकार के अपराथ में डिजिटल तकनीकी का सहारा ले रहा है | 

लेकिन तकनीकी के विकसित संस्करण के कारण वह पकड़ में भी आ रहा है| लेकिन प्रश्न यह महत्वपूर्ण  नहीं है कि अपराधी भी उसी तकनीकी के कारण पकड़ में आ रहा है बल्कि महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि डिजिटिल तकनीकी प्लेटफॉर्म के माध्यम से होने वाले अपराधों को रोका कैसे जाय ? कंपनी के हितधारकों,उत्पादों और सेवा प्राप्त करने वालों,  के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण को बल कैसे प्रदान किया जाए ?

गूगल कंपनी ने अपनी मानव अधिकार निति के तहत दरअसल उक्त समस्या का समाधान किया है जिसके तहत कंपनी के हितधारकों, उत्पादों और सेवा प्राप्त करने वालों,के मानव अधिकारों का हनन होने से पहले ही रोक दिया जाए | जिसके लिए कंपनी ने अनेक प्रयास किये है और अनवरत नित नए नीतिगत नवोन्वेषण प्रयोग जारी  है | 

मानव अधिकारों को सम्मान और संररक्षण की दिशा में गूगल बहुत गंभीर प्रतीत होता है | अपनी नीतियों के अधीन गूगल अपने यहां मानव अधिकारों पर कार्यक्रम आयोजित और संचालित  करता रहता है | यह कार्यक्रम उसकी उसकी केंद्रीय गतिविधि के रूप में मान्यता प्राप्त है | 

ये कार्यक्रम गूगल के सभी उत्पादों और सेवाओं में मानव अधिकारों के सम्मान के प्रति कठोर प्रतिबद्ध्ता प्रस्तुत करते है | गूगल इसके अतिरिक्त उक्त कर्यक्रमों और गतिविधियों के जरिये  व्यापार और मानव अधिकारों पर सयुक्त राष्ट्र मार्गदर्शक सिद्धांतों (यूएनजीपी) और वैश्विक नेटवर्क पहल सिद्धांतों को (जीएनआई सिद्धांतों) के प्रति भी सम्मान भाव जागृत करता है | 

यही नहीं मानव अधिकारों के प्रति गूगल की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि गूगल के उत्पादों और कार्यक्रमों में मानव अधिकार कार्य सम्बन्धी क्रियाकलापों की देख रेख हेतु वरिष्ठ प्रबंधन को लगाया गया है | जो गूगल के अल्फाबेट के निदेशक मंडल की लेखा परिक्षा और अनुपालन समिति को नियमित रूप से मानव अधिकार सम्बन्धी नई रिपोर्ट से अवगत कराते रहते हैं | 

उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि गूगल अपनी मानव अधिकार नीति के तहत वैश्विक मानव अधिकारों का सम्मान करता है तथा उसके उलंघन को रोकने के लिए अनवरत प्रयास एवम नवोन्वेषण करता रहता है | 

यही नहीं,वर्ष २०२० में गूगल कंपनी के बोर्ड ने मानव अधिकार सम्बंधित मुद्दों की निगरानी के लिए कंपनी के महत्वपूर्ण कार्यों के रूप में शामिल करने के लिए लेखा परीक्षा और अनुपालन समिति के चार्टर में संसोधन कराया | कंपनी का यह कार्य मानव अधिकारों को सिद्धांतों से निकालकर व्यवहारिक अमलीजामा पहनाने के समान है जो कि मानव अधिकारों के प्रति सम्मान के लिए कंपनी की साफसुथरी नीयत का खुलासा करता है | 

 कंपनी की नीतियों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि वह मानवाधिकार प्रतिबद्धताओं के कार्यान्वयन को समय के साथ -साथ आगे बढ़ाते रहते है और अनवरत उनका विकास करते रहते हैं | जैसे कि गूगल ने मानव अधिकार कार्यक्रम की निगरानी और मार्गदर्शन करने के लिए एक मानव अधिकार कार्यकारी परिषद् की स्थापना की | गूगल का वरिष्ठ प्रबंधन अपनी दीर्घकालीन रणनीतियों और दिन-प्रतिदिन के निर्णय लेने में मानव अधिकार सिद्धांतों और मानदंडों द्वारा अनुसरित होते हैं | 

विश्व में किसी भी व्यवस्था के सुचारू सञ्चालन के लिए पारस्परिक सहयोग या सहभागिता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है | गूगल भी अपनी कंपनी की निति निर्माण में सहभागिता पर अत्यधिक जोर देता है | जिसके तहत वह मानव अधिकारों के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए लिए बाहरी विशेषज्ञों,नागरिक समाज और हितधारकों के साथ मिलकर कार्य करता है| जिससे गूगल के नए उत्पादों,सेवाओं और नीतियों को नयी दिशा मिलती है | 

यह पारस्परिक सहयोग और सहभागिता कंपनी को मानव अधिकार सम्बन्धी बर्तमान तथा भविष्य के प्रभावों  तथा संभावित खतरों की पहचान कराने में मदद करती है, परिणामस्वरूप, समय रहते मुद्दों को प्राथमिकता देने और उनका समुचित समाधान निकालने की प्रक्रिया आसान हो जाती है | सहभागिता रुपी यह मूलमंत्र गूगल को अपने कार्यक्रम,नीतियों ,प्रथाओं और सेवाओं में अनवरत सुधार लाने का सुअवसर भी प्रदान करती है | 

गूगल की मानव अधिकार निति के अवलोकन से स्पष्ट मत बनता है कि गूगल कंपनी कुछ भी करती है, जिसमे नए उत्पादों के उदघाटन से लेकर दुनिया भर में अपने कार्यक्रमों और गतिविधयों के संचालन का विस्तार करना शामिल है, उन सभी में वह अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानवाधिकार मानदंड के दायत्वाधीन होती है अर्थात निष्कर्ष के रूप में कहा जाय तो गूगल भी मानव अधिकारों का सम्मान करता है | 

आज यह लेख मेरे जीवन संघर्ष में सदैव कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले साथी के नाम समर्पित है | आप सभी से आशा है कि लेख आपको पसंद आया होगा तथा टिपणी और मुख्य पृष्ठ पर फॉलोवर का बटन दबा कर समर्थन करना न भूलें  जिससे भविष्य में आपको आपकी पसंद के लेख समय पर मिलते रहें | 

FAQ;-

प्रश्न :क्या कंपनियों के लिए सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन आवश्यक है ? 

उत्तर :कंपनियों के लिए सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन अनिवार्य नहीं किया गया है यह पूर्ण रूप से स्वेछिक है | 

प्रश्न :मानव अधिकारों के प्रति गूगल का दायित्व क्या है ?

उत्तर :गूगल की नीतियों और अभ्यासों में अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सम्बन्धी प्रतिबद्धताओं को समाहित किया गया है | कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी(सीएसआर) के तहत भी गूगल मानव अधिकारों के प्रति दायित्वाधीन है |

प्रश्न : मानव अधिकारों के प्रति गूगल के दायित्व किस प्रकार सिद्धांतों से व्यवहार  में बदलते हैं ? 

उत्तर :गूगल ने अपने उत्पादों और सेवाओं को मानव अधिकार सिद्धांतों के अनुकूल बनाये रखने के लिए हाउ सर्च वर्क्स, हाउ प्ले वर्क्स और हाउ यूट्यूब वर्क्स  आदि जैसे उपकरणों का उद्द्घाटन किया है | गूगल द्वारा वर्ष २०१८ में आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के  सिद्धांत का भी उदघाटन किया जिसके तहत वे किसी ऐसे आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस उपकरण को डिज़ायन या उपयोग में नहीं लाएंगे जिससे किसी के मानव अधिकारों का उलंघन होता हो | 

 




 









सोमवार, 2 सितंबर 2024

FIFA, Football & Human Rights(In Hindi)-फीफा, फुटबाल और मानवअधिकार

फीफा से संबंधित एक छवि जिसमें अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी मैदान पर खेलते हुए दिख रहे हैं|
Source : Pixabay

परिचय :  फीफा, फ़ुटबाल की चमक और क्रिस्टियानो रोनाल्डो

फ़ुटबाल केवल एक खेल नहीं बल्कि यह खेल प्रेमियों के लिए एक जूनून है जोकि दुनिया के सबसे प्रभावशाली खेलों में से एक है | इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि फ़ुटबाल खेल से ताल्लुक रखने वाले पुर्तगाली फुटबॉलर, क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने 'UR Cristiano' नामक अपने यू ट्यूब चैनल का 21 अगस्त, 2024  को उदघाटन किया| 

जिसकी घोषणा के कुछ समय बाद ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर 50 मिलियन का आंकड़ा छूने के साथ ही कई रिकॉर्ड तोड़ दिए तथा अभी और रिकार्ड टूटने की उम्मीद बरक़रार है |

फ़ुटबाल का खेल ताकत, उपयुक्तता, ध्यान और चतुराई का खेल है | इस खेल में 7 से 11 खिलाड़ी हो सकते हैं |यह 90 मिनट का खेल होता है| 

इसमें जैसे जैसे समय बढ़ता जाता है वैसे वैसे ,रोष और रोमांच बढ़ता जाता है यहाँ तक कि खेल का अंतिम क्षण भी उत्साह और रोमांच से लबालवऔर सराबोर होता है | 

इस खेल में बॉल को विपक्षियों से बचाते हुए गोल मरने की खुशी और रोमांच न सिर्फ खिलाड़ियों के लिए अद्भुत और अभूतपूर्व होता है बल्कि दर्शकों के लिए भी यह किसी रोमांच से कम नहीं होता है| 

विश्वकप के लिए पहली मर्तबा प्रतियोगिताओं का आयोजन वर्ष 1930 में किया गया था | फुटबॉल का विश्वकप हर 4 वर्ष बाद आयोजित किया जाता है | भारत में फूटबाल के मुकाबले क्रिकेट(Cricket) को अधिक तबज्जो दी जाती है | 

अखिल भारतीय महासंघ भारत में फ़ुटबाल  के खेल को नियंत्रित करता करता है | 

पुरुषों की राष्ट्रीय टीमों का टूर्नामेंट फ़ुटबाल का विश्वकप कहलाता है | इस विश्वकप द्वारा फ़ुटबाल खेल के विश्व चैंम्पियन का निर्धारण किया जाता है | 

अनुमान है कि यह विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय आयोजन होता है जिसे विश्व भर में अरबों लोग मोबाइल फ़ोन या  टेलीविज़न के माध्यम से देकते है | 

FIFA Word Cup में मजदूरों के मानव अधिकारों की स्थति 

दुनियाभर में कई देश फ़ुटबाल के विश्वकप की मेजबानी के लिये दशकों पहले से ही तैयारी करना प्रारम्भ करने लगते हैं क्यों कि इसके आयोजन के लिए विशालकाय मूलभूत ढांचे का निर्माण करना पड़ता है जिसमे लाखों मजदूरों का श्रम लगता है | 

FIFA Word Cup और मानव अधिकार  

अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणाएं सयुंक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों के लिए अपने यहां नीति निर्धारण में सिद्धांतों के रूप में उपयोग करने के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं | इनका पालन करना सदस्य देशों के लिए आवश्यक नहीं है | 

लेकिन अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रसंविदाए या संधियाँ क़ानून का रूप लिए होती है इसलिए उनका पालन करना सदस्य देशों के लिए प्रतिबद्धता के रूप में होता है | 

इसी प्रकार विभिन्न सदस्य देशों के अधीन कार्य करने वाली सरकारी संस्थाओं और पंजीकृत संस्थाओं के लिए भी मानव अधिकारों का सम्मान करना अंतराष्ट्रीय समुदाय के प्रति एक जिम्मेदारी होती है | 

वर्तमान में गरिमा मानवीय जीवन में अत्यधिक उच्च स्थान रखती है | एक व्यक्ति की गरिमा बनाये रखने के लिए दूसरे व्यक्ति या समूह या समाज को उसके मानव अधिकारों का सम्मान करना उसका कर्तव्य है | 

मानव अधिकारों के उल्लंघन की स्थति में उनका सम्मान, संरक्षण और उनकी पूर्ति राज्य के उत्तरदायित्वों के अधीन आता है | 

मानव अधिकार प्रकृति में सार्वभौमिक है अर्थात ये विश्व भर के सभी प्राणी मात्र पर लागू होते है, चाहे वे किसी धर्म, जाति, नस्ल, वंश, मूल, भाषा, क्षेत्र, लिंग या लैंगिक झुकाव से ताल्लुक रखते हों |  

FIFA और  उसकी मानव अधिकार सम्बन्धी नीति   

फीफा, अंतर्राष्ट्रीय फ़ुटबाल की सर्वोच्च संघ है | फीफा अंतराष्ट्रीय स्तर पर फ़ुटबाल  के  संगठन और सञ्चालन का कार्य देकने वाले निकाय के रूप में जिम्मेदारी उठाता है | 

लेकिन क्या फीफा की जिम्मेदारी केवल खेल के मैदान तक सीमित हैं, या यह निकाय इससे परे जाकर सामाजिक और मानवाधिकार सम्बन्धी जिम्मेदारियों का भी निर्वहन करता है ? 

हां ,इसी सन्दर्भ में फीफा की मानव अधिकार समन्धित नीति महत्वपूर्ण  हो जाती है | फीफा की मानव अधिकार सम्बंधित नीति का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि फ़ुटबाल के आयोजन के दौरान कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के मानवअधिकारों का उल्लंघन झेलने की स्थति में न आये तथा सभी के मानव अधिकारों का सम्मान हो |

फीफा द्वारा मानव अधिकार संरक्षण और संवर्धन के लिए अपने संविधान में  मानव अधिकारों  का सम्मान करते हुए स्थान दिया गया है | 

जिसके परिणाम स्वरुप फीफा द्वारा मानव अधिकार नीति का निर्माण किया गया जिसका उद्देश्य उसके आयोजनों में मानवाधिकारों के सम्मान, संरक्षण, और प्रतिपूर्ती को सुनिचित करना है | 

वर्ष 2016 से फीफा ने अपने सभी संचालनों और संबंधों में मानव अधिकारों के प्रति सम्मान स्थापित करने के लिए रणनीतिक कार्यक्रम बनाये | फीफा अधिनियम के अनुछेद ३ में उक्त जिम्मेदारियों को समाहित किया गया है |

फीफा प्रतिस्पर्धायें और उसकी मानवाधिकार नीति

फीफा प्रतिस्पर्धाओं के सम्बन्ध में फीफा की मानवाधिकार नीति में निम्न लिखित उपाय शामिल हैं :-

प्रतिस्पर्धाओं  के लिए लगाईं जाने वाली बोली प्रक्रियाओं में मानव अधिकार आवश्यकताओं को समाहित करना | मेजबानी के बाद श्रमअधिकार ,भेदभाव विरोध ,प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वंत्रता जैसे विषयों को समाहित करते हुए  घटना विशिष्ट से सम्बंधित मानव अधिकार सम्बन्धी जोखिम का आँकलन और जोखिम शमन के लिए प्रभावी रणनीति का निर्माण करना | 

शिकायत तंत्र की स्थापना और उसका क्रियान्वयन करना और जहाँ नियमानुसार कार्य न हुया हो वहां सुधार सुनिश्चित करने के लिए कार्य करना | उचित सावधानी से उठाये गए कदमो की रिपोर्टिंग करना | 

FIFA  वर्ल्डकप और भेदभाव विरोधी कार्य योजना 

फीफा द्वारा फ़ुटबाल के संचालन और विकास में उसकी भूमिका के रूप में कुछ प्रयास किये गए जो निम्नवत है :- भेदभाव विरोधी कार्य योजनाओं के निर्माण और उसके क्रियान्वयन पर कार्य करना | दिव्यांग फूटबाल के लिए अपने सदस्य संघों के साथ कार्य करना | अपने सदस्य संघों को विकास निधि के प्रावधान के लिए मानव अधिकार सम्बन्धी मानदंडों को एकीकृत करना |

खिलाड़ियों और खेल में शामिल अन्य लोगों के अधिकारों के प्रति सम्मान को प्रासंगिक विनियमों के तहत शामिल करना | इस क्षेत्र में कार्य करने के दौरान फीफा बाह्य मानव अधिकार हित धारकों के साथ निकटता से जुड़ता है और सहयोग करता है | 

फीफा की मानव अधिकार पहुँच स्पष्ट है कि वह अपने  क्रियाकलापों के सञ्चालन और संबंधों के दौरान मानव अधिकारों का सम्मान करने की जिम्बेदारियों का निर्वहन करता है | फीफा अपनी गतिविधियों से प्रभावित होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा और उसके मानव अधिकारों के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध है | 

फीफा किसी भी प्रकार के भेदभाव को अपनी मानवाधिकार निति के विरुद्ध मानता है | फीफा अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सभी मानव अधिकारों का सम्मान करने के लिए प्रतिबद्ध है तथा इन अधिकारों के संरक्षण के बढ़ावा देने के लिए  प्रयास करेगा | 

Global Footbaal Events और Migrant Worker's Rights- FIFA का Test   

यद्यपि एमनेस्टी इंटरनेशनल के आर्थिक और सामाजिक न्याय प्रमुख, स्टीव कॉकबर्न ने फीफा वर्ल्ड कप ,2022 (क़तर ) में  हुए श्रमिकों (Migrant Worker) के मानव अधिकारों के उल्लंघन के सम्बन्ध में कठोर आलोचना की और कहा कि ,"टूर्नामेंट समाप्त होने के कई महीने गुजरने के बाद भी फीफा और कतर की सरकार  द्वारा  दुर्व्यवहार के शिकार श्रमिकों के लिए न्याय और मुआवजा दिलाने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाये |"

भविष्य में FIFA के लिए यह Test चुनौती भरा होगा | जो वास्तव में शरणार्थी मजदूरों के मानवाधिकारों  के उलंघन की पुनराबृति को रोकेगा | 

FIFA,खिलाड़ी और भेदभाव पूर्ण व्यवहार (Discrimination)

फीफा की रिपोर्ट्स से खुलासा हुआ कि फ़ुटबाल से जुड़े हुए अनेक खिलाड़ियों को आनलाइन भेदभाव पूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है | जो कि खिलाड़ियों की  मानसिक सेहत और उनके  मानवाधिकारों के लिए गंभीर चुनौती है | 

फीफा विश्व फ़ुटबाल की नियामक संस्था ने वर्ष 2022 के विश्वकप के दौरान ऑनलाइन घृणास्पद भाषा और  भेदभाव पर रोक लगाने के लिए एक नई सोशल मीडिआ प्रोटेक्शन सेवा प्रारम्भ की | यह सेवा खिलाड़ियों के विरुद्ध की जा रही अभद्र भाषा की टिप्णियों और भेदभाव को उन तक पहुंचने में बाधा पैदा करने का कार्य करती थी | 

मैदान के बाहर की लड़ाई :Footbaal, FIFA  और Human Rights केंद्रित निगरानी प्रक्रिया 

इसमें प्रावधान किया गया कि फीफा, विश्व कप में खेलने वाले सभी खिलाड़ियों के सोशल मीडिया खातों की निगरानी करेगा, उनके साथ  होने वाले भेदभावपूर्ण और धमकी भरे टिप्पणियों और सार्वजनिक रूप से अपमानित करने वाले भाषण  की जांच करेगा, तथा फिर उन्हें सोशल नेटवर्क पर रिपोर्ट करेगा जिससे उन्हें समय से हटाया जा सके इसके अतिरिक्त क़ानून का भी सहारा लिए जाने का प्रावधान किया गया | 

फीफा फ़ुटबाल के जरिये अधिक समानता वाले समाज का निर्माण और संवर्धन के लिए पूर्व खिलाड़ियों और अंतरास्ट्रीय एवं राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों ,मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ,वैश्विक और क्षेत्रीय प्राधिकरणों तथा सरकार के साथ काम कर रहा है | फीफा लोगों के जीवन में सुधार के लिए विश्व भर में फीफा फाउंडेशन और सामाजिक दायित्व कार्यक्रमों के जरिये कार्य करता है | फीफा के ये सभी कार्य मानवाधिकारों से सरोकार रखते है | 

FIFA और लैंगिक भेदभाव(Gender Discrimination)की निगरानी

फीफा बिना किसी लैंगिक विभेद के महिला फ़ुटबाल खिलाड़ियों को भी विश्वस्तर पर खेलने के सामान अवसर प्रदान करता है | महिलाओं की राष्ट्रिय फ़ुटबाल टीमों के लिए पुरुषों के सामान टूर्नामेंट महिला विश्वकप माना जाता है | 

अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणाओं और प्रसंविदाओं में लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के विभेद को प्रतिषेधित किया गया है | 

फीफा महासचिव फातमा समौरा ने लैंगिक समानता पर चर्चा करने के लिए इक्वलाइज़: द स्टेट ऑफ़ प्ले इवेंट कार्यक्रम में हिस्सा लिया | 

यह कार्यक्रम प्रश्न उत्तर सत्र के रूप में था तथा फीफा महिला विश्व कप ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड 202३ टूर्नामेंट के दौरान एओटेरोआ न्यूजीलैंड में आयोजित किया गया था| यह वैश्विक स्तर पर खेल, व्यवसाय, संस्कृति और समाज में महिलाओं की भूमिका तथा लैंगिक समानता लाने में न्यूजीलैंड की भूमिका को प्रदर्शित करने के लिए किया गया था|

इस कार्यक्रम में समौरा ने 2023 टूर्नामेंट की सफलता को समावेशी और अप्रत्याशित बताया| महिला मानवाधिकार संवर्धन के लिये पुरुषों के साथ समानता के स्तर पर उन्हें वैश्विक टूर्नामेंट में हिस्सेदारी देना महत्वपूर्ण समावेशीकरन है| 

इससे स्पस्ट हो जाता है कि फीफा व्यवहारिक रूप में महिलाओं को भी उतनी ही तवज्जो देता है जितनी तव्वज्जो महिलाओं को अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों और विधि में प्रदान की गयी है | 

स्पोर्ट्स एंड राइट्स अलायन्स की निदेशक एंड्रिया फ्लोरेंस का भविष्य में कराये जाने वाले  फ़ुटबाल के विश्वकप की मानवाधिकार चिंताओं के सन्दर्भ में कहना है कि इससे पहले कि फीफा किसी टूर्नामेंट को पुरस्कृत करे, फीफा को  बाध्यकारी मानव अधिकार संधियों को सुनिश्चित करना चाहिए जो श्रमिकों ,स्थानीय निवासियों ,खिलाड़ियों और प्रशंसकों का संरक्षण करें | 

निष्कर्ष : खेल के नाम पर इन्साफ FIFA और Human Rights के लिए चुनौती

फीफा की एक महत्वपूर्ण पहल थी जिसमे मार्च 2017 में स्वतंत्र फीफा मानवाधिकार सलाहकार बोर्ड स्थापित किया गया जो शायद अब अस्तित्व में नहीं है | 

जबकि भविष्य में होने वाले फुटबाल के हर विश्वकप में श्रमिकों, खिलाड़ियों, स्थानीय निवासियों, प्रशंसकों के मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के लिए स्वतंत्र फीफा मानवाधिकार सलाहकार बोर्ड की अधिक आवश्यकता होगी |

फीफा द्वारा मानव अधिकार निति की घोषणा के बाबजूद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने फीफा के वर्ष 2030 और 2034 में होने वाले फ़ुटबाल विश्वकप में अनुमानित मानव अधिकार उल्लंघन पर चिंता जाहिर की है तथा उसे रोकने के उपाय सुनिश्चित करने का आह्यवान किया है | 

फीफा को कागजो पर अपनी मानवाधिकार नीति और उसके वास्तविक क्रियान्वयन के बीच के अंतर को समाप्त करना होगा तभी वास्तविक मायने में मानव अधिकार सिद्धांतों  और कानूनों का वास्तविक रूप में सम्मान हो सकेगा | 

खेल के नाम पर इन्साफ आवश्यक है | यह FIFA और मानव अधिकारों के लिए एक गंभीर चुनौती है देखना यह है कि FIFA  इन चुनौतियों से भविष्य में कैसे निपटने जा रहा है |


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ's):- 

प्रश्न :क्या फीफा की मानव अधिकारों से संबंधित कोई निति है ?

उत्तर :हां ,जिसमे वह मानवाधिकार सम्बंधित जोखिमों की पहचान करता है, उनका मूल्यांकन करता, उसके शमन  के लिए रणनीति बनाता हैतथा उस पर अमल व उसका क्रियान्वयन करता है | 

 प्रश्र : अब तक का सबसे महँगा फुटबाल विश्वकप  आयोजन कौन सा रहा है ?

उत्तर :कतर विश्व कप,2022 : अब तक का सबसे महंगा विश्व कप आयोजन रहा है | 

प्रश्न :क्या महिला फुटबाल विश्व कप  का भी आयोजन होता है ?

उत्तर :हाँ | 

प्रश्न :फीफा महिला विश्व कप ,२०२७ का मेजवान किस देश को चुना गया है? 

उत्तर : ब्राजील | 

प्रश्न :फीफा (FIFA) क्या है ?

उत्तर : फीफा(Fédération Internationale de Football Association फ्रेंच भाषा में अर्थात  "फुटबॉल की अंतरराष्ट्रीय महासंघ") एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है जो पूरी दुनिया में फुटबॉल मैचों और टूर्नामेंट्स को संचालित और आयोजित करती है। 

प्रश्न : फीफा वर्ल्ड कप कितने साल में एक बार होता है?

उत्तर : ओलम्पिक की तरह फीफा वर्ल्ड कप हर 4 साल में एक बार होता है। ये फुटबॉल का सबसे बड़ा उत्त्सव माना जाता है | 

प्रश्न : कौन-कौन सी टीमें फीफा वर्ल्ड कप खेलती हैं?

उत्तर : दुनिया भर की 48 राष्ट्रीय टीमें 2026 से वर्ल्ड कप में हिस्सा लेंगी। 

प्रश्न : अर्जेंटीना की फुटबॉल टीम मशहूर क्यों है?

उत्तर : डिएगो माराडोना और लियोनेल मेसी जैसे दिग्गज खिलाड़ियों के चलते अर्जेंटीना की टीम को फुटबॉल की दुनिया में खास जगह मिली  हुई है। इनकी खेलने की शैली और जुनून  की पूरी दुनिया दीवानी है |

प्रश्न : FIFA वर्ल्ड कप अर्जेंटीना ने कितनी बार जीता है?

उत्तर : अर्जेंटीना ने  वर्ष 1978 ,1986  तथा 2022 में अब तक 3 बार FIFA वर्ल्ड कप जीता है| 

प्रश्न : क्या अर्जेंटीना  आक्रामक फ़ुटबाल खेलती है ?

उत्तर : हाँ, अर्जेंटीना की टीम आमतौर पर आक्रामक फुटबॉल खेलती है। 

 #INDvsWI #FIFA #मानवाधिकार #फुटबॉल #HumanRights #SportsForChange # Word Cup 


गुरुवार, 15 अगस्त 2024

Right to Abortion in Human Rights Perspective -गर्भपात का अधिकार मानवाधिकार सन्दर्भ में

Right to Abortion in Human Rights Perspective








चित्र स्रोत :https://www.pexels.com/@lucasmendesph/  

गर्भपात समाज में सदैव से एक विवादास्पद विषय रहा है |यह विषय विश्व की करीब आधीआबादी के मानवाधिकारों से सरोकार रखता है | विश्व भर में महिला अधिकारों के प्रति बढ़ती चेतना और आंदोलनो के परिणाम स्वरुप महिला प्रजनन अधिकारों और शारीरिक स्वायत्ता पर बहुत जोर दिया गया | उचित स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण महिलाओं को अपना गर्भपात झोलाछाप चिकित्सकों और अकुशल दाईयों से करना पड़ता था फोटो जिसके कारण गर्भपात के दौरान या बाद में कई मामलों में महिलाओं का स्वास्थ्य गंभीर रूप से ख़राब हो जाता था या उनकी मृत्यु हो जाती थी | यह समस्या सम्पूर्ण समाज के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी थी |

इस समस्या के निदान हेतु विश्व भर के देशों में अलग अलग कानूनौ का निर्माण हुया | इन कानूनौ के तहत अनावश्यक या ऐच्छिक गर्भपात पर रोक लगा दी गयी तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को गर्भपात की अनुमति प्रदान करने के प्रावधान किये गए | 

पितृसत्तात्मक समाज के चलते एक दौर ऐसा भी रहा है जिसमे महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन के रूप में समझा जाता रहा है | लेकिन सामाजिक बदलाव के कारण आधी आवादी में अपने अधिकारों को लेकर स्थानीय स्तर से लेकर अन्तराष्ट्रीय मानव अधिकार संस्थाओं के समक्ष अपने मानव अधिकारों को रखने को लेकर जागरूकता आयी है | परिणाम स्वरूप महिलाओं ने अपने घर से लेकर समाज,सरकार और न्यायालय तक संघर्ष के जरिए अपने हकूक की बातों को पहुंचाया है | 

समय समय पर महिलाओं के समक्ष नयी नयी चुनौतियों ने अपने पैर पसारे,लेकिन उनका समाधान भी सामने आया | इसी क्रम में महिलाओं के समक्ष गर्भपात की एक जटिल समस्या भी आयी जिसमे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, कानूनी और मानवाधिकार सन्दर्भों का समावेश होने के कारण इसने बहुआयामी स्वरुप ले लिया | लेकिन महिलाओं की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ने न सिर्फ अंतराष्ट्रीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन अधिकारों को मान्यता दिलाई है | 

प्रजनन अधिकार एक व्यापक शब्दावली है जिसके अधीन "गर्भधारण का अधिकार" के साथ-साथ "गर्भ का समापन का अधिकार " भी आता है | इसमें महिला की शारीरिक स्वायत्तता,उसकी गोपनीयता और गरिमा का अधिकार भी आता है | महिलाएं अपने शरीर का उपयोग कैसे करें यह उनकी शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार में आता है तथा इस पर निर्णय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उनको ही है | 

विवाह का प्राथमिक उद्देश्य प्रजनन  कर संतानोत्पत्ति  करना तथा वंश को आगे बढ़ाना है लेकिन समय के साथ साथ भारत में दहेज़ प्रथा तथा बाल विवाह जैसी विकृतियों ने भी जन्म ले लिया | समाज में दहेज़ प्रथा का सबसे भीभत्स असर कन्या भ्रूण ह्त्या के रूप में दृष्टि गोचर हुआ | भ्रूण हत्या रोकने के लिए यद्यपि भारतीय दंड संहिता की धरा ३१२  से ३१८ तक प्रावधान किये गए | 

विशेष रूप से समाज में महिला और पुरुष का लैंगिक अनुपात बनाये रखने के लिए कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाया जाना आवश्यक था इसलिए भारत की संसद द्वारा गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, १९९४ पारित किया गया | जिसके तहत गर्भाधारण से पहले या बाद में भ्रूण के लिंग चयन करना, जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या के उद्देश्य के लिए लिंग का परीक्षण करना, उसमे सहयोग प्रदान करना,और लिंग चयन के सम्बन्ध में विज्ञापन जारी करने को कानूनी अपराध बना दिया गया |

कुछ विशेष परिस्थितियों में अनचाहे गर्भ धारण से छुटकारा पाने के लिए कोई प्रावधान नहीं था इसलिए चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया | जिसके अनुसार विशेषज्ञ चिकित्सक द्वारा अधिकृत चिकित्सा केंद्र में गर्भवती महिला की पूर्व अनुमति से या नाबालिग या विकृत चित्त होने की स्तिथि में उसके माता-पिता या संरक्षक की पूर्व अनुमति से गर्भ का समापन कराया जा सकता है | उक्त अधिनियम में गर्भपात के स्थान पर गर्भ का समापन शब्द का उपयोग किया गया है | गर्भ के समापन से तात्पर्य है कि चिकित्सकीय या शल्य चिकित्सकीय पद्धतियों का उपयोग करते हुए किसी गर्भावस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया से है | 

अधिनियम में बताया गया कि पंजीकृत चिकित्सक द्वारा  गर्भ का समापन निम्नांकित परिथितियों में किया जा सकता है :(१) भ्रूण को बनाये रखने में माता की जान को ख़तरा हो |(२) गर्भधारण बलात्कार या कौटुंबिक व्यभिचार  का परिणाम हो |(३) यह स्पष्ट हो गया हो कि बच्चे के गंभीर रूप से दिव्यांग पैदा होने की प्रबल संभावना हो |(४) गर्भधारण परिवार नियोजन के साधान की असफलता का परिणाम हो |(५) गर्भावस्था के दौरान महिला की वैवाहिक स्थिति बदल गई हो (जैसे कि विधवा हो गई हो या तलाक हो गया हो) और दिव्यांग महिलायों की स्तिथि में ।

भारत में गर्भपात सम्बंधित क़ानून बनने के बाबजूद आज भी यह एक पूर्ण अधिकार के रूप में नहीं है |  चिकित्सकीय गर्भ समापन अधिनियम, १९७१ में किये गए परिवर्तन से पूर्व १६ हफ्ते से लेकर २० हफ्ते तक  पंजीकृत चिकित्सक के अनुमोदन पर अधिकृत चिकित्सा केंद्र पर गर्भ समापन की अनुमति थी 

विधि द्वारा स्थापित समय सीमा के भीतर गर्भवती स्त्री द्वारा गर्भ का समापन न कराये जाने की स्थति में उसके पास कोई विकल्प नहीं होता सिर्फ और सिर्फ न्यायालय के समक्ष जाकर गर्भ के समापन की अनुमति लेने के सिवाय | यही ही नहीं महिला को न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन की अनुमति के लिए जाने के बाद न्यायालय के समक्ष अपनी विशेष परिस्थितयों को सिद्ध करना पड़ता है तब कही उसे गर्भ समापन की अनुमति मिलती है | 

यदि महिला न्यायालय के समक्ष गर्भ के समापन के लिए आवश्यक कानूनी बाध्यतायें या विशेष परिस्थितियों  को सिद्ध करने में असफल रहती है तो विधि द्वारा निर्धारित गर्भ समापन की मियाद निकलने के बाद न्यायालय गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर सकता है | यह स्थति किसी भी महिला के लिए अनचाहे गर्भधारण की अवस्था में अत्यधिक असहज वातावरण पैदा करने वाली होती हैं | यही नहीं कई मामलों में न्यायालय से उपचार प्राप्त करने के लिए पहुंचने के बाद आदेश होने में महीनो का समय यू ही बर्बाद हो जाता है | हर संसाधन विहीन महिला उपचार हेतु उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय नहीं पहुंच सकती है | यह स्थति अनचाहे गर्भधारण से व्यथित महिलाओं के लिए उचित चिकित्सकीय सहायता तक पहुंच के उसके मानव अधिकार से वंचित करती है | 

सितम्बर २०२१ में,चिकित्सकीय गर्भ समापन (संशोधन) अधिनियम ,२०२१  लाया गया जिसके द्वारा गर्भ के समापन के लिए निर्धारित समय सीमा २० हफ्ते से बढ़ाकर २४ हफ्ते कर दी गयी | उक्त संसोधन द्वारा भी गर्भवती महिलाओं को गर्भ के समापन को अधिकार के रूप में नहीं प्रदान किया गया | लेकिन समय सीमा को बढ़ाकर सरकार ने गर्भपात के नियमो को लचीला कर महिलाओं को बड़ी रहत पहुचायी | गर्भ के समापन की पुरानी समय सीमा से बाहर अनेक मामले न्यायालयों के समक्ष पहुंच रहे थे इसलिए महिलाओं को गर्भ के समापन के लिए बढ़ाई गई अवधि तक सुरक्षित चिकित्सा सहायता पहुंचाने के लिए उक्त संसोधन लाया गया |

प्रजनन अधिकारों से सरोकार रखने वाली सर्वोच्च न्यायालय की विधि वयवस्था एक्स बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी में २२ सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की मानीय न्यायालय द्वारा अनुमति दी गयी | इस विधि व्यवस्था में न्यायालय ने स्थापित किया गया कि केवल विवाहित स्तिथि के आधार पर किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त अधिकारों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता है तथा किसी प्रकार का विभेद संवैधानिक नहीं है | 

इस विधि व्यवस्था में यह भी स्थापित किया गया कि गर्भावस्था को पूर्ण करने या समाप्त करने का निर्णय महिला की शारीरिक स्वतंत्रता के अधिकार और जीवन में अपना रास्ता चुनने की उसकी क्षमता पर पूरी तरह आधारित है | माननीय न्यायालय ने यह भी माना कि अनचाही गर्भावस्था से महिलाओं के जीवन पर गंभीर और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जैसे कि उसकी शिक्षा, रोजगार और मानसिक स्वास्थ्य  को बाधित करना | 

सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय ने गर्भ का समापन करने को विभिन्न कारणों से विवश महिलाओं के पक्ष में मानवाधिकार केंद्रित एक सकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया था अर्थात उनके प्रजनन मानवाधिकारों को व्यापक रूप प्रदान करने की दिशा में एक सकारात्म न्यायिक निर्णय था |

विधि व्यवस्था शुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशाशन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया है कि किसी भी महिला का प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद २१ का एक अहम् पहलू है | इसी प्रकार  न्यायमूर्ति केएस पुट्टस्वामी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य नामक निर्णय में महिला के प्रजनन करने या प्रजनन न करने को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार और निजता का अधिकार के  अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी | 

सर्वोच्च न्यायालय की विधि व्यवस्था एक्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में ,२७ वर्षीय २ बच्चों की एक विवाहित महिला ने अवांछित गर्भधारण होने के बाद प्रारम्भ में स्वास्थ्य केंद्रों पर गर्भ के समापन कराने का प्रयास किया लेकिन उचित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध न होने पर उसका तत्काल समापन कराने के लिए आवश्यक स्वास्थय सेवा तक पहुंच की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का रूख करने के लिए विवश होना पड़ा |

याचिकाकर्ती ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत विपक्षिओं को उनकी वर्तमान गर्भावस्था से चिकित्सकीय गर्भपात के लिए दिशा निर्देश जारी करने के निर्देश दिए जाने की याचना की गयी | उसने याचिका में बताया कि २४ हफ्ते तक उसे अपनी गर्भावस्था का पता नहीं लग सका, क्योंकि उसे लेक्टेशनल एमेनोरिया की बीमारी थी जिसके कारण दूध पिलाने वाली महिला को महामारी (पीरियड्स) नहीं होते हैं | महिला ने बताया कि दूसरे बच्चे के जन्म के बाद पहली बार प्रसूति रोग  विशेषज्ञ (गयनोकोलॉजिस्ट) के पास गयी क्योंकि उसे उलटी,कमजोरी,सुस्ती और पेट में परेशानी महसूस कर रही थी | उसका उल्ट्रासाउंड हुआ जिसके बाद उसे पता चला कि वह गर्भवती है | उस वक्त गर्भावस्था अनुमानतः २४ हफ्ते की थी | 

याचिकाकर्ती ने कथन किया की वह और उसके पति ने अस्पतालों में चिकित्सकीय गर्भ का समापन कराने का प्रयास किया लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी एक्ट, १९७१ सपठित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रिग्नेंसी रूल्स २००३ (२०२१ में यथा संसोधित) के कारण असफल रही | इस लिए वह रिट के अधिकार क्षेत्र के तहत सर्वोच्च न्यायालय पहुंची और उसने निम्न आधारों पर अपने गर्भ समापन की अनुमति की मांगी | (क)वह प्रसवावस्था के बाद होने वाले डिप्रेशन से पीड़ित है और उसकी मानसिक स्थति अनुमति नहीं देती है कि अन्य बच्चे को बड़ा कर सके |(ख)उसका पति उसके परिवार में एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति है और उसके पास देखभाल करने के लिए पहले से ही दो बच्चे हैं और परिवार के अन्य सदस्य भी हैं जो उन पर निर्भर हैं | 

याचिकाकर्ती को उसी दिन आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस ,नई  दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के समक्ष उपस्थित होने के आदेश पारित किये गए | जिसके बाद अल्ट्रासोनोग्राफी की रिपोर्ट के आधार पर माननीय न्यायालय द्वारा ९ अक्टूबर २०२३ को माना कि गर्भावस्था के जारी रखने से याचिकाकर्ती की मानसिक स्तिथि को गंभीर रूप से छति पहुंचेगी और इस आधार पर उसे चिकित्सकीय गर्भपात की अनुमति प्रदान कर दी गयी | 

लेकिन उसके बाद हुए घटनाक्रम में दरअसल दिनांक १० अक्टूबर, २०२३ को आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस,नई दिल्ली के चिकित्सा बोर्ड के एक सदस्य द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया गया कि गर्भ के जीवित रहने की प्रबल संभावनाएं है तथा सर्वोच्च न्यायालय से दिशा निर्देश प्रदान करने की गुजारिश की कि क्या भ्रूण की ह्रदय गति रोकी जानी चाहिए |यदि भ्रूण की ह्रदय गति नहीं रोकी जाती है तो बच्चे को गहन चिकित्सा के अधीन रखना पडेगा और इस बात की अधिक संभावना है कि बच्चे को तत्काल या दीर्घकालीन शारीरिक और मानसिक विकलांगता हो जाए | सदस्य चिकित्सक ने न्यायालय से दिशा निर्देश की मांग की कि क्या भ्रूणह्त्या की जानी चाहिए, उन्होंने कहा कि हम आभारी होंगे यदि माननीय न्यायालय प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए दिशा निर्देश जारी करे | 

इसी के बाद न्यायालय ने अपना पूर्व में दिया गया आदेश वापस ले लिया और इसके बाद न्यायालय में हुयी बहस ने नया मोड ले लिया | न्यायालय के समक्ष रखे जा रहे तर्कों में भ्रूण की स्तिथि और अजन्मे बच्चे के अधिकारों के बारे में न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया | परिणाम स्वरुप अंतिम निर्णय के तौर पर न्यायालय ने याचिकाकर्ती की प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार के मुकाबले अजन्मे बच्चे के अधिकारों को ज्यादा वरीयता दी,जिसके कारण न्यायालय ने गर्भ के समापन की अनुमति देने से इंकार कर दिया | 

उक्त निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि प्रजनन स्वायत्तता के पूर्ण उपयोग के लिए गर्भवती महिला को अपनी परिस्थितिजन्य खतरों और गर्भपात की अपनी पूर्ण आवश्यकता को साबित करना होगा | इससे स्पष्ट है कि  सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व में दिए गए निर्णयों में प्रजनन अधिकारों के बारे में अंतिम निर्णयकर्ता के रूप में  गर्भवती महिला को मान्यता दी गयी थी लेकिन उक्त निर्णय से प्रतीत होता है कि महिला को प्राप्त गर्भ के समापन का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है बल्कि तार्किक प्रतिबंधों की भेट चढ़ गया है| 

उपरोक्त अधिनियम प्रजनन स्वायत्तता व् महिला केंद्रित होने के बाबजूद सेवा प्रदाता केंद्रित हो गया है अर्थात अधिनियम में वर्णित विशेष परिस्थितियों और गर्भ के समापन हेतु अनुमन्य समय-सीमा के बाहर अवांछित या अनचाहे गर्भ के समापन के लिए गर्भवती महिला को चिकित्सकों और न्यायालयों पर ही निर्भर रहना होगा | जिससे स्पष्ट है कि महिलाओं को प्राप्त गर्भपात का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है तथा यह अधिकार तार्किक प्रतिबंधों द्वारा बाधित या सीमित अधिकार है | 

सयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की वर्ष २०२२ में दी गयी एक विधि व्यवस्था डॉब्स बनाम जैक्सन महिला स्वास्थ्य संगठन में माननीय न्यायालय ने स्थापित किया कि अमेरिका का संविधान गर्भपात का अधिकार प्रदान नहीं करता है | इस निर्णय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने पुरानी विधि व्यवस्थायों  रो बनाम वाडे ,१९७३ तथा प्लांड पररेंटहुड बनाम कासे, १९९२ को रद्द कर दिया | 

उपरोक्त के अवलोकन से यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण न होगा कि विश्व के सर्वाधिक विकसित माने जाने वाले देश सयुक्त राज्य अमेरिका में अब गर्भपात का अधिकार पूर्ण रूप से समाप्त हो गया है | यद्धपि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का गर्भपात के अधिकार को समाप्त करने का निर्णय यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका का गर्भपात सम्बंधित मानव अधिकार प्रावधानों की संयक्त राष्ट्र संघ के सदस्य के रूप में अंतराष्ट्रीय समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता के विपरीत है | 

उक्त से स्पष्ट है कि भारत में ही नहीं अमेरिका जैसे विकसित देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद गर्भवती महिलाओं के लिए अधिकार के रूप में गर्भपात की उचित चिकित्स्कीय सुविधाओं तक पहुंच अत्यधिक दुरूह कार्य हो गया है | वहीं फ्रांस विश्व का पहला देश बन गया है जिसने वर्ष २०२४ में महिलाओं के पक्ष में गर्भपात के अधिकार को संवैधानिक अधिकार  के रूप में घोषित किया है | 

यदि ऐतिहासिक पटल पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि हिन्दू अवधारणा के अनुसार गर्भपात या भ्रूण ह्त्या एक पाप था | विधिक दृष्टांतों से भी पता चलता है कि अजन्मे शिशु को भी जीवित व्यक्ति की भाँति माना जाता है | ब्रॉनबेस्ट  बनाम कोट्ज़  नामक विधि व्यव्स्था में अजन्मे बच्चे को मानव के समान स्वीकार किया गया | जन्म लेने के अधिकार को देखें तो स्पष्ट होता है कि गर्भपात का अधिकार कोई पूर्ण अधिकार नहीं है | 

जन्म लेने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ में जीवन का अधिकार से पूर्ण रूप से संरक्षित है | यदि एक गर्भवती महिला को  भ्रूण समापन का पूर्ण अधिकार दिया जाता है तो यह भ्रूण ह्त्या का एक नया अधिकार उत्त्पन्न  करेगा | एक स्वस्थ और जीवित रहने की प्रबल छमता रखने वाले भ्रूण या अजन्मे शिशु की हत्या विश्व के किसी भी विधि में अनुमन्य नहीं है |

जन्म से पहले और जन्म के बाद शिशुओं का संरक्षण राज्य  के दायित्वाधीन है | राज्य किसी भी महिला या बालिका को यह अधिकार नहीं दे सकता कि वह कोख में पल रहे अजन्मे बच्चे की हत्या करे या करवाए | इसी लिए गर्भपात के अधिकार को भारतीय दंड संहिता और चिकित्सकीय प्रक्रिया तथा गर्भ समापन अधिनियम ,१९७१ द्वारा सीमित किया गया है | परिणामस्वरूप भ्रूण में पल रहे बच्चे को जीवित पैदा होने का विधिक संरक्षण राज्य द्वारा प्राप्त होता है | 

गर्भवती बालिकाओं और महिलाओं की गर्भपात के अधिकार के रूप में चिकित्सकीय सुविधाओं तक की पहुंच अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार के मूल में स्थापित है | गर्भपात तक पहुंच एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार है जो मानव अधिकारों की व्यापक शृंखला के रूप में जीवन,व्यक्ति की सुरक्षा,गोपनीयता,गैर भेदभाव के मानव अधिकारों केसाथ-साथ क्रूर,अमानवीय, या अपमानजनक व्यवहार से मुक्ति की गारंटी भी प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण है |व्यक्ति के एक मानव अधिकार के उल्लंघन की स्तिथि में उसके अन्य कई मानव अधिकारों पर भी नकारात्मक असर पड़ता है |

संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकार कमेटी ने गर्भपात के अपराधीकरण के सम्बन्ध में अपनी चिंता जाहिर की है तथा सदस्य राज्यों से असुरक्षित गर्भपात रोकने के लिए  सुरक्षित गर्भपात के साधनों तक अधिक से अधिक पहुंच बढ़ाने का अनुरोध किया है | उपरोक्त से स्पष्ट है कि सुरक्षित और आवश्यक गर्भसमापन के लिए मानव अधिकार केंद्रित तथा संतुलित विधि और नीतियाँ ही सर्वाधिक हितकारी उपाय है जिससे गर्भपात के अधिकार और भ्रूण के अधिकार में संतुलन कायम हो सके | 

१.https://en.wikipedia.org/wiki/Dobbs_v._Jackson_Women%27s_Health_Organization 
२. (१९८९ )१५ एफo एल o आर o २०९७ 

F A Q :
प्रश्न  : क्या गर्भपात मानव अधिकार का मुद्दा है ?
उत्तर : सुरक्षित और विधिक गर्भ के समापन तक गर्भवती महिला की पहुंच निश्चित रूप से मानवअधिकार का विषय है | अंतराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रसंविदायों के तहत किसी गर्भवती बालिका या महिला को गर्भपात के सम्बन्ध में उचित स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच से इंकार या वञ्चित्त करना उसके साथ भेदभाव करने के सामान है जो उसके कई मानव अधिकारों को  खतरे में डालता है क्योंकि सभी मानव अधिकार एक दूसरे पर अंतर्निर्भर है |
 
प्रश्न : क्या भारत में अविवाहित बालिकाऔर महिला के लिए गर्भपात विधिक है ?
उत्तर : भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित विधि व्यास्था के अनुसार सभी महिलाओं ,जिनमे अविवाहित भी शामिल हैं,२४ सप्ताह तक गर्भपात करा सकती हैं | भारत में  गर्भपात को १९७१ में अधिनियमित किया गया तभी से इसे विधिक बना दिया गया लेकिन समय के साथ-साथ गर्भपात के नियम कठोर होते जा रहे है | 

 प्रश्न : क्या गर्भ के समापन के लिए बालिका या महिला की सहमति आवश्य्क है ? 
उत्तर : गर्भ का चिकित्स्कीय समापन अधिनियम,१९७१ के प्रावधानों के अनुसार गर्भ का समापन कराने वाली महिला की सहमति आवश्यक होती है | नाबालिग अर्थात जिसने जिसने १८ वर्ष की आयु पूरी न की हो तथा या दिव्यांग महिला के सन्दर्भ में उसके संरक्षक की सहमति आवश्य्क है | लेकिन यदि नाबालिग अवांछित गर्भ को नियमित कर अपने बच्चे को जन्म देना चाहती है तो संरक्षक की सहमति की तुलना में उसकी सहमति को तवज्जो दी जाएगी | 

भारत में महिला भ्रूण हत्या पर जस्टिस नागरत्ना की चिंता: एक मानवाधिकार विश्लेषण

प्रस्तावना   "लड़की का जन्म ही पहला अवरोध है; हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह सिर्फ जीवित न रहे, बल्कि फल-फूल सके।”                 ...

डिजिटल अरेस्ट मानव अधिकारों पर हमला सम्पूर्ण जानकारी